06-Nov-2013 07:16 AM
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राजस्थान में टिकिट वितरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद सत्तासीन कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में असंतोष चरम सीमा पर है। दोनों दलों ने कुछ विधायकों के टिकिट काटने के संकेत दिए हैं। कांग्रेस में 11 मंत्रियों के टिकिट पर

खतरा है। दोनों दलों के तकरीबन छह-छह मौजूदा सांसदों को टिकिट दिया जा सकता है। उधर राज्य में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी को केंद्र में रखकर चुनावी द्वंद प्रारंभ है।
राजस्थान में चुनावी माहौल थोड़ा उलझा पड़ा है। यह देश का पहला ऐसा राज्य है जहां उत्तरप्रदेश के बाद 25 साल से कम उम्र के 4 करोड़ मतदाता हैं। जबकि विधानसभा की औसत उम्र 56 साल है और कैबिनेट की औसत उम्र 62 साल है। इसी कारण युवा मतदाताओं की संख्या देखते हुए दोनों दल चाह रहे हैं कि वह अधिक से अधिक संख्या में उन विधायकों को टिकिट दें जो जनता के बीच लोकप्रिय होने के साथ-साथ नई उम्र के हैं। राज्य में राहुल गांधी की अधिक सभाएं रखने का मकसद भी यही है। भाजपा में भी नरेंद्र मोदी को आगे रखने की रणनीति का कारण यही है कि नरेंद्र मोदी 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों के बीच भी अच्छी तरह लोकप्रिय हो चुके हैं। पिछली बार कांग्रेस ने 63 विधायकों को पहली बार विधानसभा में पहुंचाया था। इस बार भारतीय जनता पार्टी ज्यादा से ज्यादा नए लोगों पर भरोसा दिखाना चाहती है।
वसुंधरा राजे ने सुराज संकल्प यात्रा के दौरान अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था और इसमें जुटने वाली भीड़ से भाजपा उत्साहित है। उधर राहुल की रैलियों में भी अच्छी खासी भीड़ है। इसी कारण कांग्रेस भीड़ को अब जीत का पैमाना मान रही हैं, लेकिन सियासी समझ रखने वाला हर कोई जानता है कि रैलियों व यात्राओं में भीड़ कैसे आती है। दरअसल, भीड़ आती नहीं, लाई जाती है और लाने वाले अब टिकट मांग रहे हैं। दोनों दलों के पास महज पचास ही सीट ऐसी हैं, जिन पर एक नाम पर सहमति है। बाकी 150 सीटों पर तीन से दस उम्मीदवारों की फेहरिस्त है। यानी यह सियासी तस्वीर बता रही है कि आने वाले चुनावों में भीड़ नहीं टिकट बंटवारे में ही जीत का वास है। भाजपा-कांग्रेस ने पहली मर्तबा जिताऊ प्रत्याशियों के लिए तीन-तीन बार ग्राउंड सर्वे करवाए हैं। यह सर्वे ही टिकट बंटवारे का आधार है। लहर जैसी बात न भाजपा के पक्ष में है न ही कांग्रेस के खिलाफ नजर आ रही है। हां, भाजपा के पक्ष में केन्द्र सरकार के खिलाफ बने माहौल और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का फायदा मिलता नजर आ रहा है। ये दोनों ही बातें मतदाताओं की जुबान पर हैं। कांग्रेस अस्पतालों में निशुल्क दवा वितरण व जांच योजना, पेंशन योजना, मुफ्त लैपटॉप, रिफाइनरी, जयपुर में मेट्रो, खाद्य सुरक्षा योजना जैसे कामों में जनाधार ढूंढ रही है। पार्टी का चुनावी सभाओं में भी इसी बात पर जोर है, लेकिन यहां भी बड़ा सवाल यही है कि क्या गहलोत की निशुल्क दवा-पेंशन जैसी योजनाएं सरकार की वापसी की ठोस वजह बनेंगी या मोदी मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में ला पाएंगे।
