नौ मंत्रियों के सहारे रमन
31-Dec-2013 06:57 AM 1234797

रमन सिंह की नैया हिचकोले खाते हुए मात्र 1 लाख वोट ज्यादा लेकर ठिकाने तो लग गयी किन्तु उम्मीदों के जिस पहाड़ पर रमन विराजमान हैं उसे लांघने के लिए सबसे पहले लोकसभा  चुनाव में पार्टी को जीत दिलानी होगी। इसीलिये जो मंत्रिमंडल रमन ने गठित किया है उसमें तीन नए चेहरे भी हैं, किन्तु विधानसभा के समय रमन नहीं उनके  मंत्रियों के खिलाफ जनता थी यह सब जानते हैं इसीलिये केवल 3 नए चेहरे और बाकि वे ही 6 पुराने मंत्री गले उतरने वाली बात नहीं है। यदि जनता का रुख मंत्रियों के प्रति यही बना रहा तो लोकसभा चुनाव में सभी सीटें जीतने का रमन सिंह का सपना चूर भी हो सकता है। हालाँकि चुनावी पंडितों का कहना है कि लोकसभा चुनाव केंद्र की सरकार के खिलाफ होंगे इसलिए ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, पर बस्तर के नतीजे रमन सिंह को अभी से परेशान  कर रहे हैं जिनका असर 4 लोकसभा सीटों पर पड़ सकता है। इन क्षेत्रों में रमन को प्रशासन पर पकड़ बनानी होगी।
उनके 2003 एवं 2008 के शासनकाल में जो सबसे बड़ी कमी महसूस की गई थी, वह थी प्रशासन पर उनकी कमजोर पकड़। मुख्यमंत्री ने अपनी छवि को साफ-सुथरी बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु प्रशासन को उन्होंने इतना ढीला छोड़ दिया कि वह स्वेच्छाधारी हो गया। इसलिए प्रशासनिक कसावट पहली जरूरत है। चूंकि डॉ.रमन सिंह को तीसरा कार्यकाल मिला है लिहाजा यह उम्मीद की जाती है कि वे अब प्रशासनिक ढिलाई बर्दाश्त नहीं करेंगे तथा उसमें भरपूर पारदर्शिता लाएंगे। शासन-प्रशासन के स्तर पर एक और बड़ी जरूरत है कामकाज पर सतत निगरानी की। जनहित की योजनाएं तो बहुतेरी हैं किंतु उन पर अमल का पक्ष उतना ही कमजोर। भ्रष्टाचार के फलने-फूलने की यह एक बड़ी वजह है। राज्य में विकास के अरबों रुपए के काम हो रहे हैं, और यह स्थापित सत्य है कि मंत्रियों, राजनेताओं, अफसरों से लेकर शासकीय सेवा के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति तक कमीशनखोरी रोजाना के व्यवहार में शामिल है। कल्पना की जा सकती है कि राज्य में भ्रष्टाचार किस कदर भयानक है। इसे खत्म करना तो नामुमकिन है अलबत्ता इसे सीमित जरूर किया जा सकता है। शासन के सामने यह एक बड़ी चुनौती है।
सवाल यह भी है कि बस्तर और सरगुजा में भरपूर ध्यान देने के बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस से क्यों कमतर रही? चाहे मुख्यमंत्री रमन सिंह की विकास यात्रा हो या ग्राम सुराज अभियान, उसका श्रीगणेश दंतेवाड़ा से किया गया, बस्तर और सरगुजा में मुख्यमंत्री ने पिछले पांच सालों में अरबों के विकास कार्यों की सौगातें दीं लेकिन ऐसा क्या हुआ कि बस्तर में उसके हाथ से 7 सीटें निकल गई जबकि 2008 के चुनाव में उसे 12 में से 11 सीटें मिली थीं। क्या जीरम घाटी नक्सली हमले में दिग्गज कांग्रेसियों की मौत पार्टी पर कहर बनकर टूटा? क्या विकास कार्यों