05-Dec-2013 08:33 AM
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नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्। गीता2-66
योगसाधनारहित पुरुष के अंत:करण में निष्काम कर्मयुक्त बुद्धि नहीं होती। उस के अंत:करण में भाव भी नहीं होता है। भावरहित पुरुष को शान्ति कहा और अशांत पुरुष को सुख कहा? संसार में मनुष्य दो विषयों को पाने के लिये कर्म करता है,

एक संसारिक और दूसरा अध्यात्मिक। संसारिक विषय का संबंध, शरीर और शरीर के संबंधियो से है। संसार के विषय प्रत्यक्ष है, प्रत्यक्ष वस्तु में आसानी से विश्वास हो जाता है। स्वयं को तथा परमात्मा को जानने वाला विषय अध्यात्मिक है, जों कि परोक्ष है, परोक्ष वस्तु में पूर्ण भावना का होना कठिन है। हमें अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन पर संयम रखना होगा और अंत:करण की शुद्धि के लिए पूर्ण रूप से प्रयत्न करना होगा। यदि हम इसके विपरीत चलेंगे और, साथ-साथ भगवत् विषय को भी जानने का प्रयत्न करेंगें, तब निश्चयात्मिक बुद्धि न होने के कारण हम भावना हीन रहेंगे। भावना रहित मन में भगवद् विषय को अपनाने की प्रबल इच्छा नहीं होती। बुद्धि के द्वारा भगवत् विषय में सही-सही निर्णय न लेने के कारण शंका बनी रहेगी तथा मन व्याकुल रहेगा। व्याकुल एवं अशांत मन वाला व्यक्ति सुखी नही रह सकेगा।
उपनिषद् कहते हैं। शिवो भूत्वा शिवं यजेतÓ शिव बनकर शिव का अनुभव करो। अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बुद्ध कहते हैं-अप्प दीपो भवÓ। महावीर कहते हैं संपेक्खिए अप्पÓ गमप्यएणÓ आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बाइबिल कहती है च्ह्र स्नड्डह्लद्धद्गह्म्, रूड्डद्मद्ग द्वद्ग ह्लद्धद्ग द्ग4द्ग, द्वड्डद्मद्ग द्वद्ग ह्लद्धद्ग द्यद्बद्दद्धह्लज् कुरान कहती है, मेरे खुदा, तेरे नूर की रोशनी इस बंदे में भर दे।Ó सभी घोषणाएं एक ही गन्तव्य की ओर संकेत कर रही हैं। वीथिकाएं, पगडण्डियां अलग-अलग हो सकती हैं पर लक्ष्य सबका एक ही है और वह लक्ष्य है-आत्मा का साक्षात्कार या आत्मा की अनुभूति। आत्मा की अनुभूति के बिना आदमी का आमूल-चूल रूपान्तरण संभव नहीं है। आत्मानुभूति के लिए एक ठोस, वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक मार्ग चाहिए, एक सिस्टेमेटिक टेक्नीक चाहिए, एक विश्वसनीय पद्धति चाहिए। आप क्रोध को रोकना चाहते हैं पर रूकता नहीं अपितु रोकने के प्रयास में वह उग्र हो जाता है। हम क्रोध को रोक नहीं रहे हैं, क्रोध से कुश्ती लड़ रहे हैं। जितनी बार हमारी क्रोध से कुश्ती होती है, हम पराजित होते हैं। क्रोध और प्रबल हो जाता है और हम निर्बलतर हो जाते हैं। अध्यात्म यह कहता है-अंधकार को समाप्त करने के लिए अंधकार से लडऩे की क्या आवश्यकता है। अंधकार से लड़ा नहीं जाता। जिसकी सत्ता ही नहीं उससे लड़ाई कैसे होगी? सत्ता तो प्रकाश की है। प्रकाश के अभाव का नाम, अनुपस्थिति का नाम अंधकार है। प्रकाश कर लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है। प्रकाश आ जाए तो अंधकार नहीं है। अशान्ति भी अभाव है, दु:ख भी अभाव है, घृणा भी अभाव है। घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति। प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो तो घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य सत्य की अनुपस्थिति है। सत्य बढ़े, सत्य विकसित हो तो असत्य क्षीण हो जाएगा। अशान्ति शान्ति की अनुपस्थिति है। शान्ति जगेगी, शान्ति बढ़ेगी, अशान्ति विदा हो जाएगी। आवश्यकता है विधायक पक्ष को उभारने की, बाहर लाने की। ज्यों ही विधायक पक्ष उभरेगा, निषेधात्मक पक्ष विदा हो जाएगा। विधायक पक्ष को सबल करने के लिए साधना की आवश्यकता है। मनुष्य योनि से पूर्व की सभी योनियां प्रकृति एवं महाकाल के विधान पर आश्रित हैं। उनको कुछ करने कराने की आवश्यकता नहीं है। वे तो तैरती रहती हैं, बहती हैं। उन्हें अपने उद्धार करने की कोई चेष्टा नहीं करनी है। उनकी पदोन्नति तो उर्ध्व मुखी, सीधी एवं सरल है। मनुष्य योनि में स्वकृत कर्मों का फल भोगना होता है। यहां कर्म की गति वक्र, चक्राकार एवं अनन्त वैचित्रयमयी हो जाती है। मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं का ही करना होता है। अत: उपनिषद् कहता है, उद्धेदात्मनात्मानम्Ó अपना उद्धार स्वयं को ही करना है।