भाजपा का पूरा फोकस उन 96 सीटों पर है, जहां कांग्रेस के विधायक जीते हैं। जबकि कांग्रेस की नजर भाजपा की 78 सीटों पर है। पार्टियों का तर्क है कि एंटीइनकमबेंसी सत्ता के खिलाफ तो रहती है लेकिन उसका असर मौजूदा विधायकों पर भी पड़ता है। बेशक विधायक किसी भी दल का हो। एंटीइनकमबेंसी अगर सत्तारूढ़ दल के लिए नकारात्मक सोच का कारण बनती है तो विपक्ष के विधायकों के खिलाफ भी यही लहर हार-जीत का कारण बनती है। यही वजह है इस बार दोनों पार्टियां नए जिताऊ चेहरों की तलाश में है। भाजपा राजस्थान के एक बार मैं, एक बार तू वाले चुनावी ट्रेंड से उत्साहित है। पार्टी मानकर चल रही है कि इस बार उनकी बारी है। कांग्रेस ने पिछले चुनाव में भाजपा के मुकाबले करीब छह लाख वोटों के अंतर को बढ़ाने के लिए ही 40 लाख मतदाताओं पर पेंशन का दांव खेला है। भाजपा ने पहले इसे सरकारी खजाने की लूट कहा, लेकिन अब बैकफुट पर है क्योंकि चुनावी गणित समझ चुकी है इसीलिए कह रही है कि यह तो जनता का हक है, एहसान नहीं। हाड़ौती में खुद वसुंधरा राजे, मारवाड़ में अशोक गहलोत, मेवाड़ में सीपी जोशी, गुलाब कटारिया की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। बड़े नेताओं अपने गढ़ की चिंता है। ताजा चुनावी सर्वे में ये किले ढहते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस ने पूरी ताकत मेवाड़, हाड़ौती पर लगाई है जहां राहुल की दो बड़ी सभाएं हुईं। वहीं भाजपा इस बार मारवाड़ की 43 सीटों पर फोकस कर रही है। पार्टी जयपुर के बाद मेवाड़ और जोधपुर में मोदी की बड़ी रैली करने की योजना बना रही है। मतलब साफ है कि मोदी राज्य में वोटरों का आकर्षण केंद्र है।
कांग्रेस वसुंधरा को घेर रही है क्योंकि वह जानती है राजस्थान भाजपा में धुरी केवल वसुंधरा ही है। इसीलिए वह वसुंधरा के चार साल तक प्रदेश से बाहर रहने को मुद्दा बना रही है। भाजपा का पलटवार गहलोत पर है। सिपहसालार कह रहे हैं कि सामाजिक, आर्थिक विकास की सारी योजनाएं कांग्रेस ने चुनाव के आखिरी वर्ष में बनाई और लागू कीं। यानी योजनाएं आने वाले चुनावों के मद्देनजर बनीं। राज्य की सियासत समझने वाले जानते हैं कि चुनावों पर लोकलुभावन योजनाओं से ज्यादा जातिगत समीकरण हावी रहते हैं। हर जाति के अपने मोदी और राहुल हैं। दोनों दलों में टिकट किसको मिलना है यह दिल्ली तय करती है लेकिन हार जीत का फैसला गांव और ढाणियां करती हैं। यह और बात है कि गांवों-ढाणियों तक न योजनाएं पहुंचती हैं और न नेता।
मंत्रियों के खिलाफ माहौल से चिंता
राज्य सरकार के 9 कैबिनेट, 13 राज्य मंत्रियों तथा ज्यादातर विधायकों को लेकर नकारात्मक फीडबैक आया। सिर्फ तीन मंत्री ही ऐसे माने गए, जिनकी जीत को लेकर सकारात्मक रुझान रहा है। इनमें राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी, शहरी विकास मंत्री शांति धारीवाल और उद्योग मंत्री राजेंद्र पारीक हैं। बाकी सभी के बारे में नकारात्मक फीडबैक है। हेमाराम को गुढ़ामालानी से बायतू भेजा सकता है। यह उनका गृह क्षेत्र बताया जाता है। कर्नल सोनाराम को कहां भेजा जाएगा, इस पर स्थिति साफ नहीं है। पंचायतीराज मंत्री महेंद्रजीतसिंह मालवीय की जगह उनकी पत्नी का नाम सबसे ऊपर है। ज्यादातर विधायकों के बारे में पार्टी कार्यकर्ता इसी तरह मुखर होकर