दिल्ली की सीबीआई का दायरा सारे देश में क्यों?
16-Nov-2013 06:54 AM 1234760

गुवाहाटी हाईकोर्ट के जस्टिस आईए अंसारी और इंदिरा शाह की बेंच ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को असंवैधानिक बताते हुए उस प्रस्ताव को रद्द कर दिया है जिसके तहत सीबीआई का गठन हुआ था। अदालत का कहना था कि सीबीआई का गठन कुछ समय के लिए ही हुआ था और यदि इसे पुलिस जैसी शक्तियों के अधिकार वाली संस्था का स्वरूप देना है तो इसका गठन कार्यकारी निर्देश से ही किया जाना चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि जब सीबीआई का गठन हुआ उस समय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव को न तो केंद्रीय मंत्रिमंडल की हरी झंडी मिली थी और न ही राष्ट्रपति ने उसे स्वीकृति प्रदान की थी।
कोर्ट द्वारा सीबीआई की वैधानिकता पर दिया गया यह निर्णय सरकार को परेशानी में डाल रहा है। हालांकि सरकार ने फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगन आदेश ले लिया है, लेकिन सवाल यह है कि गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले को किस आधार पर चुनौती दी जाएगी। जो भी तथ्य गुवाहाटी हाईकोर्ट ने प्रस्तुत किए हैं वे बड़े पैमाने पर सीबीआई के संंबंध में की गई लापरवाही की तरफ संकेत दे रहे हैं। सीबीआई को वैसे भी सरकारी संस्था कहा जाता है और यह भी कहा जाता है कि जो सरकार केंद्र में रहती है सीबीआई उसी की पिछलग्गू बन जाती है। गौहाटी हाईकोर्ट का फैसला तथ्यों पर आधारित है। हालाँकि जिन तथ्यों का जिक्र उसने अपने फैसले की पृष्ठभूमि के तौर पर किया है, उन पर अलग-अलग नजरिए हो सकते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि प्रक्रियाओं से जुड़े एक महत्वपूर्ण मुद्दे को अब से पहले न तो किसी अदालत में चुनौती दी गई और न ही सरकार या विपक्षी दलों का ध्यान इस तरफ गया। हाईकोर्ट ने 1963 के उस प्रस्ताव को ही खारिज कर दिया है जिसके आधार पर सीबीआई की स्थापना की गई थी। सीबीआई को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट 1946 (डीएसपीई) के तहत स्थापित किया गया था। हाईकोर्ट के अनुसार भारत सरकार का वह आदेश कानूनी तौर पर वैध नहीं है।
हालाँकि अदालत ने डीएसपीई को अवैध करार नहीं दिया है लेकिन यह कहा कि सीबीआई इस अधिनियम के तहत आने वाली संस्था नहीं है। उसे इस अधिनियम के तहत स्थापित पुलिस बल के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसके मायने साफ हैं। अगर सीबीआई अपने आप में पुलिस जैसी एजेंसी नहीं है तो उसके पास किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने, किसी मामले की जाँच करने, अदालत में मामले दायर करने, दूसरे राज्यों तथा देशों की एजेंसियों के साथ काम करने जैसे अधिकार नहीं हैं।
राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं
अदालत ने कहा कि पहली अप्रैल 1963 को जारी प्रस्ताव न तो राष्ट्रपति के सामने पेश किया गया और न ही इस पर उनकी मंजूरी ही ली गई। इस लिहाज से यह प्रस्ताव भारत सरकार का फैसला भी नहीं माना जा सकता। अदालत ने यह दलील भी नहीं मानी कि सीबीआई डीएसपीई का ही एक रूप है, भले ही दोनों के नाम अलग-अलग हों। यह दलील सीबीआई की शक्तियों को वैध करार देने के लिहाज से सरकार की तरफ से दी गई है। बहरहाल अदालत ने कहा है कि सीबीआई डीएसपीई अधिनियम के बहुत बाद में स्थापित संस्था है जिसे उसका पर्याय नहीं माना जा सकता।
