दिल्ली में किसकी सरकार बनेगी?
18-Dec-2013 08:56 AM 1234765

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल द्वारा कूटनीतिक चाल चलने के कारण भाजपा और कांग्रेस दोनों परेशान हैं और दिल्ली के लोग यह जानने को उत्सुक हैं कि दिल्ली में सरकार बनेगी या फिर छह माह बाद चुनाव का सामना करना पड़ेगा। अरविंद केजरीवाल ने जिन 18 बिंदुओं पर भाजपा और कांग्रेस को पत्र लिखकर उनका विचार मांगा है उसका उत्तर देना दोनों दलों के लिए संभव नहीं है। पत्र का मजलूम ऐसा है कि दोनों दल जल-भुनकर खाक हो गए हैं और अब दिल्ली में किसी की सरकार बनने की संभावना लगभग खत्म हो चुकी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम भारतीय राजनीति में दिग्गज दलों के लिए एक बड़ी चेतावनी बन चुके हैं। शरद पवार ने इन लोगों को झोला छाप कहकर खारिज करने की कोशिश की है। लेकिन देश का मिजाज भांपने में आज भी देश की शीर्ष पार्टियां असमर्थ है। यह बड़ा चिंता का विषय है। अगस्त 2011 में जब दिल्ली की उमस के बावजूद लाखों की संख्या में लोग अन्ना हजारे के आंदोलन में एकत्र हुए थे उस वक्त देश की राजनीति को चेत जाना था। क्योंकि यह प्रायोजित भीड़ नहीं थी। लोगों को बसों में भरकर नहीं लाया गया था। न ही उन्हें पूड़ी सब्जी खिलाई गई थी और न ही उनकी जेबों में पैसे ठूंसे गए थे, न ही भीड़ एकत्र करने वाले जातिगत और समुदायगत नेताओं को रात में पार्टियां दी गई थी और सूटकेस बांटे गए थे। यह स्वस्फूर्त आंदोलन था, किसी ने किसी को बुलाया नहीं लोग खुद ही घरों से निकलकर चल दिए। जब इतनी बड़ी तादाद में सारे देश से लोग एकत्र हों तो यह समझना चाहिए कि वे मौजूदा राजनीति को बदलना चाहते हैं और उससे उनका मोहभंग हो चुका है। लेकिन कतिपय राजनीतिक पार्टियां भांग खाकर बैठी हुई थीं। उन्हें लग रहा था कि पैसे और सांगठनिक क्षमता के बल पर जो चुनाव जीते जा रहे हैं कुछ उसी अंदाज में वे आगे भी जीतते रहेंगे। फर्क इतना है कि दल बदल जाएंगे, लेकिन काम करने का अंदाज नहीं बदलेगा। पिछले छह दशक से देश की राजनीति में लगभग हर प्रांत में यही तो चलता रहा है। केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस सरकार ने शुरुआती दौर में जरूर कुछ करिश्माई नेतृत्व का प्रदर्शन किया, लेकिन उसके बाद भारत की राजनीति भावनाओं के दोहन और ताकत के बल पर चलती रही। आज ईमानदार व्यक्ति चुनाव नहीं जीत सकता। क्योंकि उसकी जेब में कालाधन नहीं है। वह जनता के बीच जाने का साहस नहीं जुटा सकता। क्योंकि उसके पास स्वार्थवश काम करने वाले कार्यकर्ता नहीं है। इसी कारण जो पहले से स्थापित दल हैं और जिनके खजाने अच्छे-खासे भरे हुए हैं वे ही इस देश की सत्ता बार-बार संभाल रहे हैं। चेहरे बदल जाते हैं चरित्र वही रहता है। इसीलिए राजनीति जड़ता की ओर बढ़ रही है, लेकिन अन्ना की अगस्त क्रांति के दौर से ही सारे देश की जनता इस जड़ता को तोडऩे का मन बना चुकी थी।
अरविंद केजरीवाल का उदय और राष्ट्रीय राजनीति में उनका चमत्कारिक प्रदर्शन जनता की इन्हीं आकांक्षाओं का प्रकटन है। जनता बदलाव चाहती है और यह बदलाव किस रूप में हो सकता है यह दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत ने दिखा दिया है। सचमुच आम आदमी ही क्रांति कर सकता है। दिल्ली के परिणाम देश की राजनीति में अमूलचूल परिवर्तन की तरफ इशारा कर रहा है। कुछ बेनाम से चेहरों ने राजनीति में जमी धूल को झटकारने की कोशिश की है। 