भला चाहते हैं तो हृदय मे मौजूद प्रेम को और बढ़ाइए
16-Nov-2013 06:25 AM 1234829

मनुष्य की सबसे बड़ी मूलभूत आवश्यकता है आपसी प्रेम, एक दूसरे के लिए गर्मजोशी। हमें मित्रों की बड़ी आवश्यकता होती है। उनसे हमें मानसिक प्रसन्नता और शांति मिलती यदि हमें सच्ची मित्रता पैदा करनी है तो हमें अनुकूल मानवीय विचारों और भावनाओं का यथा प्रेम, करूणा और गर्मजोशी का उपयोग करना चाहिए।
जब हमारे पास धन, प्रभाव या सत्ता का बल होता है तो हमारे बहुत से मित्र होते हैं किंतु जब ये बल बल नहीं रहते तो वे मित्र भी गायब हो जाते हैं। सच्चे मित्र की हमेशा तलाश रहती है। एक अच्छे मित्र को पाना दुर्लभ होता है। हृदय की उदारता से हम जो सच्चे मित्र प्राप्त करते हैं, वे हमारी सफलताओं अथवा समस्याओं से ग्रस्त होने की अवस्था में भी मित्र ही बने रहते हैं। इस प्रकार की मित्रता सच्चे नेक दिल से ही विकसित हो पाती है। बुनियादी तथ्य यह है कि मानवता की रक्षा दया भाव, प्रेम और करूणा से ही संभव है। मानव को विवेक-बुद्धि प्राप्त हुई है। प्रेमयुक्त हृदय में जो संभावनाएं विद्यमान हैं, उनका समुचित प्रयोग किया जाए तो हम जीवन की वास्तविक धन्यता का और मानव जीवन के विराट उद्देश्य की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं। अपने दृष्टिकोण से यदि हम देखें तो पाएंगे कि जब तक हमें ये मानसिक और शारीरिक क्षमताएं प्राप्त हैं, जो हमारे वर्तमान कर्मों और क्लेशों सरीखे कारणों से निकलते हैं, तब तक अखंड शांति और आनंद की प्राप्ति नहीं होगी और हम अन्य प्राणियों को भी इसी स्थिति में फंसे हुए पाएंगे। इसलिए हमें संबोधि-प्राप्त करने की वास्तविक कामना जाग्रत करनी चाहिए। यह ऐसी अवस्था है जो क्लेशों और कर्मों के बंधनों से मुक्ति दिलाती है। इसे संन्यास की स्थिति भी कह सकते हैं, हालांकि इसमें व्यक्ति को समाज और परिवार का त्याग नहीं करना होता। उस अवस्था में हम अन्य प्राणियों की भलाई के कार्यों में लगे होते हैं किंतु अनायास रूप में हमारा अपना कल्याण भी संभव होता है।

इसलिए आशीर्वाद का लाभ आपको नहीं मिलता है

लोग आशीर्वाद देते समय कहते हैं तुम्हारा भला हो और भला हो ही जाएगा, यह जरूरी नहीं है। अगर ऐसा होता तब तो दुनिया में कोई दुखी दरिद्र नहीं रहता। दरअसल आप जब भी कभी किसी के प्रति शुभकामना व्यक्त करते हैं, तो आपके भीतर जितनी प्राणऊर्जा है और जिसे आशीर्वाद दे रहे हैं, उसमें कितनी ग्रहणशीलता है उसी आधार पर दूसरे का भला होता है।
आशीर्वाद दे कर भक्तों का कष्ट दूर करने के दावों की असलियत जानने के लिए रामकृष्ण मिशन के संन्यासी स्वामी तेजोवलयानंद ने कुछ प्रकरणों का अध्ययन किया और पाया कि समस्याओं का हल कह देने भर से नहीं होता। उसके लिए आशीर्वाद देने वाले का तप तेज और लाभ उठाने वाले की इच्छाशक्ति भी जरूरी है। स्वामीजी के अनुसार इच्छाशक्ति जगाने में जप, भजन और योगासन से मदद मिलती है। भजन आसन आदि से मदद मिलती है पर आशीर्वाद के प्रभाव को असरदार बनाता है मंत्रजप। जप के दौरान उपयोग किए गए मंत्र की ध्वनि पूरे शरीर में प्रभाव उत्पन्न करती है। इसका पहला प्रभाव मस्तिष्क में शीतलता और स्थिरता लाता। इससे न केवल शारीरिक लाभ मिलता है, बल्कि अध्यात्मिक लाभ भी मिलता है। जप और उससे उत्पन्न हुई स्थिरता अपने से उच्च आध्यात्मिक स्थिति वाले व्यक्तियों, संतों और गुरुजनों की शुभाकांक्षा को ग्रहण करने लायक मनोभूमि बनाते हैं। शरीर और चित्त के परिष्कार के लिए अपनाए गए योगासनों का लाभ उन्हें सही ढंग से करने पर ही मिलता है। आसन, भजन और ध्यान आदि से चित्त निर्मल हो जाता है तो यह स्थिति बनती है कि किसी का आशीर्वाद ग्रहण किया जा सके। याद रहे चिरायु भवÓ कहने मात्र से आशीर्वाद पूरा नहीं हो जाता।
आशीर्वाद से सुखपूर्वक जीने का संकल्प भी जाग रहा होता है। व्यक्ति के संकल्प को ऋषि या गुरु  के आशीष पुष्ट करने से उसमें कार्य सिद्धि के प्रति आत्मविश्वास जागता है। कार्य को करने की प्रेरणा भी जगती है।

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