06-Nov-2013 06:36 AM
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एक ही स्थान पर 7 वर्ष के भीतर प्राकृतिक आपदा आ जाए तो उसे ईश्वरीय शाप कहा जा सकता है। लेकिन किसी स्थान पर बार-बार प्रशासन की चूक के चलते लोगों की जान चली जाए तो उसे क्या कहा जाए? यह महज लापरवाही नहीं है,

बल्कि अपराध है, जो मध्यप्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ मंदिर में उस रोज किया गया। यह जानते हुए भी कि लाखों श्रद्धालु एकत्र होने वाले हैं। सैकड़ों की संख्या में वाहन आने की संभावना है। स्त्री-पुरुष, बाल-अबाल, वृद्ध सभी रतनगढ़ मंदिर में माता के दर्शनों के लिए उमड़ते हैं। श्रद्धा का सैलाब देखा जा सकता है - प्रशासन ने कोई व्यवस्था नहीं की। महज दो दर्जन पुलिस वालों के हवाले छोड़ दिया गया। उस मंदिर और उन लाखों श्रद्धालुओं को, इसके बाद मौत का तांडव देखने को मिला। दुख की बात तो यह है कि 15 अक्टूबर को सुबह-सुबह मची वह भगदड़ अकस्मात नहीं थी, बल्कि उसे जान-बूझकर अन्जाम दिया गया था। पुलिस वालों ने व्यवस्था बनाने की बजाय लोगों को भयाक्रान्त किया, और लोग बदहवास भागने लगे।
बड़े आश्चर्य का विषय है कि जिले के कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक, एसडीएम और एसडीओपी ने कोई पूर्व सतर्कता नहीं बरती। इन अधिकारियों के जिम्मे पूरे जिले की सुरक्षा और प्रशासन का भार रहता है। उन्हें आवश्यकता पडऩे पर स्वविवेक से निर्णय लेने का अधिकार है। कहां कितना पुलिस बल तैनात होना है, किस प्रकार की व्यवस्था की जानी है। लोगों को किस तरह अनुशासित करना है और सरकारी मशीनरी से किस प्रकार काम लेना है, कैसी व्यवस्था बनाई जा सकती है। यह सब इन जिम्मेदार अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में है, लेकिन कमाल की बात तो यह है कि उस दिन वहां कोई जिम्मेदार अधिकारी था ही नहीं। कलेक्टर की माताजी अस्वस्थ थीं तो कमिश्नर भी बाहर थे। जब हादसा घट गया उसके बाद आनन-फानन में अधिकारी वहां पहुंचे। एक छोटे से पुल पर न बेरीकेट्स थे, न दर्शन करके लौट रहे और दर्शन करने जा रहे दर्शनार्थियों के आवागमन की पृथक-पृथक व्यवस्था थी, न ही वहां पर अलग-अलग लाइनें लगवाई गई थीं। पुलिस वाले तम्बाकू खाने और आपसी बातचीत में मशगूल थे। बीच में कोई ट्राली या ट्रैक्टर उनके जेब गरम कर पुल के पार जाना चाहता था तो उसे रिश्वत लेकर जाने दिया जा रहा था। इसका अर्थ यह है कि मौत को आमंत्रित कर लिया गया था।
मंदिर के महंत घनश्याम सिंह महाराज का कहना है कि यह बड़ा सिद्ध स्थल माना जाता है। नवदुर्गा के समय ही नहीं बल्कि लगभग प्रतिमाह कुछ खास मौकों पर श्रद्धालु इस स्थान में अपनी मान्यता लेकर आते हैं और मां के दर्शन करते हैं, जब भीड़ ज्यादा होती है तो वाहन मंदिर से एक दो किलोमीटर पहले ही रोक दिए जाते हैं। वहां खेतों में मंदिर कमेटी द्वारा पार्किंग की व्यवस्था की जाती है। पार्किंग शुल्क वे ग्रामीण वसूलते हैं जिनकी फसलों को पार्किंग के चलते नुकसान पहुंचता है। मंदिर कमेटी भी अपनी तरफ से कुछ हरजाना देती है, लेकिन सरकार की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार ने इस प्रसिद्ध धार्मिक स्थल की घोर उपेक्षा करके रखी है। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालुओं का यहां आना होता है। व्यवस्थाएं चरमरा सकती हैं, लेकिन उसके बाद भी एक संकरी सी रोड़ मंदिर को जोड़ती है। पुल भी बहुत संकरा है। इस संकरे पुल पर पुलिस वालों के देखते-देखते भीड़ ठसा-ठस भरा जाती है। लेकिन सबको भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है। मंदिर में भी लाखों का चढ़ावा आता है। वर्ष भर की आमदनी भी करोड़ों रूपए में है। मंदिर की समिति धनवान है, लेकिन पैसा बटोरने में सबका विश्वास है। इस पैसे से जन सुविधाएं बनवाने और सड़क चौड़ी करवाने तथा पुल पर विशेष बेरीकेट्स लगवाने का काम हो सकता है, लेकिन परवाह किसे है, सब बेपरवाह हैं। यदि किसी को कुछ कहा जाए तो सब एक दूसरे के ऊपर जिम्मेदारियां डालते हैं। इस हादसे के बाद भी यही कवायद शुरू हो गई है। सब एक दूसरे को जिम्मेदार बता रहे थे, कोई जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं था। सरकार ने कार्रवाई करते हुए जिले के डीएम, एसपी के साथ ही एसडीएम और एसडीओपी को भी निलंबित कर दिया। लापरवाही बरतने और अफवाह फैलाने वाले पुलिस वालों को भी निलंबित किया गया। सरकार ने जांच का आदेश दिया और यह तय है कि जांच के बाद जो भी निष्कर्ष निकलेगा या जो भी रिपोर्ट आएगी वह कहीं धूल खाने के लिए फेंक दी जाएगी। आज तक ऐसे हादसों में की जाने वाली जांच मात्र खानापूर्ति ही रहती है। रिपोर्ट को सदन के पटल पर नहीं रखा जाता और न ही कोई ऐहतियाती कदम उठाए जाते हैं।
पुलिस वाले निकाल रहे थे गहने
इस हादसे की कड़वी सच्चाई दिन ब दिन खुल रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पुलिस वाले लाशों को नदी में फेंक रहे थे और महिलाओं के जेवर उतार रहे थे। यह कथन अतिरंजित हो सकता है, लेकिन यदि इसमें एक प्रतिशत भी सच्चाई है तो यह भयावह है। जिस पुलिस का काम देश भक्ति और जन सेवा है वह पुलिस यदि लाशों से गहने बीनने लगेगी तो हर शहर हर गली में इस तरह के हादसे घटित होंगे। यह पहला मौका नहीं है, भीड़ के प्रबंधन में भारत का रिकार्ड बहुत दयनीय है और मध्यप्रदेश की स्थिति तो और भी दर्दनाक है। पिछले एक दशक में ही ऐसे कई हादसे प्रदेश में देखने को मिले हैं। रतनगढ़ में वर्ष 2006 में पुलिस और प्रशासन की लापरवाही उभर कर सामने आई थी। 50 लोगों की तत्काल मृत्यु हो गई। कई घायल हुए और कई स्थायी रूप से विकलांग हो गए। उस घटना से सबक नहीं लिया गया। भीड़ के प्रबंधन की व्यवस्था नहीं की गई। हर वर्ष ऐसा ही होता है। कहीं न कहीं कोई न कोई घटना घट ही जाती है। यह जानते हुए भी कि लाखों लोग एकत्रित होते हैं तो हादसा हो सकता है। प्रशासन पुख्ता इंतजाम नहीं करता। पुलिस बल खास लोगों की सुरक्षा में ही तत्परता दिखाता है। अन्यथा आम आदमी के प्रति उसका रवैया भेड़-बकरी वाला ही है। 