05-Dec-2013 09:28 AM
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भारतीय हॉकी की दयनीय हालत किसी से छिपी नहीं है और हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न के लिए नजरअंदाज होने के पीछे यह सबसे बड़ा कारण है। भारत रत्न बनने जा रहे क्रिकेट के

भगवान सचिन तेंदुलकर उस समय मात्र 2 बरस के थे, जब भारत ने पहली और आखिरी बार हॉकी का विश्वकप जीता था। भारत की 1975 की हॉकी विश्वकप जीत को 38 बरस और 1980 में ओलंपिक स्वर्ण की कामयाबी को 33 बरस गुजर चुके हैं। इस दौरान हॉकी और क्रिकेट में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। सचिन 1973 में जब पैदा हुए थे तो भारतीय हॉकी का पूरी दुनिया में परचम लहराता था और 2013 में जब उन्होंने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लिया तो भारतीय हॉकी रसातल में जा चुकी है और क्रिकेट का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। वर्ष 1975 में जब भारतीय हॉकी टीम ने विश्व कप जीता था, तब भारतीय क्रिकेट टीम दुनिया की फिसड्डी टीमों में शुमार की जाती थी, लेकिन आज क्रिकेट टीम दुनिया की शीर्ष टीमों में शुमार है जबकि हॉकी टीम फिसड्डी टीमों में गिनी जाती है। अब कोई यह नहीं कहता है कि भारतीय हॉकी टीम विश्वकप या ओलंपिक में पदक जीतेगी बल्कि यह कहा जाता है कि यह विश्वकप और ओलंपिक के लिए क्वालीफाई ही कर जाए तो बड़ी बात होगी। दूसरी तरफ क्रिकेट टीम ने पिछले कुछ वर्षों में टी-20 विश्वकप और एकदिवसीय विश्व कप जीतने के अलावा चैपियंस ट्रॉफी जीती है और इसके साथ ही टेस्ट और वनडे में दुनिया की नंबर एक टीम का दर्जा भी हासिल किया है। क्रिकेट और हॉकी के बीच आ गए इतने बड़े अंतर के माहौल में यदि हॉकी के जादूगर नजरअंदाज हो जाएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किसी खेल की सफलता ही उसके महानायकों के लिए पुरस्कार या सम्मान तय करती है। सरकार ने इस वर्ष ध्यानचंद के जन्मदिन 29 अगस्त को खेल दिवस पर होने वाले राष्ट्रीय पुरस्कार सम्मान समारोह को जब 2 दिन के लिए आगे खिसकाया था तो भी किसी ने सवाल नहीं उठाया था। ऐसे में यदि खेल मंत्रालय की ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने की सिफारिश नजरअंदाज हो जाए तो उसमें ज्यादा चौंकने की जरूरत नहीं है। खेलमंत्री जितेन्द्र सिंह ने भारत रत्न के लिए एक नाम भेजने में ध्यानचंद को सचिन के ऊपर प्राथमिकता दी थी, लेकिन जब यह प्राथमिकता ही सिरे से नजरअंदाज हो जाती है तो भी कोई सवाल नहीं उठाता है। मेजर ध्यानचंद के पुत्र अशोक ध्यानचंद बाकायदा एक प्रतिनिधिमंडल लेकर खेलमंत्री के पास गए थे और उन्होंने पुरजोर ढंग से यह मांग उठाई थी कि दद्दा ध्यानचंद को पहला खिलाड़ी भारत रत्न मिले, लेकिन मौजूदा हालात के बाद वे भविष्य में अपने पिता के लिए भारत रत्न स्वीकारेंगे, यह एक यक्षप्रश्न है। भारतीय हॉकी टीम ने यदि पिछले कुछ वर्षों में विश्व कप या ओलंपिक स्वर्ण जीते होते तो दद्दा ध्यानचंद को कभी नजरअंदाज नहीं किया जाता। आजादी के बाद 64 वर्षों में सरकार को कभी किसी खिलाड़ी को भारत रत्न देने की जरूरत महसूस नहीं हुई। लेकिन जब 2011 में उसने इस सर्वोच्च पुरस्कार के लिए अपने नियमों में परिवर्तन किया तो सभी को यह समझ लेना चाहिए था कि यह नियम परिवर्तन सिर्फ क्रिकेट के भगवान को भारत रत्न बनाने के लिए किया गया। यह भी दिलचस्प है कि खेल मंत्रालय का भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के साथ लगातार टकराव बना हुआ है। सरकार का प्रस्तावित खेल विधेयक बीसीसीआई को आरटीआई के दायरे में लाने की बात कहता है लेकिन क्रिकेट बोर्ड का कहना है कि उसकी टीम बीसीसीआई का प्रतिनिधित्व करती है, न कि भारत का। इसके बावजूद सरकार ने देश के सर्वोच्च सम्मान के लिए क्रिकेट को प्राथमिकता दी, न कि अपने राष्ट्रीय खेल को। सचिन के भारतरत्न बनने से खिलाडिय़ों को यह पुरस्कार दिए जाने की परंपरा शुरू हो जाएगी और उसके बाद कई दिग्गज खिलाड़ी भारतरत्न बनने के दावेदारों में शामिल हो जाएंगे।