बगावत, भितरघात और असंतोष
06-Nov-2013 06:03 AM 1234815

गम मुझे वहशत मुझे, उलफत मुझे सौदा मुझे।।
एक दिल देकर खुदा ने दे दिया क्या-क्या मुझे। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के संभावित विधानसभा चुनाव उम्मीदवार की घोषणा के बाद दोनों दलों में चल रही जूतम-पेजार देखकर बरबस ही यह पंक्तियां याद आ गईं। खुदा ने जिनके खून में राजनीति दी है वे इतने वहशी हो जाएंगे सोचा न था, लेकिन इस वहशत में सिद्धांत व नैतिकता का सौदा भी किया जा रहा है और टिकिट न पाने के गम में बगावत भी हो रही है। बगावती भले ही ऊपर न आएं, लेकिन उल्फत के गम में अपने ही साथियों की जड़ खोदने में जुट गए हैं। कांग्रेस की सूची शीघ्र ही आने वाली है और भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली में अध्यक्ष राजनाथ सिंह, वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली, भाजपा के पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह तथा अनंत कुमार की मौजूदगी में जब 147 नामों की घोषणा की तो जिन टिकिटार्थियों को टिकिट नहीं मिला उनकी वहशत जाग गई। पिछले चुनाव में यह वहशत इतनी नहीं थी। शायद इसीलिए भाजपा ने टिकिट की घोषणा करते समय दिग्गज नेताओं को सामने रखा। लेकिन दिल्ली में टिकिट की घोषणा होते ही मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के भीतर मानो उबाल आ गया हो। नेताओं के पुतले जले, नारेबाजी हुई, जूते और हाथा-पाई की नौबत आई। चुन-चुन कर गालियां दी गईं और जिनको टिकिट मिला है उनको निपटाने का संकल्प लिया गया। पिछले चुनाव में प्रदेश की जनता सत्ता परिवर्तन के मूड में नहीं थी इसका अंदाज नौकरशाही को भी था और राजनीति के पंडितों को भी। लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक बन चुके हैं। क्योंकि इनमें कांग्रेस का अस्तित्व दांव पर है तो शिवराज की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई है। जो जीता वह सिकंदर। यदि कांग्रेस जीतती है तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस को नवजीवन मिलेगा और भाजपा जीतती है तो शिवराज का कद और बढ़ेगा। लेकिन दोनों प्रमुख दलों के भीतर ही जो ज्वालामुखी खदबदा रहा है उसके कारण चुनावी परिणाम उलझे से नजर आ रहे हैं। तस्वीर इतनी धुंधली है कि स्वयं शिवराज का चेहरा मलिन पड़ गया है और मलिन क्यों न हो। उनके दिग्गज मंत्रियों से लेकर विधायकों तक हर एक के प्रति भयानक जनाक्रोश है। चुनावी सर्वेक्षण भले ही भाजपा के पक्ष में हैं, लेकिन सत्य तो यह है कि मध्यप्रदेश में भाजपा को 90 सीटें बदलने की आवश्यकता थी, लेकिन न तो शिवराज में वह साहस दिखाया और न ही केंद्रीय नेतृत्व ने कोई जोखिम उठाया। पहली सूची 147 नामों की जारी की गई है जिनमें लगभग 31 नए चेहरे हैं। 27 पूर्व विधायकों को टिकिट मिली है। जिनमें से पांच ऐसे हैं जो पराजित हो गए थे। 79 विधायकों के टिकिट में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। तीन सांसदों को भी चुनावी मैदान में लाया गया है। जबकि दो मंत्रियों सहित 20 के टिकिट कट गए हैं। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में पराजित होने वाले मंत्रियों रुस्तम सिंह, रमाकांत तिवारी, कुसुम मेहदेले, गौरीशंकर शैजवार और निर्मला भूरिया पर पार्टी ने फिर से विश्वास जताया है, पिछली बार चुनाव हार चुके सांसद रामपाल सिंह को सिलवानी से प्रत्याशी बनाया गया है।