27 मार्च 2008 को मध्यप्रदेश के करीला में सीता माता के मंदिर में भगदड़ मची थी। सरकारी आंकड़ा 8 लोगों की मौत बता रहा था, लेकिन कई लोग अभी तक लापता हैं। करीला माता मंदिर में भी भीड़ के उचित प्रबंधन के अभाव में अफवाह फैली और कई लोगों की मौत हो गई 12 से अधिक घायल हो गए। पिछले वर्ष जनवरी में जावरा के निकट हुसैन टेकरी में अंगारों पर चलने के दौरान भगदड़ मच गई और 12 श्रद्धालुओं की मौत हो गई। ऐसा अक्सर होता रहता है। मकर संक्रांति, सोमवती अमावश्या से लेकर कई धार्मिक आयोजनों के दौरान मध्यप्रदेश में भगदड़ मचती रही है। लेकिन आज भी ऐसे आयोजनों के समय उठाए जाने वाले कदमों पर किसी विशेष नीति का अभाव है। आपसी समन्वय भी नहीं देखने को मिलता। 07 अप्रैल 2005 को धाराजी में अमावश्या के मौके पर प्रशासनिक लापरवाही से हुआ वह हादसा कैसे भूला जा सकता है जब इंदिरा सागर डैम से पानी छोड़ जाने के बाद नर्मदा का जल स्तर तेजी से बढऩे लगा और धारा जी में स्नान कर रहे सैकड़ों श्रद्धालु बह गए, जिनमें से 70 की मौत हो गई। एक स्थान पर सैकड़ों लोग नहा रहे हैं। धार्मिक आयोजन है। अमावश्या का समय है। श्रद्धालु पूजा और स्नान के लिए आ सकते हैं। यह जानते हुए भी पानी छोड़ा गया। इस हादसे की जांच में जो तथ्य सामने आए हैं उनसे यह पता चलता है कि यह लापरवाही अकस्मात नहीं हुई। हादसे के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी जिम्मेदार लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। न ही प्रशासन आज तक यह तय कर पाया है कि हादसा किसकी लापरवाही से हुआ। आठ साल पहले हुए धाराजी हादसे में दोषी अफसरों के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, जबकि सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक गिरिजाशंकर शर्मा दो बार यह मामला विधानसभा में उठा चुके हैं। बजट सत्र में गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता ने सदन को आश्वस्त किया था कि दोषी अफसरों के खिलाफ जल्दी ही अभियोजन की स्वीकृति दी जाएगी, लेकिन अभी तक धारा 197 के तहत अभियोजन की स्वीकृति नहीं दी। इन अफसरों पर कार्रवाई का मामला भी सामान्य प्रशासन और राजस्व विभाग में ही अटका है। केवल इतना भर किया गया है कि इन अफसरों की या तो एक वेतन वृद्धि रोक ली गई और किसी को तो बस चेतावनी भर देकर छोड़ दिया गया। इन अफसरों को महत्वपूर्ण पदों से हटाया तक नहीं गया है। जब इस मामले में हाईकोर्ट ने निर्देश जारी किए तब आरोपी अफसरों के खिलाफ धारा 304 ए का प्रकरण दर्ज किया गया। इस मामले में गृहमंत्री गुप्ता ने सदन को बताया था कि चूंकि प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए निर्देशों के मुताबिक कार्रवाई की जा रही है। जब धाराजी में कोई कदम नहीं उठाया गया तो रतन गढ़ में क्या ऐक्शन लिया जाएगा इसका संकेत साफ मिलता है। मौके पर जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों की गैर मौजूदगी। कलेक्टर द्वारा समय से व्यवस्था बनाने के निर्देश न देना वहां उपस्थित छोटे से पुलिस अमले द्वारा सही व्यवस्था न करना ऐसे कितने सवाल हैं। दर्शन के दौरान भीड़ को नियंत्रित करने के क्या इंतजाम थे। क्यों नहीं पुल से पहले ही लोगों को कतारबद्ध किया गया। पुल के दूसरे हिस्से में जाम क्यों लग गया? किन ट्रालियों को पुल से गुजरने दिया था? क्या वे किसी विशेष व्यक्ति की थीं।
