18-Dec-2013 10:18 AM
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जम्मू में ललकार रैली के दौरान भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने धारा 370 का मुद्दा उठाकर एक नई बहस को जन्म दिया है। मोदी चाहते तो देशभर में अपनी अन्य रैलियों के दौरान यह मुद्दा उठाकर काफी

पहले इस बहस को छेड़ सकते थे, लेकिन उन्होंने एक सही समय का इंतजार किया। कांग्रेस इस समय सांप्रदायिकता विरोधी विधेयक के माध्यम से अपनी खोई हुई जमीन को पाने की कोशिश में है और मोदी धारा 370 का मुद्दा भी विशेष तौर पर इसी दौरान उठाना चाह रहे थे ताकि जिस ध्रुवीकरण की शुरुआत कांग्रेस ने की है उसे अंजाम तक पहुंचाया जा सके। हालांकि धारा 370 का मुस्लिम संवेदनाओं से कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन कांग्रेस को सदैव यह भय रहा है कि धारा 370 खत्म करने की पहल से मुसलमान नाराज हो सकते हैं और वोट बैंक गड़बड़ा सकता है। कांग्रेस को वैचारिक आधार प्रदान करने वाले वे धर्मनिरपेक्ष विचारक भी धारा 370 के प्रति कांग्रेसी नजरिए को बाकी देश के नजरिए से अलग बनाने में कामयाब रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि कांग्रेस के शासनकाल में ही जम्मू कश्मीर के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पद समाप्त करके वहां राज्यपाल और मुख्यमंत्री का पद बनाया गया था भले ही इसके लिए आंदोलन करने वाले कोई दूसरे क्यों न थे, लेकिन कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष पंडितों को लगता है कि 370 जैसे मुद्दे कांग्रेस की रही सही जमीन को भी खोखला कर देंगे। लिहाजा कांग्रेस जब भी इस मुद्दे पर बहस होती है अपना चेहरा छिपाकर एक तरफ बैठ जाती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। धारा 370 पर शब्द युद्ध भाजपा और कांग्रेस के बीच नहीं बल्कि नेशनल कांफ्रेंस और भाजपा के बीच चल रहा है। फारुख अब्दुल्ला ने कहा है कि मोदी 10 बार प्रधानमंत्री बन जाएं तब भी कश्मीर से धारा 370 नहीं हट सकती। अब्दुल्ला के इस कथन से यह तो साफ होता है कि वे भी मान चुके हैं कि मोदी में प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत है और मोदी अगले 50 वर्ष तक भाजपा को सत्तासीन कर सकते हैं। भले ही यह अतिश्योक्ति हो लेकिन फारुख अब्दुल्ला ने तो बोल ही दिया है और पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए उमर अब्दुल्ला ने भी इसी आवाज से सुर मिलाए हैं। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि वे धारा 370 के औचित्य पर मोदी से अहमदाबाद जाकर भी चर्चा कर सकते हैं। सवाल यह है कि उमर अब्दुल्ला क्या चर्चा करेंगे। क्या वह कश्मीर की आजादी की बात करने वाले हैं। उनके तेवर तो कुछ ऐसे ही दिख रहे हैं। उन्होंने कहा कि धारा 370 समाप्त करने से कश्मीर के भारत में विलय का मामला फिर उठेगा। अब्दुल्ला के इस कथन का क्या आशय है। क्या यह एक खतरनाक पहल नहीं है। क्योंकि इसी समय नवाज शरीफ ने भी कहा है कि कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो सकता है। यह सारे घटनाक्रम अनायास नहीं हैं, लेकिन जैसा कि राजनाथ सिंह ने कहा भी कि धारा 370 से कश्मीर को क्या फायदा हुआ। इस पर चर्चा होनी चाहिए। यदि यह सिद्ध हो गया कि इस धारा से कश्मीर को लाभ हुआ है तो भाजपा इस धारा का समर्थन करेगी। राजनाथ सिंह का यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है और आने वाली राजनीति का संकेत भी है। भाजपा बहुत कम सहयोगियों के साथ अगले चुनाव में अपने आपको प्रस्तुत करेगी। खासकर उन लोगों को साथ रखा जाएगा जिनका नजरिया धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे विवादित विषयों पर स्पष्ट होगा। इससे दक्षिण में भाजपा को सहयोगी तलाशने में दिक्कत होगी। क्योंकि चंद्रबाबू नायडू और जयललिता भाजपा से इन मुद्दों पर शायद ही इत्तफाक रखते हों।