में हुआ भारी भ्रष्टाचार उसे ले डूबा अथवा नक्सली आतंक से उसके खिलाफ मतदान हुआ या फिर स्थानीय समस्याओं यथा सड़क, नाली, बिजली, पानी तथा खस्ताहाल लोक स्वास्थ्य ने उसका मार्ग रोका? दरअसल आजादी के 66 वर्षों के बावजूद बस्तर के घने जंगलों में बसे आदिवासियों तक प्रशासन की कोई पहुंच नहीं है तथा उनका जीवन भगवान भरोसे है। मतलब स्पष्ट है कि बस्तर में अरबों रुपए मुख्यत: ग्रामीण स्वास्थ्य, पेयजल, शिक्षा तथा सड़क और बिजली की व्यवस्था के नाम पर जो खर्च किए गए, वे बेमानी हैं, कागजों पर हैं। अन्यथा स्थानीय समस्याओं पर हुआ मतदान भाजपा के खिलाफ नहीं जाना चाहिए था। मुख्यमंत्री को अब अपने अगले पांच सालों में बस्तर में वास्तविक विकास पर ध्यान देना होगा। यदि वास्तविक विकास हुआ होता तो जाहिर है, नक्सली समस्या पर भी कुछ हद तक काबू पाया जा सकेगा।
अपने चुनावी घोषणापत्र में पार्टी ने जनता से जो वायदे किए हैं, उन पर अमल की शुरुआत मुख्यमंत्री ने अपनी तीसरी पारी के पहले दिन से ही कर दी है। इनमें प्रमुख हैं आगामी 1 जनवरी से 47 लाख परिवारों को एक रुपए किलो चावल तथा किसानों को धान पर प्रतिवर्ष 300 रु. प्रति क्विंटल बोनस। धान का समर्थन मूल्य 2100 रु. निर्धारित करने के लिए मुख्यमंत्री ने गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है।
रमन सिंह ने अपने मंत्रियों के विभाग बांटते समय सबसे पहले क्षेत्रीय संतुलन की तरफ ध्यान दिया। उनके मंत्रिमंडल में जो चेहरे शामिल किए गए हैं। वे आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि रमन का मानना है कि छत्तीसगढ़ में 11 लोकसभा सीटों से बढ़त मिलने पर भाजपा को केंद्र में अतिरिक्त मजबूती मिलेगी। अभी भी छत्तीसगढ़ ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है जिसने कुल लोकसभा सीटों की संख्या के लिहाज से भाजपा को सर्वाधिक सीटें दी हैं। रमन सिंह लगातार 15 वर्ष तक काम करने वाले किसी भी छोटे प्रदेश के पहले भाजपाई मुख्यमंत्री भी हैं और शीला दीक्षित की बराबरी पर हैं। इसीलिए रमन सिंह के मंत्रिमंडल का बहुत महत्व है। विधानसभा चुनाव में कई मंत्रियों की पराजय के बाद रमन के समक्ष कुछ ऐसे चेहरे प्रस्तुत करने की चुनौती थी जो जनता के बीच अपनी पहचान बना सकें। इसीलिए 9 सदस्यीय मंत्रीमंडल में 4 विधायक नए हैं। जिनमें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रामसेवक पैकरा व रमशीला साहू का नाम है। पिछड़े व आदिवासी वर्ग से दो-दो मंत्री बनाए गए हैं। मंत्रिमंडल में पहली बार रमन ने ब्राह्मण समाज को प्रतिनिधित्व दिया है। अजय चंद्राकर 2008 के चुनाव में पंचायत मंत्री रहते हुए पराजित हो गए थे उन्हें मंत्री बनाया गया है। कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के बाद तीन और विधायकों को मंत्री बनाया जाएगा। अमर अग्रवाल, बृजमोहन अग्रवाल, केदार कश्यप, पुन्नूलाल मोहिले तीसरी बार व राजेश मूणत दूसरी बार मंत्री बने हैं। बस्तर संभाग