अदालत का रुख एकदम स्पष्ट है और बेबुनियाद कतई नहीं है। बहुत संभव है कि केंद्र सरकार से सीबीआई की स्थापना के समय एक बड़ी चूक हुई हो। एक प्रक्रियागत मुद्दे पर आधारित अदालती आदेश से केंद्र सरकार सकते में है। इसकी बदौलत हजारों मुकदमों और जाँचों की स्थिति बदल जाती है। भले ही केंद्र सरकार आने वाले महीनों में संसद में विधेयक पेश कर अपनी तकनीकी चूक को दूर करने की कोशिश कर सकती है लेकिन उससे पिछले वर्षों के दौरान सीबीआई की तरफ से की गई कार्रवाइयों को अवैध करार दिए जाने की आशंका खत्म नहीं हो जाती। दिलचस्प बात यह है कि अगर सीबीआई के संदर्भ में चूक हुई है तो सिर्फ किसी एक केंद्र सरकार से ही नहीं हुई। एक के बाद एक अनेक दलों और गठबंधनों की सरकारें सत्ता में आईं लेकिन किसी का ध्यान उस चूक की ओर नहीं गया। इतना ही नहीं, संभवत: सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि में भी यह तथ्य नहीं आया, जिसने कुछ अरसा पहले उसे केंद्र के पिंजरे में कैद तोते की संज्ञा दी थी और 2जी घोटाले, गुजरात के दंगों तथा कोलगेट आदि की जाँच का जिम्मा सीबीआई को ही सौंपा था।
नौकरशाही को दबाव
मुक्त रखो : कोर्ट
सर्वोच्च न्यायालय का विगत 30 अक्तूबर को आया वह फैसला भी अहम है, जिसमें नौकरशाहों के लिए न्यूनतम कार्यकाल तय करने और राजनेताओं के इशारे पर मनमाने स्थानांतरण और पदस्थापन (पोस्टिंग) को प्रतिबंधित करने की बात है। मनमाने ढंग से किए जाने वाले तबादले नौकरशाही के लिए एक बड़ी डरावनी स्थिति है। असुविधानजक अधिकारियों से छुटकारा पाने के लिए राजनेता इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश काफी कुछ 22 सितंबर, 2006 के उसके निर्देश जैसा ही है, जिसे लागू नहीं किया गया। इसकी शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय के दिसंबर, 1997 के उस फैसले से हुई थी, जिसमें सीबीआई निदेशक के कार्यकाल की न्यूनतम अवधि निर्धारित करने की बात कही गई थी। मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनते ही 2004 में दूसरे नौकरशाहों की भी अवधि तय कर दी। नतीजतन गृह सचिव, कैबिनेट सचिव, रक्षा सचिव, खुफिया ब्यूरो और रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग के निदेशक सहित कई शीर्ष नौकरशाह इसके दायरे में आ गए।
लेकिन देश भर में फैले नौकरशाहों के साथ यह स्थिति नहीं है। ऐसे में होता यह है कि जो आदमी सत्ता को रास नहीं आता, उसे दूर-दराज में भेज दिया जाता है। कई बार थोक में तबादले कर दिए जाते हैं। उत्तर प्रदेश की बात करें, तो अप्रैल, 2012 में यहां पांच मंडलायुक्तों और 32 जिलाधिकारियों सहित 70 आईएएस अधिकारियों के तबादले कर दिए गए। मार्च, 2012 में सत्ता में आने के बाद से सत्ताधारी पार्टी सपा ने अब तक कुल 221 आईएएस अधिकारियों के तबादले किए हैं, जबकि यूपी कैडर में कुल 537 अधिकारी हैं। इसी तरह इस राज्य में 2011 और 2012 में कुल 1,828 प्रांतीय पुलिस अधिकारियों के तबादले किए। इनमें अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक स्तर के 478 और उप पुलिस अधीक्षक स्तर के 1,350 अधिकारी शामिल थे। चार महीने और चौदह दिन के अपने पहले मुख्यमंत्री काल में मायावती ने 550 और छह महीने के दूसरे कार्यकाल में उन्होंने 777 आईएएस अधिकारियों को स्थानांतरित किया। बसपा के तीसरे कार्यकाल में 970 और चौथे कार्यकाल में 1,200 आईएएस अधिकारियों का स्थानांतरण हुआ।
ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में ही ऐसे हालात हैं। महाराष्ट्र सरकार वर्ष 2011 में एक अवैध सर्कुलर वापस लेने के लिए बाध्य हुई थी, जिसमें कहा गया था कि राजनेताओं की कॉल्स को पुलिसवाले स्टेशन डायरी में दर्ज नहीं करेंगे।