बहरहाल धारा 370 की बात की जाए तो यह धारा निश्चित रूप से भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को कहीं न कहीं वैचारिक रूप से परेशान करती है। उसके जेहन में यह सवाल उठते हैं कि जिस राज्य को इतना विशेष दर्जा प्राप्त है वह सब कुछ पाने के बावजूद राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग क्यों है। इसीलिए धारा 370 आम भारतीय को लगातार परेशान करती आ रही है। खासकर जो लोग सोच विचार करते हैं उनके लिए धारा 370 कहीं न कहीं एक प्रश्न चिन्ह तो है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि कश्मीर में सेना के बल पर ही भारत का रुतबा कायम है अन्यथा दिल से कश्मीरी भारत के साथ नहीं हैं। यदि ऐसा है तो फिर धारा 370 का क्या औचित्य है। जो धारा या विशेष प्रावधान पिछले 60-65 वर्षों में कश्मीर के लोगों के दिल में भारत के प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं कर सकी उसे समाप्त करने में क्या बुराई है। कम से कम इसका असर तो देखा ही जा सकता है। मोदी ने कई तथ्यगत सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस धारा के संदर्भ में उमर अब्दुल्ला की बहन का भी उल्लेख किया जिन्होंने प्रेम विवाह किया है। मोदी ने पूछा कि क्या उनकी बहन को कश्मीर में संपत्ति लेने का अधिकार है। मोदी का यह प्रश्न अनायास नहीं है। क्योंकि धारा 370 में यह प्रावधान है कि कोई भी कश्मीरी महिला यदि गैर कश्मीरी से विवाह करती है तो उसे संपत्ति से बेदखल करते हुए कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं रहेगा। कश्मीर के लोग भारत में कहीं भी निवास कर सकते हैं, संपत्ति खरीद सकते हैं, लेकिन भारत के लोग वहां संपत्ति नहीं खरीद सकते, बस नहीं सकते। यह भेदभाव निश्चित रूप से कश्मीर और भारत के बीच विभाजन की रेखा खींचता है और भी कई मुद्दे हैं जो कश्मीर और कश्मीर के लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा में आने से रोक रहे हैं। धारा 370 की आड़ में पाकिस्तान कश्मीर में अलगाववाद को शह देता आया है और भी कई समस्याएं हैं। आजादी के 65 वर्ष बाद भी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से आए दो लाख से ज्यादा शरणार्थी जम्मू-कश्मीर में नागरिकता नहीं पा सके हैं।
ज्ञात रहे कि जम्मू कश्मीर में युद्ध जैसी स्थिति होने के कारण गोपालस्वामी आयंगर ने संघीय संविधान सभा में धारा 306 -ए का प्रारूप प्रस्तुत किया ।( धारा 306 ए ही बाद में धारा 370 बनी) ।प्रस्तावित धारा 306-ए प्रस्तुत करते समय उसकी आवश्यकता को रेखांकित करते हुये उन्होंने जो कहा वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आयंगर ने कहा कि सभी रियासतों का भारत अधिराज्य में विलय , मानक विलय पत्र पर शासकों के हस्ताक्षर द्वारा हुआ था, लेकिन अब निकट भविष्य में यह अधिराज्य तो रहेगा नहीं, बल्कि इसकी जगह भारत गणराज्य स्थापित हो जायेगा। परन्तु सभी विलीन रियासतों का क्योंकि पहले ही अधिराज्य में एकीकरण हो चुका है और उन सभी ने संघीय संविधान को स्वीकार कर लिया है, इसलिये वे अब भारत गणराज्य का