भोपाल संभाग में बैरसिया में विष्णु खत्री का चेहरा नया है। आरिफ बेग पर भोपाल उत्तर से भाजपा ने विश्वास जताया है। सीहोर में वर्तमान विधायक रमेश सक्सेना के स्थान पर उनकी पत्नी ऊषा सक्सेना को प्रत्याशी बनाया गया है। राजगढ़ में अमर सिंह यादव और सारंगपुर में कुंवर कोठार नए चेहरे हैं। यहां स्थानीय विधायकों के प्रति जनाक्रोश है। इसलिए प्रत्याशी बदले गए हैं। कुरवाई में वीर सिंह पवार नया चेहरा है इसी प्रकार भीकनगांव और भगवानपुरा में भी नए प्रत्याशी मैदान में हैं। थांदला से गोर सिंह बसुनिया  नए प्रत्याशी हैं। सरदारपुर से भी नया चेहरा मैदान में है। चंबल संभाग में जौरा से सूबेदार सिंह सिकरवार और सुमावली से सत्यपाल सिंह नए प्रत्याशी हैं जबकि सबलगढ़ से मेहरबान सिंह रावत, लहार से रसाल सिंह, गोहद से लाल सिंह आर्य जैसे पूर्व विधायकों पर भी पार्टी ने विश्वास जताया है। पिछली बार हार चुके प्रदीप अग्रवाल को सेबढ़ा से उम्मीदवार बनाया गया है। गुना, राघौगढ़ जैसी सीटों पर नए चेहरे हैं तो करेरा और अशोकनगर में पूर्व विधायक मैदान में है। पिछले चुनाव में पराजित हुई ममता मीणा चांचौड़ा से टिकिट पाने में सफल रही है। सागर संभाग में भी कुछ इसी तरह की स्थिति है यहां बीना से महेश राय, सुरखी से पारुल साहू, पृथ्वीपुर से अनीता नायक, चांदला से आरडी प्रजापति, पथरिया से लाखन पटेेल जैसे प्रत्याशी नए हैं तो खुरई से सांसद भूपेन्द्र सिंह और पन्ना से कुसुम मेहदेले पर विश्वास किया गया है। देखना है कि यह प्रत्याशी शिवराज लहर का कितना फायदा उठा पाते हैं। रीवा संभाग की 22 सीटों में से 17 पर जो प्रत्याशी घोषित किए गए हैं उनमें चार नए चेहरे हैं। रामपुर बघेलान से पूर्व विधायक हर्ष सिंह को प्रत्याशी बनाया गया है। बाकी लगभग वैसे ही हैं। शहडोल की 10 में से छह सीटों पर एकमात्र बदलाव डिंडोरी में जयसिंह मरावी के रूप में देखने को मिला है। जबलपुर में 36 में से 23 सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए गए हैं। विजय राघौगढ़, मंडला, वारासिवनी, जुन्नारदेव आदि में नए चेहरे देखने को मिलेंगे। सिवनी में पूर्व विधायक नरेश दिवाकर और केवलारी में पूर्व मंत्री ढाल सिंह बिसेन को टिकिट दिया गया है।
टिकिट की यह लड़ाई लगभग मतदान के दिन तक चलने वाली है। क्योंकि जिसे टिकिट नहीं मिला वह टिकिट प्राप्त करने वाले प्रत्याशी को हराने की जुगत में जुट गया है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों में यह एक नया टें्रड शुरू हुआ है। पहले तो तख्तियां बताकर, प्रदर्शन करते हुए, पुतले जलाकर प्रत्याशियों का विरोध किया जाता है और जब मनपसंद प्रत्याशी को टिकिट नहीं मिलता तो फिर उसे निपटाने की कवायद शुरू हो जाती है। इसी कारण चुनावी सर्वेक्षण मध्यप्रदेश में इस बार कहीं फेल न हो जाएं। इस बात की आशंका पूरी है। क्योंकि निपटाने वालों ने भरपूर तैयारी कर रखी है। कांग्रेस में भी यही दुविधा है। किसके टिकिट काटे और किसे बांटे। जो नेताओं के करीबी हैं उनकी अलग कहानी है और जो लोकप्रिय हैं वे जनता के बीच अपनी छवि भुनाना चाहते हैं। कांग्रेस में कुछ खास गुटों के इर्द-गिर्द रहने वाले नेताओं को भी साधना पड़ता है। भले