06-Nov-2013 06:20 AM
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दिल्ली विधानसभा चुनाव से पूर्व अचानक शीला दीक्षित का आक्रामक हो जाना कई सवाल खड़े कर रहा है। शीला ने कड़क आवाज में कहा है कि कुछ विधायकों के टिकिट काट दिए जाएंगे। इसका अर्थ साफ है कि आलाकमान ने शीला को खुला

हाथ दे दिया है। उधर हर्षवर्धन के मैदान में आने से भी शीला को राहत मिली है। क्योंकि गोयल के मुकाबले हर्षवर्धन उतने मंझे हुए राजनीतिक नहीं हैं। गोयल ने जिस तरह लोकसभा चुनाव में अपनी पसंद के सांसद टिकिट न मिलने पर कई दिग्गजों को धराशायी करवा दिया था, उसी तर्ज पर वे अभी भी हर्षवर्धन को परेशानी में डाल सकते हैं। उधर आम आदमी पार्टी का बढ़ता प्रभाव भी शीला दीक्षित के लिए लाभदायी सिद्ध हो सकता है। कांग्रेस ने जानबूझकर अन्ना के आंदोलन को लगातार लंबा चलने दिया। क्योंकि कांग्रेस को यह ज्ञात था कि यह आंदोलन जितना आग लगाएगा सत्ता विरोधीमतों का असर उतना कम होता जाएगा। आंदोलन का असर अब साफ दिख रहा है। अन्ना हजारे राजनीति से पहले ही दूर हैं, किरण बेदी की भाजपा से निकटता है इसलिए वे भी केजरीवाल के साथ पूरे मन से नहीं हैं। दिल्ली में शीला दीक्षित के खिलाफ जो माहौल बना था उसका फायदा अब भाजपा नहीं उठा सकेगी। लगातार आंदोलन करके और सरकार की मुखालफत करके अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता के बीच प्रभावी उपस्थिति बना ली है। इसलिए हर्षवर्धन के आने से भाजपा में उतना हर्ष नहीं है बल्कि भितरघात की संभावना बढ़ गई है।
तमाम सर्वे में अलग-अलग तरह के दावे सामने आ रहे हैं। हर सर्वे में आम आदमी पार्टी को सीटे मिलती दिखाई जा रही हैं और कांग्रेस को बहुमत से दूर बताया जा रहा है। और अगर ऐसा होता है तो दिल्ली के इतिहास में पहला मौका होगा जहां गठबंधन का दौर चलेगा। आप की ओर से किए गए अपने दावे में उसे स्पष्ट बहुमत मिलता दिख रहा है और पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री के रूप में जनता की पहली पसंद बनकर उभरे हैं। आकड़ों की मानें तो केजरीवाल को दिल्ली की 38 फीसदी जनता मुख्यमंत्री के रूप देखती है। अलग-अलग सर्वे में भले ही अलग तरह के दावे किए जा रहे हों, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आप पार्टी कहीं सत्ता के समीकरण बनाने में किंग मेकर की भूमिका में न आ जाए। जानकारों का कहना है कि वैसे लगता तो है कि आप भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। उसे कुछ सीटों पर विजय हासिल हो सकेगी। अगर उसे 10-12 सीटें मिल जाती है तो यह कहना मुनासिब होगा कि आप पार्टी ही किंग मेकर की भूमिका में होगी। देखना यह है कि केजरीवाल किसकी गोद में बैठते हैं। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों से ही केजरीवाल का 36 का आंकड़ा है। दोनों की ही मुखालफत करके आम आदमी पार्टी ने अपने आपको खड़ा किया है। ऐसे में किसी के साथ भी जाने से आम आदमी पार्टी पांच वर्ष के भीतर ही अपना वजूद खो देगी और यह दिल्ली में नए सिरे से राजनीतिक समीकरण तय करने की शुरुआत भी है।
मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित दिल्ली में पिछले 15 साल से शासन कर रही हैं। लेकिन महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मसलों पर कुछ वर्गों की नाराजगी भी शीला के खिलाफ जाती दिख रही है। मसलन, कुछ कालोनियों में सड़कें, साफ जल औ रबुनियादी सुविधाओं के अभाव के चलते गुस्सा सड़कों पर है। भाजपा शीला के खिलाफ उनके 15 साल के रिकार्ड को खंगाल रही है और बिजली व पानी के मुद्दों पर घेर रही है। इसके बदले वह जनता को 30 फीसदी बिजली के दाम कम करने का प्रलोभन भी दे रही है। हालांकि बिजली आंदोलन पर केजरीवाल जोरदार वकालत करते आ रहे हैं। दिल्ली के तकरीबन पांच लाख से भी ज्यादा लोगों ने आवेदन भरकर केजरीवाल को भरोसा दिलाया कि वे बिजली के बढ़े हुए बिल जमा नहीं करेंगे। केजरीवाल की इस अनूठी पहल ने उन्हें रातोंरात दिल्ली की चुनावी लड़ाई लडऩे की भूमिका में ला खड़ा किया। कांग्रेस ने भी इसका विरोध नहीं किया क्योंकि उसे पता है केजरीवाल की ताकत बढऩे का अर्थ है भारतीय जनता पार्टी की ताकत में कमी आना। चुनावी बिगुल बजते ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं को कहा गया है कि वे शीला सरकार की 15 साल की उपलब्धियों को चुनाव से पहले घर-घर पहुंचाएं। सरकार का दावा है कि उसने सड़क विस्तार, सड़कों की गुणवत्ता व सुगम बनाने, शिक्षा में व्यापक सुधार व विस्तार, स्वास्थ्य सुविधाओं मंज बढ़ोत्तरी में भी बेतहाशा बदलाव आए हैं। सड़कों पर जाम से बचाने के लिए फ्लाईओवर बनाए गए हैं।
इन सब के बावजूद भाजपा को लगता है कि शीला के 15 साल में कानून व्यवस्था में आई गिरावट, महिला सुरक्षा और किसानों की अनदेखी के आरोप में सरकार को बैकफुट पर ला देगी। इसके अलावा संप्रग सरकार के शासनकाल में हुए कथित भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनाव में भुनाने का कोई मौका नहीं छोडऩा चाहती। इसके अलावा बसपा, सपा और एनसीपी जैसी पार्टियां भी चुनाव में खम भर रही हैं और कई सीटों पर मुकाबला दिलचस्प भी बना सकती हैं। कुल मिलाकर दावे सबके अलग-अलग हैं और चुनाव में अपने-अपने अलग सुर व ताल मिलाकर दिल्ली की सत्ता पाने के लिए मुहिम तेज कर चुके हैं। यह तो 8 दिसंबर को मतगणना होने पर ही पता चलेगा कि ऊंट आखिर किस करवट बैठता है?