मंदिर का इतिहास
यह मंदिर पवाया के राजा ने 12वीं सदी में बनवाया था। पवाया परमारों की पुरानी राजधानी थी। वहां के राजा के सबसे छोटे राजकुमार रतनसेन ने रतनगढ़ बसाया। उन्होंने ही इस मंदिर का निर्माण किया। उनकी पुत्री का नाम राजकुमारी मंडूला था, लेकिन उसे रत्नसेना के नाम से जन साधारण पहचानता था। दुर्भाग्यवश रत्नसेना की सांप के काटने से मृत्यु हो गई। भाई ने बहन को बचाने के लिए सांप का जहर चूसा तो भाई की भी मृत्यु हो गई। उसके बाद मंदिर के निकट ही दोनों भाई-बहन देवता के रूप में पूजे जाने लगे और यह मान्यता बन गई कि मंदिर में स्थित चबूतरे पर पूजा अर्चना करने से सर्प दंश से मुक्ति मिलती है। मान्यता यह है कि मंदिर में स्थापित मूर्ति राजकुमारी रत्नसेना की है, किन्तु सत्य यह है कि यह मूर्ति देवी की है। पूरे क्षेत्र में यह मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति को सांप काट ले तो उसे रतनगढ़ वाली माता का ध्यान कर राख से चक्र बना देना चाहिए और भाईदूज के दिन उस व्यक्ति को इस मंदिर में आना अनिवार्य है। जो व्यक्ति सर्पदंश के बाद माता के आशीर्वाद से अपना जीवन बचाने में सफल हो जाते हैं उन्हें माता के चबूतरे पर झाड़ा जाता है। इस प्रकार भाईदूज के दिन यहां बड़ा भारी मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में सर्प दंश के शिकार लोग आते हैं। जो लोग सर्प दंश से बचते हैं वे यहां आकर झाड़ फूंक करवाते हैं अन्यथा उल्टा असर होने की आशंका रहती है। लगभग 50 हजार लोग इस मंदिर में हर सोमवार को इक_ा होते हैं। नवरात्रि के समय भीड़ ज्यादा बढ़ जाती है संख्या लाख डेढ लाख हो जाती है। 12वीं सदी का मंदिर होने के कारण यह राष्ट्रीय धरोहर है। सरकार को इसके संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करना चाहिए। मंदिर थोड़ी ऊंचाई पर स्थित है। आसपास के इलाके में जंगल है। जब भीड़ ज्यादा बढ़ती है तो श्रद्धालु आसपास के इलाके में फैल जाते हैं। अभी तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस मंदिर और आसपास के क्षेत्र में कोई विशेष कार्य नहीं किया है। इस क्षेत्र के विशद अध्ययन की आवश्यकता है, ताकि इतिहास की परतों में दबे इस मंदिर के विषय में और जानकारी सामने आ सके। अभी तक जो भी जानकारी उपलब्ध है वह जन श्रुतियों के आधार पर है। मंदिर पहले पुजारी के अधीन था बाद में एक मंदिर समिति गठित की गई जो फिलहाल कार्यभार देखती है। जिला प्रशासन का भी यहां हस्तक्षेप है। मंदिर और आसपास का क्षेत्र बहुत बड़ा है। कई लोगों के लिए रतनगढ़ एक प्रसिद्ध तीर्थ है। मान्यताओं का स्थल है। ऐसे तीर्थ में सरकार की तरफ से व्यवस्था न होना आश्चर्य चकित करता है।