ही राहुल गांधी कितनी भी शर्तें क्यों न लाद दें लेकिन अंतिम फैसला तो उन दिग्गजों की निगाहों से ही होकर गुजरने वाला है इसीलिए कांग्रेस के ज्यादातर टिकिटार्थी अपने दिग्गजों के आसपास उसी तरह मंडरा रहे हैं जिस तरह मधुमक्खियां छत्ते के आसपास मंडराती हैं। लेकिन टिकिटों की घोषणा के साथ ही चुनावी जंग अब पार्टी के भीतर ही सजने लगी है। खासकर भारतीय जनता पार्टी में बगावती तेवर कुछ ज्यादा ही हैं। भोपाल में तो कार्यालय पर ही तनाव पैदा हो गया था। भिंड में भी जमकर लड़ाई झगड़ा हुआ।
उधर पहली बार कांग्रेस ने सिंधिया घराने के एक युवा चेहरे ज्योतिरादित्य को सामने रख कर सत्ता परिवर्तन की लड़ाई लडऩे का फैसला किया है। कांग्रेसी असंतोष का प्रकटन हाथ-पैर और नारेबाजी से न होकर गुटबाजी से हो रहा है। जिस गुट को टिकिट नहीं मिली वह कोपभवन में चला गया और जिस गुट को टिकिट मिल गई उसने असंतुष्टों को मनाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने।
सिंधिया को लेकर कांग्रेस में दुविधा
सिंधिया को मध्यप्रदेश का कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार माना जा रहा है, लेकिन विडम्बना यह है कि कांग्रेस ने उनके नाम की अधिकृत घोषणा नहीं की है। इसका अर्थ यह हुआ कि सिंधिया के नेतृत्व में चुनाव भले ही लड़ा जाए लेकिन अंतिम फैसला गोपनीय ही रहेगा। चुनाव परिणाम देखकर ही कांग्रेस अंतिम निर्णय लेगी। ग्वालियर चंबल संभाग में सिंधिया राजधराने का असर रहा है। इन दोनों संभागों के आठ जिलों में चौंतीस विधानसभा सीटें हैं। सीटों के लिहाज से महाकौशल के बाद दूसरे स्थान पर आने वाला यह क्षेत्र कभी सिंधिया, गुर्जर ,प्रतिहार, तोमर व कछवाहा राजवंशों की शासन स्थली रहा है। ग्वालियर-चंबल पर किसी दल विशेष का क्षेत्र होने का ठप्पा नहीं लग सका। यहां के मतदाताओं ने आमतौर पर दल से ज्यादा प्रत्याशियों व उनकी छवि को तवज्जो दी। इनका यही मिजाज राज्य के दोनों ही प्रमुख दलों के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है। राज्य मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री के बाद अघोषित  तौर पर दूसरा स्थान रखने वाले प्रदेश के विधि विधायी एवं संसदीय कार्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा, चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष एवं सांसद नरेन्द्र तोमर पर भी क्षेत्र में भाजपा का जनाधार बढ़ाने का दबाव है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है वह मध्यप्रदेश में सत्ता पाने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास नहीं कर रही है। क्योंकि उसे पता है कि गुटबाजी ने जिस तरह निचले स्तर तक पार्टी को लहुलुहान किया है उसके चलते भाजपा को मौजूदा सांगठनिक शक्ति के साथ पराजित करना असंभव है, लेकिन फिर भी कांग्रेस की रणनीति यह है कि इस बार नहीं तो अगली बार बीजेपी को पलटी मारेंगे। पहला रण लोकसभा चुनाव होगा और उसके बाद अगला लक्ष्य शायद 2018 के विधानसभा चुनाव हों। पर प्रश्न यही है कि कांग्रेस के भूखे कार्यकर्ता कितने समय तक भूखे रहकर कांग्रेस का साथ निभाएंगे। कई विधायक तो 10-10 साल से सत्ता आने का इंतजार कर रहे हैं।