25-35-40 साल के युवाओं ने दिल्ली में वर्षों से सत्ता सुख भोग रहे भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के कई दिग्गजों का सफाया किया है। जो बच्चे दिल्ली में पढऩे आए थे, नौकरी कर रहे थे, बेरोजगार थे, न्याय के लिए भटक रहे थे। उन सब ने संगठित होकर बिना किसी स्वार्थ के लड़ाई लड़ी और दिग्गजों को धराशायी कर दिया। मात्र एक वर्ष के भीतर दिल्ली के मतदाताओं ने राजनीति का चरित्र बदल डाला। सचमुच मतदाता ठान लें तो राजनीति बदल सकती है। दिल्ली इसका प्रमाण है। भारत की राजनीति में वैसे भी पिछले दो दशक में कई चमत्कारिक बदलाव देखने को मिले लेकिन उस बदलाव ने राजनीति की यथास्थिति को और जड़ता को खत्म नहीं किया बल्कि जो राजनीति की इस पंकसरिता में नहाया वह भी उसी कीचड़ में विलीन हो गया, लेकिन आम आदमी पार्टी असमगण परिषद नहीं है जिसके युवाओं ने होस्टल में रहकर चुनाव लड़ा और जब जीत गए तो होस्टल से शपथ लेने आए। यह तेलगुदेशम भी नहीं है जो एक राजनेता के अपमान के कारण अभिनेता द्वारा खड़ी की गई और आंध्र की राजनीति को जिसने बदल दिया। यह जनता के द्वारा उपजा आंदोलन है जिसे जनता ने एक वैकल्पिक राजनीति के रूप में प्रस्तुत किया है। अरविंद केजरीवाल बेहद साधारण व्यक्ति है जिन्होंने अन्ना के आंदोलन से जुड़कर अपनी पहचान स्थापित की और फिर उन्हें लगा कि देश के समक्ष राजनीतिक विकल्प भी प्रस्तुत करना चाहिए। वह स्वयं यह विकल्प बन गए। सुकरात ने कहा है यदि अच्छे लोग राजनीति में नहीं हैं तो गलत लोगों का आना तय है। सुकरात के इस कथन को समझा जा सकता है। देश की राजनीति में छोटे-छोटे राजनीतिक दलों से लेकर बड़े-बड़े राजनीतिक दलों तक भ्रष्टाचारियों, अपराधियों, लंपटों और स्त्रियों के ऊपर अत्याचार करने वालों की भरमार है। हर राजनीतिक दल में इस चरित्र के लोग मिल जाएंगे। भ्रष्टाचार तो लगभग 80 प्रतिशत राजनीतिज्ञों को पतित कर चुका है। कोई यह नहीं कह सकता कि उसका दामन साफ है। कम या ज्यादा गड़बड़ी हो ही रही है। लाखों करोड़ रुपए के घोटाले इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जो दल अलग राजनीति की बात करते हैं वे भी इसी में लिप्त हैं। नीतिश कुमार ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की समीक्षा करते हुए बिल्कुल सही कहा कि लोगों को भाजपा और कांग्रेस के अतिरिक्त विकल्प मिला तो उन्होंने उसे तवज्जो दी। यद्यपि दिल्ली में यह परिवर्तन काफी समय से दिखाई दे रहा था, लेकिन जनता कांग्रेस के प्रति इतनी आक्रोशित है यह आज पता चला। जनता ने भाजपा को विकल्प नहीं माना। वह सबसे बड़ी पार्टी अवश्य बनी लेकिन आम आदमी पार्टी को जो ताकत जनता ने दी उससे साफ जाहिर है कि जनता का मोह कांग्रेस-भाजपा जैसी पार्टियों से भंग हो चुका है। कांग्रेस के लिए यह चेतावनी है लेकिन कांग्रेस इस चेतावनी को शायद ही गंभीरता से लेगी क्योंकि कांग्रेस का चरित्र अलग तरीके का बन चुका है। देश की राजनीति में लगभग छह दशक तक छाए रहने के बाद कांग्रेस के उस आइने पर धुंध जम चुकी है जिसमें अपना अक्स देखकर वह चेहरा साफ कर सकती थी। जो भी हो ये चुनाव दिल्ली के साथ-साथ सारे देश में बदलाव का सूत्रपात कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह आगामी लोकसभा चुनाव में पूरे दमखम के साथ उतरेगी और दिल्ली में अनिवार्य रूप से विपक्ष में भी बैठना चाहेगी। उधर भारतीय जनता पार्टी ने भी ऐलान किया है कि वह दिल्ली में सत्ता का दावा प्रस्तुत नहीं करेगी। आप की जीत से कम से कम इतना तो बदलाव हुआ। वरना इससे पहले यह होता आया है