31-Dec-2013 06:29 AM
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डर पैदा कैसे होता है- आने वाले कल का डर, रोजी-रोटी छूट जाने का डर, रोगग्रस्त हो जाने का डर, दर्द का डर। डर में बीते हुए और आने वाले वक्त के विषय में विचारों की एक प्रतिक्रिया समाई रहती है। अतीत का कुल जमा जोड़ मैंÓ भविष्य

में क्या होगाÓ इससे डरा रहता है। तो डर आता कैसे है? डर का हमेशा किसी ना किसी चीज से संबंध होता है- वरना डर होता ही नहीं। इसलिए हम आने वाले कल से, जो हो गया है उससे, या जो होने वाला है उससे डरे रहते हैं। इस डर को लाया कौन? क्या डर को लाने वाला विचार ही तो नहीं है जो डर को लाया है? विचार है डर का मूल तो विचार है डर का जन्मदाता। मैं अपनी नौकरी-कामधंधा छूट जाने के बारे में या इसकी आशंका के बारे में सोचता हूं और यह सोचना, यह विचार डर को जन्म देता है। इस प्रकार का विचार खुद को वक्त में फैला देता है, क्योंकि विचार वक्त ही है। मैं कभी किसी वक्त जिस रोग से ग्रस्त रहा उस विषय में सोचता हूं, क्योंकि उस वक्त का दर्द, बीमारी का अहसास मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं डर जाता हूं कि मुझे फिर वही बीमारी ना हो जाये। दर्द का एक अनुभव मुझे हो चुका है, उसके विषय में विचारना और उसे ना पसंद करना डर पैदा कर देता है। डर का सुख-विलासिता से करीबी रिश्ता है, बहुत निकट का संबंध है। हममें से अधिकतर लोग सुख-विलास से प्रेरित रहते हैं, संचालित रहते हैं। किसी पशु की भांति इंद्रियों के सुख हमारे लिए सर्वोच्च महत्व रखते हैं। यह सुख, विचार का ही एक हिस्सा होता है। जिस चीज से सुख मिला हो उसके बारे में सोचने से सुख मिलता है या सुख बढ़ जाता है, है ना? क्या आपने इस सब पर ध्यान दिया है? आपको किसी ऐसा सुख का कोई अनुभव हुआ हो जैसे किसी सुंदर सूर्यास्त का या यौन संबंध का और आप उसके बारे में सोचते हैं। उसके बारे में सोचना, उस सुख को बढ़ा देता है, ठीक वैसे ही अपनी झेली पीड़ा के बारे में सोचना डर पैदा कर देता है, डरा देता है। इससे सिद्ध है कि विचार ही मन में पैदा होने वाले सुख का या डर का जनक है, है न? विचार ही सुख की मांग करने और उसकी लगातार चाहत के लिए जिम्मेदार है, वह भय को जन्म देने के लिए, डर का कारण बनने के लिए जिम्मेदार है।
यह बात एकदम साफ है और इसका प्रयोग करके देखा जा सकता है। डर को समझें कृपया इसे समझें। हमारे लिए विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे पास यही तो एकमात्र उपकरण है। यह विचार उस याद की प्रतिक्रिया है जो अनुभव, ज्ञान और परंपराओं से सींची गई है। यादें समय का परिणाम, पशुता से मिली विरासत होती हैं। इसके आधार पर ही हम प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया विचार से जुड़ी होती है। विचार कुछ निश्चिति स्तरों पर तो जरूरी होता है परंतु जब यह बीते हुए और आने वाले वक्त में, अतीत और भविष्य में खुद को मानसिक तौर पर फैलाने लगता है तब यह डर पैदा करता है। सुख भी कुछ ऐसा ही करता है परंतु इस प्रक्रिया में मन धीमा पड़ जाता है और इसी वजह से ऐसी अवस्था आ जाती है कि इंसान कुछ भी नहीं करना चाहता है। डर ख्याल की पैदाइश है। चीजों, व्यक्तियों और विचारों पर निर्भरता भय को जन्म देती है। यह निर्भरता पैदा होती है अज्ञान से, खुद को ना जानने के कारण, अंदरूनी गरीबी के कारण, खुद के बारे में ही कोई अता-पता ना होने की वजह से। डर, दिल दिमाग की अनिश्चितता का कारण बनता है और यह अनिश्चितता किसी समझ-बूझ में बाधक बनती है। खुद में सजग होकर हम खोजना शुरू करते हैं और इससे डर की वजह को समझ पाते हैं। केवल सतही डरों को ही नहीं बल्कि गहरे कारणजात और सदियों से इक_े डरों को भी इस तरह से समझा जा सकता है। डर अंदर से भी पैदा होता है और बाहर से भी आता है। यह अतीत से जुड़ा होता है। इसलिए अतीत से विचार के प्रवाह को मुक्त करने के लिए अतीत को समझा जाना जरूरी है और ऐसा करने के लिए हम वर्तमान की मदद ले सकते हैं। हमारा अतीत हमेशा वर्तमान को जन्म देने को आतुर रहता है जो मुझेÓ, मेरेÓ और मैंÓ की जैसी यादें बन जाता है। यह सारे भय की जड़ है और इनसे निपट कर ही हम डर के डर से निजात पा सकते हैं। मन का अपना कुछ नहीं होता, यह काम तो हमारे आसपास का वातावरण करता है। वह हमारी इच्छाओं को जगाने और उसको बढ़ाने वाला होता है। जब मन को बाहर से कोई आनंद की चीज मिलती है, तब मन उसके प्रभाव में आ जाता है। साथ ही, जब दिमाग में कोई वासना उठती है तब भी मन उससे प्रभावित हो जाता है।
मतलब, इच्छाएं मन में अंदर और बाहर दोनों ओर से आ ही रही हैं, लेकिन जिसने मन को कंट्रोल किया है वो उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए उनके पीछे नहीं भागता। जो केवल मन को ही महत्व देते हैं और जो मन में आता है वो ही करते रहते हैं, ऐसे लोगों को मन में उठने वाली इच्छाएं लगातार अपने कब्जे में रखती हैं और यह दुखों का कारण बन जाती हैं। करीब से देखा जाए तो व्यक्ति के परेशान और दुखी होने का कारण उसकी अधूरी इच्छाएं ही हैं। इसलिए मन में आने वाली इच्छाओं को पूरा करने में नहीं लग जाना चाहिए, बल्कि मन के बहाव को शांत रखना चहिए। ऐसा करने से ही जीवन सुंदर बन सकता है। ठीक समुद्र की तरह जिसके चारों ओर से पानी आकर उसमें मिलता रहता है लेकिन समुद्र में उसका कोई असर नहीं पड़ता, ऐसे ही मन में आती इच्छाओं का असर भी हम पर नहीं पडऩा चाहिए।