अगले पांच साल में उतने भी बचेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है। इसीलिए महाराजा की डगर में मगर हो सकता है। भाजपा ने इसी रणनीति के तहत पूर्व में हारे हुए मंत्रियों पर दांव लगाया है। हालांकि अभी भी कुछ मंत्री अपनी सीटें बदलवाने की कोशिश कर रहे हैं जिसका कारण शायद जातिगत समीकरण और खिसकता जनाधार हो सकता है, लेकिन बात यह है कि जिस सीट पर वे जाना चाह रहे हैं उस सीट का दावेदार भी तो है। वो कहां जाएगा।
सिंधिया को घेरने की रणनीति
भाजपा की कोशिश सिंधिया को उनके ही गृह क्षेत्र में घेरने व करारी मात देने की है। इन तमाम समीकरणों के कारण क्षेत्र के दिग्गजों की साख दांव पर लगी हुई है। मुकाबला भाजपा कांग्रेस में होने के बाद भी बसपा और सपा का प्रभाव यहां पर है। जो आमतौर पर इन दोनों प्रमख दलों के गणित को बिगाड़ता रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने क्षेत्र की चार सीटों पर जीत दर्ज की थी। तब बसपा उप्र में सत्तासीन थी लेकिन इस बार हालात अलग हैं। इस बार वह अघोषित रूप से भीतर ही भीतर कांग्रेस से मिली हुई है। इसके चलते इन संभागों में इस बार मुख्य मुकाबला राज्य के दोनों ही प्रमुख दलों के बीच होने के आसार हैं।
इसका संकेत 17 अक्टूबर को कांग्रेस के स्टार प्रचारक राहुल गांधी की सभा के दौरान उनके भाषण से मिला जिसमें उन्होंने भाजपा पर ही निशाना साधा। वरना राहुल यूपी की सीमा पर बसपा को जरूर लपेटते हैं। राहुल इस क्षेत्र में आगे भी और सभाएं लेंगे। इससे पहले कांग्रेस चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया भी क्षेत्र में अनेक सभाओं में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मुखालफत करते नजर आए हैं। ग्वालियर-चंबल संभागों में मुख्यमंत्री की जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान उमड़ी भीड़ ने सत्तारुढ़ दल में उमंग और संशय दोनों पैदा किया है। उमंग शिवराज की लोकप्रियता के लिए तथा संशय मौजूदा विधायकों की गिरती छवि का।  वर्तमान में इस क्षेत्र की 34 विधानसभा सीटों में से 17 पर भाजपा तो 13 पर कांग्रेस का कब्जा है। चार सीटें बहुजन समाज पार्टी के पास हैं। बसपा अपने मौजूदा विधायकों को दोहराएगी तो भाजपा ने क्षेत्र में कुछ प्रत्याशियों को बदल दिया है। जिससे असंतोष है। चंबल संभाग में ही श्योपुर जिले की दोनों सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। विजयपुर से कांग्रेस के दिग्गज नेता रामनिवास रावत और भाजपा के सीताराम आदिवासी के बीच जीत हार का अंतर कोई बहुत अधिक नहीं था उन्हें शिकस्त देने के लिए भाजपा इस बार दमदार प्रत्याशी उतारने के मूड में है। कमोवेश यही स्थिति पड़ौसी जिला मुरैना की है। पिछले चुनाव में जिले की सबलगढ़ सीट  पर कांग्रेस के सुरेश चौधरी ने भाजपा के मेहरबान सिंह रावत को 9041 वोटों से हराया था। वहीं सुमावली में भाजपा ने नए चेहरे के रूप में सत्यपाल सिंह को टिकिट दिया है। संभाग के एक अन्य जिले में भिंड की पांच सीटों में एक सीट बसपा के पास तो शेष पर कांग्रेस, भाजपा बराबर स्थिति में हैं। यहां अटेर से भाजपा के अरविंद सिंह भदौरिया ने पूर्व गृह मंत्री कांग्रेस के सत्यदेव कटारे को साढ़े 18 सौ मतों से शिकस्त दी थी। बीते पांच सालों के दौरान श्री  कटारे ने इस सीट को पुन: हॉसिल करने के लिए कड़ी मेहनत की है। तो भिंड से विजयी रहे कांग्रेस के चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी ने विधानसभा के अंतिम सत्र में पाला बदल कर भाजपा का दामन थाम लिया है। इस सौदेबाजी से क्षेत्र की जनता उनसे नाराज है। कांग्रेस उन्हें सबक सिखाना चाहती है। पिछली बार इस सीट पर मुख्य मुकाबला कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के बीच रहा था। समाजवादी पार्टी इस बार भी इस सीट पर चुनाव लड़ सकती है। जिले की एक अन्य सीट पर कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व मंत्री डॉ गोविंद सिंह अब भी अन्य दलों पर भारी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इस क्षेत्र में भितरघात हो सकता है क्योंकि नजदीक ही गोहद में पूर्व मंत्री लालसिंह आर्य को टिकिट दिया गया है जबकि वे डेढ़ हजार वोटों से हार गए थे।
चुनावी रंग फीका
चुनाव आयोग द्वारा प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही राज्य में सियासत का रंग कमजोर पडऩे लगा है। अब सड़कों पर दौड़ती इक्का-दुक्का गाडिय़ों पर ही पार्टियों के झंडे नजर आ रहे हैं, जबकि हर तरफ नजर आने वाले नेताओं और राजनीतिज्ञों के बड़े से लेकर छोटे होर्डिग और बैनर गायब हैं। कमोवेश यही स्थिति ग्वालियर- चंबल संभाग की है। चुनाव की तारीख की घोषणा होने के साथ राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू कर दी गई है। इसके बाद से राज्य में सरकारी मशीनरी की सक्रियता बढ़ गई है। राजधानी भोपाल से लेकर गांव की गलियों तक में लगे राजनीतिक दलों से जुड़ी हस्तियों की तस्वीरों और बैनरों को हटा दिया गया है। राज्य में आचार संहिता लगने से पहले की स्थिति पर गौर करें तो अधिकांश सड़कें और गलियां नेताओं की तस्वीरों से लेकर सरकार की योजनाओं से पटी पड़ी थीं। हर तरफ राजनेताओं की तस्वीरों के पोस्टर, होर्डिग ही नजर आते थे। कार्यकर्ता अपने नेता को खुश करने के लिए उनकी तस्वीरों और पार्टियों के बड़े-बड़े होर्डिग आए दिन लगाते थे। इससे सबसे ज्यादा परेशानी उन कंपनियों को होती थी, जो अपनी योजनाओं के जरिए ग्राहकों को लुभाने के लिए शहर में होर्डिग लगाते हैं। क्योंकि इन निजी कंपनियों के विज्ञापन होर्डिग के ऊपर हर बार किसी न किसी राजनीतिक दल का पोस्टर चस्पां मिलता था। अब राजधानी भोपाल की सड़कें हो या राज्य के दूसरे प्रमुख शहरों की सड़कें, सभी जगहों से शनिवार को राजनीतिक दलों और नेताओं के पोस्टर, होर्डिग व बैनर गायब दिखे। इतना ही नहीं बिजली के खंभे और सड़क डिवाइडर भी अब पोस्टर रहित और साफ सुथरे नजर आ रहे हैं। अब हाल यह है कि कोई भी राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ता अब सड़क पर होर्डिग, बैनर आदि लगाने से कतरा रहे हैं। चुनाव आयोग की सख्ती अब सभी जान चुके हैं। आचार संहिता के बाद राजनीतिक दलों और नेताओं का अंदाज बदला नजर आता है। सभी को डर रहता है कि कहीं उनके किसी कदम को चुनाव आयोग विधि के विरुद्घ न मान ले। इतना ही नहीं प्रचार का खर्च पार्टी के खाते में जुडऩे का भी भय रहता है।
बुंदेलखंड में दोनों पार्टियों का जोर
