महाज्ञानी बनना है तो इस रहस्य को समझ लें
18-Dec-2013 08:43 AM 1234903

संसार में किसी से भी कह दें कि तुम अज्ञानी हो तो वह आपको मारने-पीटने के लिए दौड़ेगा। कारण यह है कि कोई भी अपने आपको अज्ञानी मानने को तैयार नहीं होता। जबकि सच तो यह है कि बड़ी-बड़ी उपाधियां और डिग्रियां लेकर ऊंचे पदों पर काम करने वाले व्यक्ति भी महाअज्ञानी होते हैं। यह बात आपको थोड़ी बुरी लग सकती है लेकिन, श्री कृष्ण ने जो बातें गीता में बताई है उसके अनुसार दैनिक जीवन की घटनाओं पर विचार करेंगे तो आप स्वयं मानेंगे कि वास्तव में हम सभी महाअज्ञानी हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं य एनं बेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हत। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
यानी जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मरता है और न मारा जाता है। आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह मारा नहीं जाता है। फिर भी आप देखते होंगे कि किसी के परिवार में कोई परलोक सिधार जाता है तब परिजन दहारें मार-मारकर रोने लगते हैं। मृत्यु के शोक में दु:खी होकर जाने वाले को याद करते रहते हैं। जबकि यह तय है कि जो शरीर में मौजूद आत्मा है वह पुन: अपने कर्म के अनुसार शरीर ग्रहण करके पृथ्वी पर वापस आएगा अथवा पुण्य कर्मों से परमधाम में सभी सुख प्राप्त करेगा। जो इस सत्य को जानकर शोक और दु:ख पर विजय प्राप्त कर लेता है वह महाज्ञानी बन जाता है, यह श्री कृष्ण का कथन है।
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 
भगवान राम और श्री कृष्ण विष्णु के अवतार हैं यह बात शास्त्रों और पुराणों में लिखा है। लेकिन राम पृथ्वी त्याग करने के बाद विष्णु में लीन हो गए लेकिन कृष्ण का अपना एक लोक है जिसे गोलोक कहते हैं। गीता और ब्रह्मसंहिता में गोलोक के सौन्दर्य और नजारों का वर्णन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। अर्थात्, भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्रमा द्वारा, न ही अग्नि या बिजली द्वारा प्रकाशित होता है। जो लोग यहां पहुंच जाते हैं वह इस भौतिक जगत में फिर कभी लौटकर नहीं आते हैं।
गोलोक में प्रकाश के लिए न तो चन्द्रमा की आवश्यक्ता है न सूर्य की। यहां तो परब्रह्म की ज्योति प्रकाशमान है, इन्हीं की ज्योति से गोलोक प्रकाशित है। यहां पर राधा और कृष्ण नित्य विराजमान रहते हैं और कृष्ण की बंशी की मधुर तान से संपूर्ण लोक आनंदित और स्वस्थ रहता है। मंद-मंद सुगंधित हवाएं चलती हैं। भूख-प्यास, रोग, दोष, चिंता का यहां कहीं नामोनिशान नहीं है। गौएं और श्री कृष्ण की सखी एवं सखाएं इनकी सेवा करके आनंदित रहते हैं। यहां न किसी को स्वामी भाव का अभिमान है और न किसी को दास भाव की वेदना है। इसलिए कहा गया है कि मनुष्य जिसे भगवान ने मध्य लोक यानी पृथ्वी पर भेजा है उसे गोलोक की प्राप्ति के लिए श्री कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। जो इनकी भक्ति भावना से विमुख होता है वह अधोगति को प्राप्त होता है यानी नीच योनियों में अर्थात कीट, लोकायुक्त पतंग और पशु-पक्षियों के रूप में जन्म लेकर दु:ख भोगते हैं। श्रीमदभगवदगीता के अनुसार, मन ही कारण है आपके बंधन का और मन ही कारण होगा मुक्ति का। इसी के अज्ञान के कारण तुम बंधन में रहते हो और इसी मन की वजह से तुम मुक्त भी हो सकते हो। कारण, बंधन जहां पर है उसे खोला भी तो वहीं से जाएगा। गांठ जहां पर है, वह खोली भी तो वहीं से जाएगी ऐसा तो नहीं होता है कि गांठ है यहां है और तुम खोलोगे वहां। कहां होती है वासनाएं? कहां हैं सब तृष्णाएं? असल में सबका कारण मन है। मन आपके साथ खेल खेलता रहता है, और आप हो कि खेल खेलते रहते हो। मन इसी तरह कुछ न कुछ इच्छा प्रकट करता रहता है और मन की इच्छा को दबाना तुम्हारे लिए बड़ा ही मुश्किल हो जाता है तुम फिर इस तरह से प्रयास करते हो कि यह इच्छा कैसे पूरी हो जाए। जब तक वह इच्छा पूरी नहीं होती, तब तक उसका कांटा तुम्हारे दिल में चुभता रहता है। एक बात तो नश्चित है कि एक इच्छा पूरी होने के बाद फिर किसी दूसरी इच्छा का कांटा तुम्हारे दिल में चुभने लगता है लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि इच्छा अपने आप में ही एक बहुत बड़ा कांटा है।

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