बोल रहे हैं। ऐसे में संकेत दिया गया है कि जिला मुख्यालयों या अन्य प्रमुख सीटों पर छात्र राजनीति से निकले या युवक कांग्रेस के चुनावों से निकले युवाओं पर दांव खेला जाए। जाट, राजपूत और मीणा बहुल इलाकों में इन्हीं जातियों के उम्मीदवारों को अहमियत देने तथा बाकी इलाकों में इन्हीं जातियों के खिलाफ धु्रवीकरण वाले उम्मीदवार उतारने पर भी विचार हुआ। महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा का नाम ओसियां से तय है, जबकि मलखान के परिवार से तीन नाम हैं। इनमें मलखान की मां अमरीदेवी, भाई की पत्नी कुसुम और बेटे के नाम हैं। इनमें सबसे ऊपर नाम अमरीदेवी का है। मांडल से रामलाल जाट का नाम है। हटाए गए मंत्रियों में प्रमोद जैन भाया का भी टिकट तय है। लेकिन भरोसीलाल जाटव को लेकर दुविधा है। दूदू और फुलेरा में कांग्रेस के समीकरण बिगड़े हुए हैं। दूदू से विधायक और फिर मंत्री बने बाबूलाल नागर दुष्कर्म के आरोपों में घिरे हुए हैं। वे पार्टी से निलंबित हो चुके हैं। फुलेरा में जाट नेता डॉ. हरिसिंह पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम चुके हैं। ऐसे में दूदू और फुलेरा विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को जिताऊ उम्मीदवार की तलाश है। हालांकि दोनों ही सीटों से दावेदारों की कमी नहीं है। भाजपा दूदू में पूर्व मंत्री मदन दिलावर पर फोकस कर रही है। बाबूलाल बछेर और प्रेम बैरवा के नाम भी चल रहे हैं। फुलेरा से भाजपा के निर्मल कुमावत फिर मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। भाजपा में शामिल हुए डॉ. हरिसिंह इस सीट पर मोहन बधाला को टिकट दिलवाना चाहते हैं। राजस्थान विधानसभा के चुनाव 2008 में महज छह लाख 13 हजार 218 वोटरों ने भाजपा को सत्ता से बाहर करके कांग्रेस को सत्तासीन कर दिया था। ये महज 2.55 प्रतिशत वोटर थे। प्रदेश के मतदाता की नाराजगी का चुनावी नतीजों पर असर और उलटफेर का आलम इतना नाजुक है कि 1993 की तरह अगर सिर्फ 55 हजार (महज 0.33 प्रतिशत) मतदाता नजरें फेर लें तो सत्ता छिन सकती है। जब एक दिसंबर को प्रदेश में मतदान होगा तो उसमें 29 लाख 81 हजार 569 मतदाता पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए तैयार होंगे। इनमें 10 लाख 88 हजार 906 तो ऐसे होंगे, जो 20 साल से भी कम उम्र के होंगे। ये सभी पहली बार वोट डालेंगे। दोनों दलों ने इन्हें साइबर साइट्स पर लुभाना शुरू कर दिया है। कांग्रेस ने इस वर्ग को ललचाने के लिए लैपटॉप बांटे हैं तो भाजपा नौकरियों का दांव खेल रही है। पिछले चुनाव में 118 सीटें 10 हजार से कम और 66 सीटें पांच हजार से कम वोटों के अंतर में सिमट गई थीं। दस हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से जीतने वाले विधायक 82 हैं। इनमें 36 विधायक ऐसे थे, जो 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट ले सके। इनमें कांग्रेस के 19, भाजपा के 16 और एक निर्दलीय थे। 1000 से कम वोटों के अंतर से जीतने वाले भाजपा के विधायक 4 और कांग्रेस के 6 थे। 1000 से तीन हजार वोटों के अंतर से भाजपा के 13 और कांग्रेस के 7 उम्मीदवार जीते। 3-5 हजार में भाजपा के 10 और कांग्रेस के 5 तथा 5-10 हजार के अंतर में कांग्रेस के 29 और भाजपा के 16 उम्मीदवार ही जीत सके।