बुंदेलखंड में उत्तरप्रदेश में सत्तासीन पार्टी का प्रभाव रहता है, किंतु इस बार नरेंद्र मोदी ने जब से झांसी में सभा ली है इस क्षेत्र में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच हो गया है। राजनैतिक दृष्टि से भी प्रदेश में बुंदेलखंड अपने छोटे स्वरूप के बाद नई सरकारों के गठन में प्रभावशाली भूमिका अदा करता रहा है। मध्यप्रदेश विधानसभा के मौजूदा स्वरूप में बुंदेलखंड की भागीदारी 26 सीटों के साथ महज 12 फीसदी की, लेकिन मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी पंद्रह प्रतिशत से अधिक। नई विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव के लिए राज्य में सत्तारुढ़ दल यदि किसी क्षेत्र में टिकट वितरण को लेकर सर्वाधिक दुविधा में था, तो वह है बुंदेलखंड। कमोवेश यही स्थिति राज्य के दूसरे प्रमुख दल कांग्रेस की भी है। सत्तारुढ़ दल को परायों से ज्यादा अपनों से खतरा है तो कांग्रेस को केंद्र में अपने सहयोगी अन्य दलों से।
बुंदेलखंड के सागर, पन्ना, छतरपुर, दमोह व टीकमगढ जिलों में विधानसभा की महज 26 सीटें पर सैकड़ों दावेदार थे। आगामी चुनाव में सत्तारुढ़ दल को हैट्रिक के लिए जिन 110 सीटों पर खतरा नजर आ रहा है उनमें बुंदेलखंड की अधिकतर सीटें शामिल हैं। फिर वह संभागीय मुख्यालय वाला जिला सागर हो, छतरपुर या टीकमगढ़। दरअसल, भाजपा को इसका अहसास बीते चुनाव के चंद महीनों बाद ही हुए लोकसभा चुनाव में हो गया था। विधानसभा चुनाव की तुलना में इस चुनाव में भाजपा के मतदान प्रतिशत में गिरावट आई। हालांकि बाद के वर्षों में हुए दो उपचुनाव में भाजपा ने जीत दर्ज कर क्षेत्र में अपनी ताकत में इजाफा किया लेकिन उपचुनाव को आमतौर पर सरकार की जीत ही माना जाता है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने क्षेत्र की पंद्रह विधानसभा सीटों पर जीत की पताका फहराई थी। वहीं कांग्रेस को सात सीटों से संतोष करना पड़ा। दो सीटें भाजपा से टूटकर बने दल भारतीय जनशक्ति, एक समाजवादी व एक निर्दलीय के खाते में गई। दरअसल, पिछले चुनाव में भाजपा का गणित बिगाडऩे में पूर्व मुख्यमंत्री उमाभारती के नेतृत्व वाले दल भाजश की अहम भूमिका रही। इस चुनाव में बुंदेलखंड की सभी सीटों पर भाजश ने अपने उम्मीदवार खड़ किए थे। इनमें दो सीटें खरगापुर और बड़ामलहरा पर ही उसे विजय मिली थी। चार सीट पवई, जतारा, टीकमगढ़ और चंदला पर वह दूसरे स्थानों पर रही थी। जबकि एक दर्जन सीटों पर इस दल के  उम्मीदवार तीसरे स्थानों पर रहे थे। बदले राजनैतिक परिदृश्य में भाजश का भाजपा में विलय हुआ और सुश्री भारती प्रदेश की राजनीति से दूर हो कर भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बन गई, लेकिन मुख्यमंत्री पद खोने की टीस उनमें अब भी है। इसका इजहार उन्होंने हाल ही में राजधानी में आयोजित भाजपा के महाकुंभ में किया। सुश्री भारती भले ही प्रदेश की राजनीति से फिलहाल दूर हों, लेकिन बुंदेलखंड में उनके प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर भाजपा से जीत कर आए विधायकों में अधिकतर की हालत संतोषजनक नहीं है। इधर, उमा भारती को भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद अब पूरे बुंदेलखंड में उमा समर्थकों के बीच विधानसभा चुनाव को लेकर टिकट का घमासान मचा हुआ है। उमा फैक्टर बुंदेलखंड में भाजपा को भारी नुकसान और भारी फायदा दोनों पहुंचा सकता है। उमा का कोपभवन में जाना भाजपा को भारी पड़ सकता है। उमा की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि क्षेत्र के कई दिग्गज मंत्री अपने क्षेत्रों में उमा की ज्यादा से ज्यादा सभाएं करवाने के लिए लालायित हैं और वे भी जो विरोधी थे लोधी वोटों के कारण उमा भारती की चरणवंदना करते नजर आ रहे हैं।