दरअसल, उच्च न्यायालय में एक मामला दर्ज कराया गया था, जिसमें 2006 में पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के एक निजी सचिव ने बुल्ढाना पुलिस को कहा था कि वह एक कांग्रेस विधायक के साहूकार पिता के खिलाफ एफआईआर दर्ज न करे। जबकि विदर्भ के किसान साहूकारों के एक तंत्र के बारे में शिकायत दर्ज कराना चाहते थे। वह कॉल जांच अधिकारी ने पुलिस डायरी में दर्ज कर ली थी। दिवंगत देशमुख पर भी आरोप लगा था कि उन्होंने जिलाधीश से तब तक कार्रवाई न करने को कहा था, जब तक वह खुद मामले को न देख लें। उच्च न्यायालय ने संबंधित सर्कुलर को निरस्त करने का आदेश दिया। राज्य सरकार इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गई। शीर्ष अदालत ने न केवल उच्च न्यायालय के आदेश को सही ठहराया, बल्कि उसने राज्य सरकार पर लगाए गए 10 हजार रुपये के जुर्माने को बढ़ाकर 10 लाख रुपये कर दिया।
वैसे इन बातों से यह भी साबित नहीं हो जाता कि नौकरशाही में सभी संत हैं और सभी राजनेता एक जैसे हैं। नौकरशाही और राजनीति, दोनों में अच्छे और बुरे लोग हैं। मगर सबसे ज्यादा दोषारोपण नौकरशाही पर ही होता है। विदेशी ही नहीं, भारतीय भी नौकरशाही को अक्षम मानते हैं। हांगकांग की पॉलिटिकल ऐंड इकनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, एशिया में सबसे निकम्मी नौकरशाही भारत में है।

विवाद की पृष्ठभूमि
सीबीआई के गठन को अवैध करार देते हुए नवेंद्र कुमार की तरफ से गौहाटी हाईकोर्ट में दायर याचिका में दलील दी गई थी कि जिस अधिनियम के तहत सीबीआई की स्थापना हुई, उसमें खुद सीबीआई का कहीं जिक्र नहीं है। हालाँकि इस अधिनियम में कई बार संशोधन किए जा चुके हैं लेकिन ऐसा कोई संशोधन नहीं किया गया, जिसके जरिए उसमें सीबीआई शब्द शामिल किया गया हो। इतना ही नहीं, जाँच एजेंसी की स्थापना के संदर्भ में पहली अप्रैल 1963 को जारी प्रस्ताव में भी कहीं इस बात का जिक्र नहीं हुआ कि उसकी स्थापना डीएसपीई के तहत हो रही है। याचिकाकर्ता का कहना है कि अगर सीबीआई एक वैध संवैधानिक संस्था हो तब भी उसके पास किसी पुलिस बल के रूप में काम करने का अधिकार नहीं है क्योंकि उसकी स्थापना के बारे में कोई विधेयक या कानून उपलब्ध नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिक से अधिक स्थानीय पुलिस की मदद कर सकती है और इस प्रक्रिया के दौरान मामले की तफ्तीश करने के लिए सूचनाएँ इक_ी कर सकती है। वह भी सिर्फ दिल्ली के भौगोलिक दायरे के भीतर रहते हुए।
इस मामले में सरकार की दलील यह है कि जिस अधिनियम के तहत सीबीआई की स्थापना की गई थी वह केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि वह चाहे तो इस एजेंसी की शक्तियों को दिल्ली की भौगोलिक सीमा के बाहर भी लागू कर सकती है। राज्य सरकारों की सहमति से उसका कार्यक्षेत्र देश के किसी भी अन्य राज्य तक बढ़ाया जा सकता है। गौहाटी हाईकोर्ट ने सीबीआई और डीएसपीई अधिनियम के बीच किसी तरह का संबंध होने की बात नहीं मानी है। स्वाभाविक है कि जब दोनों के बीच संबंध ही नहीं है तो केंद्र को अधिनियम में निहित शक्तियों का इस्तेमाल सीबीआई के संदर्भ में करने का अधिकार नहीं है। यानी सीबीआई मात्र एक संस्था है, जिसकी शक्तियाँ संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक पूरी तरह परिभाषित नहीं हैं। ऐसे में उसने अब तक जो भी जाँच तथा कानूनी कार्रवाइयाँ की हैं, उनका कोई आधार नहीं रह जाता।

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