16-Nov-2013 06:21 AM
1234757
भारत का एक छोटा सा अंतरिक्ष यान मंगल गृह की यात्रा पर निकल चुका है। वह मंगल गृह जो हमारी पौराणिक गाथाओं में मंगल का प्रतीक है और जिसके शुभ चरण हमारे घरों में मांगलिक कार्य की शुरुआत करते हैं। किंतु इसरो के पांच सौ

से अधिक वैज्ञानिक जिस 10 करोड़ डॉलर के मंगल अभियान पर दिन रात काम कर रहे थे वह भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए उपलब्धि पर क्षण था। यह कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी बल्कि मानवता का मंगल की दिशा में एक कदम था भारत की इस उपलब्धि को संपूर्ण तभी माना जाएगा जब मंगल गृह की कक्षा में वहां की सतह से कुछ मीटर ऊपर रहकर यह यान जानने की कोशिश करेगा कि मंगल गृह पर वायु मंडल का खात्मा किस तरह से हुआ। साथ ही यह जानने में भी मदद मिलेगी कि क्या कभी मंगल पर मानव बस्तियां बसाई जा सकती हैं।
जिस गृह के वायुमंडल में 95 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड हो, जहां पानी का नामो निशान न हो और औसत तापमान भी शून्य से कई डिग्री नीचे हो वहां 400 करोड़ रुपए खर्च करके भारत जैसे विकासशील देश द्वारा अंतरिक्ष यान भेजना एक दृष्टि से फिजूलखर्ची भी है, लेकिन सच पूछा जाए तो इस तरह के अभियानों से ही नए रास्ते भी निकलते हैं। विज्ञान आज भले ही मंगल गृह पर जीवन बसाने की संभावनाओं से 100-200 वर्ष दूर हो लेकिन 200 वर्ष बाद संभवत: मंगल गृह पर भी बस्तियां बसाई जा सकती है। जिस तरह अंतरिक्ष विज्ञान प्रगति कर रहा है और पृथ्वी की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है पृथ्वी के निवासियों के लिए अन्य रहने योग्य स्थल खोजना और वहां अनुसंधान करना कोई गलत बात नहीं है। अगर सब कुछ ठीक रहा तो भारत भी उन गिने-चुने देशों में शामिल हो जाएगा जो मंगल गृह पर अपनी ही तकनीक से मिशन करने के काबिल हैं। ऐसा होने पर भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो अमरीका, रूस और यूरोपीय यूनियन की अंतरिक्ष एजेंसी के बाद चौथी ऐसी एजेंसी बन जाएगी जो मंगल पर यान भेजने में कामयाब होगी। भारत का 1350 किग्रा का रोबोटिक उपग्रह लाल ग्रह की 2000 लाख किलोमीटर की 10 महीने की यात्रा पर रवाना होगा। इसमें पांच ख़ास उपकरण मौजूद हैं जो मंगल ग्रह के बारे में अहम जानकारियां जुटाने का काम करेंगे। इसमें वायुमंडल में जीवन की निशानी और मीथेन गैस का पता लगाने वाले सेंसर, एक रंगीन कैमरा और ग्रह की सतह और खनिज संपदा का पता लगाने वाला थर्मल इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर जैसे उपकरण शामिल हैं। साल 2008 में चंद्रमा से जुड़ा भारत का मानवरहित चंद्रयान अभियान बेहद सफल रहा था। इस अभियान से ही चांद पर पानी की मौजूदगी का पहला पुख़्ता प्रमाण मिला था। इसरो के लिए काम करने वाले बंगलुरू के 500 से अधिक वैज्ञानिकों ने इस 10 करोड़ डॉलर अभियान पर दिन रात काम किया है. मंगल अभियान की औपचारिक घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले साल अगस्त में ही कर दी थी कि भारत लाल ग्रह पर एक अंतरिक्ष यान भेजेगा। कहा जा रहा है कि भारत का यह मंगल अभियान एशिया के देशों के बीच अनुचित स्पर्धा की शुरुआत कर सकता है। वस्तुत: नवंबर, 2011 में रूस के सहयोग से शुरू हुआ चीन का मंगल अभियान नाकामयाब हो गया था। ऐसी ही एक कोशिश में 1998 में जापान को भी नाकामयाबी हाथ लगी थी। इन हालात में भारत अपने लिए अवसर ढूंढ रहा है। वह जानता है कि इस मामले में वह यदि चीन को पीछे छोड़ देता है, तो यह विराट उपलब्धि होगी। पिछले वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री ने इस अभियान की बात कही थी। जाहिर है कि लाल किले के प्राचीर से कही गई हर बात राष्ट्र के गौरव से जुड़ी हुई होती है। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अंतरिक्ष क्षेत्र में चीन के साथ भारत की तुलना करना बिल्कुल भी मुनासिब नहीं होगा। चीन ने अपना पहला मानवयुक्त अंतरिक्ष यान वर्ष 2003 में प्रक्षेपित किया था। भारत अभी तक यह लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया है। इसके अलावा चीन ने भारत को पीछे छोड़ते हुए 2007 में ही अपने पहले चंद्र अभियान की शुरुआत कर दी थी। वजन उठाने के मामले में भी चीन के प्रक्षेपण यान भारत की तुलना में चार गुना ज्यादा क्षमतावान हैं। भारत के इस मंगल अभियान पर कई और सवाल भी उठाए जा रहे हैं। कुछ लोग इस मिशन में प्रयुक्त तकनीक की गुणवत्ता पर सवाल उठा रहे हैं। अमूमन गहरे अंतरिक्ष में उपग्रह भेजने के लिए जिओ सिनक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल यानी जीएसएलवी को ज्यादा उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि उसमें तीन इंजन होते हैं। लेकिन भारत ने अपने मंगलयान को एक इंजन वाले पोलर सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल यानी पीएसएलवी से भेजा है, इसकी वजह यह है कि 2010 में दो नाकामयाबियों के बाद जीएसएलवी पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाया है।