बुंदेलखंड पैकेज बनेगा मुद्दा
बेरोजगारी बुंदेलखंड की प्रमुख समस्या है। जानकारों के अनुसार, बुंदेलखंड की भौगोलिक स्थिति के कारण यहां की जमीन में पानी संग्रहण की क्षमता अपेक्षाकृत कम है। इसके चलते भरपूर बारिश के बाद क्षेत्र के कुछ जिलों में आमतौर पर सूखे के हालात हर साल पैदा होते हैं। इनमें टीकमगढ़, पन्ना व छतरपुर आदि प्रमुख हैं। सूखे के कारण इन जिलों में अनाज की उपज भी प्रभावित होती है। पानी की कमी के कारण यहां कल कारखानों की संख्या भी गिनी चुनी है। नतीजतन,   रोजगार का संकट यहां बना रहता है। रोजगार के अवसर न होने से यहां के हजारों परिवार हर वर्ष अपना पेट भरने के लिए पलायन को मजबूर होते हैं। सूखे के कारण बिजली, पानी भी क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं में गिनी जाती हैं। बुंदेलखंड के हालात सुधारने के लिए केंद्र सरकार की ओर से विशेष आर्थिक पैकेज भी दिया गया है। इससे प्रदेश के उक्त पांचों जिलों में भी विभिन्न विकास कार्य शुरु किए गए, लेकिन यह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। आलम यह है, कि बुंदेलखंड पैकेज के तहत किए जा रहे कार्यों में की गई गड़बड़ी व काम काज की घटिया गुणवत्ता का विरोध स्वयं प्रदेश के ग्रामीण विकास एवं पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव को करना पड़ा। श्री भार्गव सूबे के उन धाकड़ नेताओं में जिनकी छवि एक साफ-सुथरे राजनेता की रही है। गलत मामलों में वह अपनी सरकार का विरोध करने से भी नहीं चूके। अपने क्षेत्र के मतदाताओं से पूरे समय जीवित संपर्क ही उनकी सबसे बड़ी खूबी है। इसके चलते विपक्षी  भी उनका लोहा मानते रहे हैं। बुंदेलखंड विशेष पैकेज के तहत हुई गड़बड़ी को विपक्ष इस क्षेत्र में चुनावी मुद्दा बना सकता है। हालांकि इस इलाके की समस्याएं राजनीतिक दलों के लिए महज वोट पाने का जरिया भर रहीं है। फिर वह  कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)। दोनों ही दल अपने को बुंदेलखंड का हिमायती होने का ढिंढोरा पीटते रहे हैं, मगर सच्चाई इससे अलग है। चुनाव के मौके पर दावों और वादों की पोटरी खोल दी जाती है, मगर चुनाव के बाद मतदाताओं को निराशा ही हाथ लगी। यही कारण है कि आजादी मिलने के इतने सालों बाद भी इस इलाके के हालात में कोई बहुत अधिक बदलाव नहीं आया।
बघेलखंड में भाजपा की मजबूती
बघेलखंड में भारतीय जनता पार्टी ने टिकिट वितरण में समझदारी दिखाते हुए कांग्रेस को पहले प्रयास में तो पीछे कर दिया है। यदि कांग्रेस ने चमचागिरी के आधार पर टिकिट बांटे तो इस क्षेत्र में भाजपा का एक बार फिर क्लीन स्वीप निश्चित है। हालांकि कुछ असंतोष भी है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने असंतुष्ट नेताओं को पद का लालच देकर साधने की कोशिश की है। उनमें से बहुत से सध भी गए हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों में कुछ राजपरिवार टिकिट वितरण के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। चुनाव के समय भी उनकी सक्रिय भागीदारी देखने में आएगी। वैसे अभी तक जो भी संकेत मिले हैं उनसे तो यही लगता है कि इस क्षेत्र में कांग्रेस तमाम