कि जो भी पार्टी सबसे बड़ी होती है वह सरकार बनाने का दावा भी पेश कर देती है और बड़े आत्मविश्वास के साथ यह भी कह डालती है कि उसके पास पर्याप्त संख्या है। कम से कम इस बार भाजपा ने यह बयान जारी नहीं किया। इसे आम आदमी पार्टी का असर ही कहा जाना चाहिए। यदि सारे देश में आम आदमी पार्टी अपने प्रत्याशी खड़े करती है और चुनाव में जाती है तो इसका असर लोकसभा चुनाव के समय भी पड़ सकता है। जिस नरेंद्र मोदी की आंधी की बात कही जा रही है उसे समाप्त करने में कांग्रेस बिल्कुल सक्षम नहीं है, लेकिन लोगों के क्रोध को विभाजित किया जा सकता है और यह काम करने के लिए आम आदमी पार्टी शीघ्र ही मैदान में दिखाई देगी। यदि आम आदमी पार्टी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है तो भाजपा को रणनीति में बदलाव करना होगा। सबसे बड़ा बदलाव तो यह होना चाहिए कि सभी राजनीतिक दल कम से कम सही प्रत्याशियों को टिकिट दें। जाति, धर्म और समुदाय की भावना या ये कहे कि भय से ऊपर उठकर योग्य लोगों को चुनावी मैदान में लेकर आएं। कब तक इस तरह की राजनीति की जाती रहेगी। आम आदमी पार्टी के मैदान में आने से राजनीति का यह स्वरूप बदल गया तो बदलाव बहुत गहराई तक जाएगा। जहां तक दिल्ली में सरकार का प्रश्न है। कोई भी दल बहुमत में नहीं है। इसलिए छह महीने बाद लोकसभा चुनाव के समय दिल्ली एक बार फिर अपने नुमाइंदों का चयन करेगी, लेकिन इस बार मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच होगा। क्योंकि कांग्रेस उतनी ताकतवर बन सकती है यह कहना फिलहाल संभव नहीं है। बल्कि आगामी चुनाव तक कांग्रेस की स्थिति और डावांडोल हो सकती है।
हाथी कांपा साइकिल पंचर
आम आदमी पार्टी का उदय बाकी सियासी दलों के लिए भी खतरे की घंटी साबित हुआ। समाजवार्दी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी का खाता भी न खुल सका। बल्कि वे तो मुकाबले में भी कहीं दिखई नही दीं। जनता दल यूनाइटेड ने अवश्य कुछ ताकत दिखाई और आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को प्रखर करने की कोशिश की। इस बीच आम आदमी पार्टी के एक धुरंधर विधायक धर्मेंद्र कोली के खिलाफ कांग्रेस के पूर्व विधायक कांग्रेस के पूर्व विधायक वीर सिंह ढींगन की पत्नी ने आरोप लगाया है कि डीगन और उनके समर्थकों ने उनके साथ घर में घुसकर बदसलूकी। शीला दीक्षित ने इस हार के बाद अपना ही पार्टी को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा हे कि  यह दिल्ली सरकार के खिलाफ मेन्डेट नहीं था बल्कि केंद्र से कुछ गलतियां हुई। 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा की जो तस्वीर बनी है वह बड़ी हैरानकर रही है। दिल्ली के नेताओं की नाकामी अब विधानसभा में दिखाई देगी जहा बैठेंगे कुछ ऐसे चेहरे जिन्हें राजनीति की दुनिया में कोई जानता भी नहीं था कि यह परिणाम कांग्रेस और भाजपा को लंबे समय तक परेशान करेंगे। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया के अतिरिक्त 26 चेहरे ऐसे हैं जिन्हें इन चुनावों से पहले राजनीति का अनुभव नहीं था। 