से भाजपा को बहुत नुकसान हुआ जिसका असर मंत्रिमंडल गठन में भी दिखाई दिया। यहां से केवल केदार कश्यप को मंत्री बनाया गया है। कुछ और भी विधायक लाइन में थे जिनमें विक्रम उसेंडी, दयालदास बघेल, युद्धवीर सिंह जूदेव का नाम प्रमुख है। इन सबको भी मंत्री बनने की आशा थी लेकिन छोटे राज्य में मंत्रिमंडल का गठन सदैव एक चुनौती रहता है। रमन सिंह के समक्ष यह चुनौती पिछली बार की अपेक्षा थोड़ी सी कम है। क्योंकि इस बार यहां भाजपा को 49 सीटों पर ही जीत मिली है। यदि ज्यादा विधायक जीतकर आते तो परिस्थिति कुछ भिन्न रहती। चौथी बार चुनाव जीतकर आए पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेम प्रकाश पाण्डेय अविभाजित मध्यप्रदेश की सुंदरलाल पटवा सरकार में मंत्री रह चुके हैं। शहरों को भी अच्छा प्रतिनिधित्व दिया गया है जैसे रमशीला साहू दुर्ग से हैं, मूणत रायपुर दक्षिण से हैं।
लोकसभा चुनाव की दृष्टि से रमन सिंह सरकार को संतुलित रखते हुए तेजी से विकास कार्यों को अमल में लाने में जुट गए हैं और उन्होंने कुछ लक्ष्य तय किए हैं जिन्हें अगले तीन माह के भीतर पाने की कोशिश की जाएगी। रमन सिंह के लिए सबसे बड़ी चिंता बस्तर है। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को मात्र एक प्रतिशत वोट ज्यादा मिले हैं। जिसका असर लोकसभा चुनाव में अवश्य पड़ेगा। विश्लेषकों का कहना है कि वर्तमान में तो केवल छह सीटों पर भाजपा मजबूत दिखाई दे रही है जबकि भाजपा नेतृत्व का विश्वास है कि रमन सिंह इस बार भी पूरी सीटें निकाल ले जाएंगे। बस्तर में कांग्रेस को नक्सलवादी घटना का बहुत फायदा हुआ और यह भी कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के लिए यहां जीतना उतना आसान नहीं रहेगा।
लोकसभा चुनाव की तैयारी?
विधानसभा चुनाव में सरकार के विरोधीमत नोटा को मिल गए। लगभग 4 लाख वोट नोटा के खाते में गए हैं। इसका एक विश्लेषण यह भी है कि ज्यादातर आदिवासी क्षेत्रों से नोट के पक्ष में वोट डाले गए। रमन सिंह को आदिवासी बेल्ट में अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी। फिलहाल आदिवासी नेतृत्व के नाम पर भाजपा में छत्तीसगढ़ में कोई प्रभावी नेता नहीं है। यहां शुरू से ही एक मजबूत आदिवासी नेतृत्व की जरूरत महसूस की जा रही है। लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल क्षेत्रों पर पकड़ बनाना थोड़ा कठिन होगा। हालांकि मुख्यमंत्री ने कुछ चुनावी घोषणाएं की हैं, जिनका सकारात्मक असर देखा जा रहा है। उधर शहरी क्षेत्रों में भाजपा पहले की अपेक्षा ज्यादा मजबूत है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिशें अभी से प्रारंभ हो गई हैं। 15 जनवरी के बाद रमन सिंह प्रदेश में कई जगह जाने की तैयारी पर हैं। लगातार तीसरी बार सरकार में आने के कारण अब भाजपा पर ज्यादा जिम्मेदारी है क्योंकि 15 वर्ष एक राज्य को बदलने के लिए काफी हैं।

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