प्रयासों के बावजूद अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर पाई है। अंतिम समय में कांग्रेस कोई कमाल दिखा जाए तो बात अलग है। अन्यथा बघेलखंड में शिवराज की जनआशीर्वाद यात्रा को जो प्रतिसाद मिला है वह भाजपा के लिए संजीवनी बूटी का काम कर रहा है। कुछ पुराने भाजपाई नेता जो कोपभवन में जाकर बैठ गए थे, वे भी फिलहाल शांत हो गए हैं और पार्टी का सहयोग कर रहे हैं। हालांकि क्षेत्र की स्थानीय समस्याओं को लेकर और मौजूदा विधायकों की ढुलमुल कार्यशैली को लेकर जनता के बीच जो असंतोष है उससे भाजपा को रूबरू होना ही पड़ेगा। यह एक बड़ा खतरा भी बन सकता है।
महाकौशल में महान कौशल जरूरी
महाकौशल में भारतीय जनता पार्टी ने पिछले चुनाव में करिश्मा दिखाया था, लेकिन इस बार यह करिश्मा दोहराने के लिए भाजपा को महान कौशल की आवश्यकता पड़ेगी। आठ जिलों में फैले जबलपुर संभाग के इस क्षेत्र में सर्वाधिक राजनीतिक विविधता है। जो राज्य में किसी भी नई सरकार  के गठन में अहम भूमिका अदा करती  हैं। आदिवासी बहुल्य इस क्षेत्र के मतदाताओं का रुझान वक्त के साथ बदलता रहा। इन्होंने कभी कांग्रेस की झोली भरी तो कभी भारतीय जनता पार्टी को सिर-आंखों पर बिठाया।  संस्कारधानी वाले संभागीय मुख्यालय को छोड़ दिया जाए तो शेष जिलों में ज्यादातर प्रतिनिधि चुनाव दर चुनाव बदलते रहे। राज्य के दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों के अलावा अन्य भी इस क्षेत्र में अपना प्रभाव दिखाते रहे हैं।
संख्या के हिसाब से सबसे ज्यादा 38 सीटें जबलपुर संभाग यानी महाकौशल क्षेत्र में हैं। दूसरे नंबर पर इंदौर (मालवा क्षेत्र) संभाग है। वहां 37 सीटें हैं। रीवा संभाग में 30 और ग्वालियर चंबल संभाग में 34 सीटें हैं। सांगर संभाग में 26, भोपाल संभाग में 25, उज्जैन में 29 और होशंगाबाद में कुल 11 सीटें हैं। वर्ष 2003 में तत्कालीन सरकार  विरोधी  लहर से महाकौशल भी अछूता नहीं रहा। मतदाताओं का रुझान कुछ ऐसा बदला कि महाकौशल के बलवूते सरकार बनाने वाली कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। इस क्षेत्र की 45  सीट  (परिसीमन के पहले) में से महज पांच सीटों पर कांग्रेस को संतोष करना पड़ा। इन नतीजों ने कांग्रेस को झकझोर कर रख दिया। बीते चुनाव में हालात बदले और वह इस क्षेत्र में पांच से पंद्रह सीटों तक पहुंच गई। बीते चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी हुई लेकिन महाकौशल के नतीजे उसके लिए चौंकाने वाले थे। परिसीमन में सीटों की संख्या 45 से घट कर 38 न हुई होती तो भाजपा को कुछ और सीटों का नुकसान उठाना पड़ सकता था। दरअसल,प्रदेश के इन दोनों ही प्रमुख दलों का यहां गणित बिगाडऩे में अन्य दलों के प्रत्याशियों की अहम भूमिका रही है। आदिवासी वोट बैंक के सहारे गठित गोंडवाना गणतंत्र पार्टी हो या बसपा । बीते दो तीन चुनावों से इनका गठबंधन भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए परेशानी पैदा करता रहा है। पिछले चुनाव में भी महाकौशल में जीत का अंतर बेहद कम रहा और अन्य दल के ज्यादातर प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहे।  जबलपुर जिले की आठ सीटों में वर्तमान में सात भाजपा के खाते में हैं तो एक कांग्रेस के।

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