69 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें आम आदमी पार्टी की 3 महिलाएं विजयी रहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. हरीश खन्ना ने तीन बार के कांग्रेस विधायक सुरेंद्र सिंह उर्फ बिट्टू को हरा दिया। दिल्ली केन्ट से तीन बार के भाजपा विधायक करण सिंह तंवर को कमांडों सुरेंद्र सिंह ने हराया। मुंबई हमले के समय एनएसजी के आपरेशन में शामिल सुरेंद्र के कानों में सुनाई नहीं देता है क्योंकि बम धमाकों से उनकी श्रवण शक्ति खत्म हो गई है। वे बुरी तरह जख्मी भी हुए हैं। विकलांगता की वजह से सेना से सेवामुक्त हुए सुरेंद्र को अपनी पेंशन के लिए दर-दर भटकना पड़ा, लेकिन भ्रष्ट तंत्र ने उनकी नहीं सुनी। अंतत: वह जनता की अदालत में गए और जनता ने उस भ्रष्ट तंत्र के मुंह पर करारा जूता मारा। मॉडल टाउन में कांग्रेस से तीन बार विधायक रहे कंवर करण सिंह को आम आदमी पार्टी के अखिलेश पति त्रिपाठी ने पराजित किया है। त्रिपाठी पढऩे-लिखने वाले युवा हैं। सिविल सर्विस की तैयारी करने आए थे, लेकिन देश के हालातों ने उद्धेलित कर दिया और जन लोकपाल आंदोलन में सक्रिय हो गए। गिरफ्तारी दी, भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया, जानलेवा हमला झेला, किंतु जनता इनके साथ थी। अखिलेश जीत गए। बुराड़ी से जीतने वाले आम आदमी के संजीव झा भी समाजसेवा ही कर रहे हैं। भाजपा यह सीट लंबे समय से जीतते आ रही थी। संजीव झा ने भाजपा के प्रत्याशी को 10,351 वोटों से हरा दिया। मंगोलपुरी में तो जब आम आदमी पार्टी की 28 साल की मॉस कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कर चुकी टीवी पत्रकार राखी बिड़ला ने दिग्गज विधायक और वरिष्ठ मंत्री कांग्रेस के राजकुमार चौहान को 10,585 वोटों से हरा दिया। भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज और बड़बोले नेता विजय कुमार मल्होत्रा जो कभी मुख्यमंत्री की दौड़ में थे, खुद मैदान में नहीं थे, अपने बेटे को लड़ाकर वंशवाद का कार्य संपन्न कर रहे थे, उनके सुपुत्र अजय कुमार मल्होत्रा को आम आदमी पार्टी के सौरभ भारतद्वाज ने 13092 वोटों से करारी शिकस्त दी। ऐसे ही एक अनाम से चेहरे आम आदमी पार्टी के विनोद कुमार विन्नी ने कांग्रेस के 4 बार के विधायक और वरिष्ठ मंत्री डॉ. एके वालिया को लक्ष्मी नगर से 7752 वोटों से हरा दिया। जो लोग राजनीति से कोसों दूर रहते थे। उन्होंने राजनीति में कमाल कर दिखाया। आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल खुद ही करिश्माई हैं। क्योंकि उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 25864 वोटों से पराजित किया है। यह पराजय इंदिरा गांधी की राजनारायण के हाथों हुई पराजय के मुकाबले कम नहीं है। बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि राजनारायण राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे और दशकों से राजनीति में थे, लेकिन केजरीवाल का राजनीति का से कोई लेना देना नहीं है।
दिल्ली राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ रही है। जिस भी पार्टी ने जोड़-तोड़ की उसे जनता कचरे के डब्बे में डाल देगी। इस बात की पूरी संभावना है। लिहाजा भाजपा और कांग्रेस तो पहले से ही डरे हुए हैं। आम आदमी पार्टी ने भी घोषणा कर दी है कि वह किसी के भी साथ नहीं जाएगी। हालांकि किरण बेदी ने कोशिश की थी कि किसी तरह आम आदमी पार्टी और भाजपा हाथ मिला लें पर लगता है आम आदमी पार्टी ने अपनी अलग राजनीति तय कर ली है। आम आदमी पार्टी के प्रशांत भूषण भी कुछ पिघलते हुए दिखाई दिए थे, लेकिन उनको भी केजरीवाल ने साफ कर दिया कि वे पिघलने की कोशिश न करें और दृढ़ बने रहें। कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को समर्थन देने का कहा था, लेकिन आम आदमी पार्टी ने इसे ठुकरा दिया। देखना है कि नैतिकता का यह महायुद्ध कब तक चलता है।

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