हिस्सा, विलय पत्र पर वहाँ के शासकों के हस्ताक्षर के कारण नहीं, बल्कि इस एकीकरण प्रक्रिया के कारण और संघीय संविधान को स्वीकार कर लेने के कारण बनेंगी। लेकिन सांविधानिक एकीकरण की यह प्रक्रिया जम्मू कश्मीर में अनेक कारणों से पूरी नहीं हो सकी है। इन कारणों में प्रमुख कारण तो राज्य पर पाकिस्तान का आक्रमण ही है। शत्रु ने राज्य के एक तिहाई भाग पर क़ब्ज़ा भी कर रखा है, उस को छुड़ाने का भी प्रश्न है। राज्य की निर्वाचित प्रजा सभा विभाजन और आक्रमण के कारण निष्प्रभावी हो गई है और नई संविधान सभा का अभी गठन नहीं किया जा सका है।
संविधान सभा को राज्य के विलय को अनुमोदित करना है। इन सभी कारणों से प्रश्न यह है कि राज्य भारत गणतंत्र का अंग कैसे बने और यहाँ संघीय संविधान कैसे लागू है। इन सभी कारणों से जम्मू कश्मीर के संघ में एकीकरण हेतु और
उसे संघीय सांविधानिक व्यवस्था का अंग बनाने के लिये धारा 306 -ए संविधान में प्रस्तावित की गई है।
कोई भ्रम न रहे इस लिये भारत सरकार ने श्वेत पत्र में भी स्पष्ट किया कि जम्मू कश्मीर के महाराजा ने भी भारत में अधिमिलन के लिये उसी अधिमिलन पत्र को निष्पादित किया , जिसे अन्य रियासतों के राजाओं ने किया। इसलिये क़ानूनी दृष्टि से और सांविधानिक दृष्टि से भी इस रियासत की वही स्थिति है जो संघ में विलीन होने वाली अन्य रियासतों की। यह ठीक है कि भारत सरकार ने लोगों की राय जानने का निर्णय किया है, लेकिन इससे रियासत के अधिमिलन की क़ानूनी स्थिति पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। यही कारण है कि रियासत को संघीय संविधान के ख श्रेणी के राज्यों में शामिल किया गया है।
संविधान में धारा 306-ए के समावेश से जम्मू कश्मीर राज्य भी संघीय गणतंत्र की इकाई बन गया और इसका शुमार भी अन्य रियासतों की तरह ख श्रेणी के राज्यों में किया गया । गणतंत्र की घोषणा होने से कुछ दिन पहले ख श्रेणी के सभी राजप्रमुखों ने अपने अपने राज्य के लिये संघीय संविधान को लागू करने की उदघोषणा की। उसी प्रकार की उदघोषणा जम्मू कश्मीर के राजप्रमुख के रीजैंट ने की। संविधान की धारा 1 और 370 को तो तुरन्त प्रभाव से लागू कर दिया गया और शेष संविधान को लागू करने की अतिरिक्त प्रक्रिया धारा 370 में ही दी गई थी। धारा 370 का समावेश संघीय संविधान के ——– अध्याय में किया गया। इस अध्याय में अन्य अनेक राज्यों के लिये वहाँ की परिस्थितियों को देखते हुये ऐसे प्रावधान किये गये हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि संघीय संविधान की धारा 370 किसी दृष्टि से भी जम्मू कश्मीर राज्य को कोई विशेष दर्जा नहीं देती। संघीय संविधान में संघ की विभिन्न इकाइयों से सम्बधित सांविधानिक प्रवधान तो वैसे भी अलग ही है। संघीय संविधान में राज्यों का अधिकार क्षेत्र स्पष्ट है। जम्मू कश्मीर के अपने संविधान में भी राज्य का अधिकार क्षेत्र स्पष्ट है। लेकिन बाकी राज्यों का संविधान संघीय संविधान की आन्तरिक परिधि में है और जम्मू कश्मीर का संविधान बाहर की परिधि में है। जैसे कंगारु का बच्चा उसके पेट में है या उसके गले के नीचे लटक रही थैली में? लेकिन दोनों ही स्थितियों में बच्चे की मौलिक स्थिति में तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। जम्मू कश्मीर के सम्बध में भी संघीय संविधान की संघ सूची में चिन्हित कर दिये गये विषयों के अतिरिक्त अन्य विषयों पर संघीय विधानपालिका विधि निर्माण कर सकती है लेकिन उसके लिये राज्य सरकार का अनुमोदन जरूरी है।