चुनावी शंखनाद लेकिन पार्टियों में घमासान
16-Oct-2013 06:30 AM 1234816

मध्यप्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव आयोग ने चुनाव की घोषणा कर दी है। 12 नवंबर से लेकर 4 दिसंबर तक पांचों प्रदेशों की 630 विधानसभा सीट पर भाग्य आजमा रहे प्रत्याशियों की किस्मत वोटिंग मशीन में कैद हो जाएगी और फिर 8 दिसंबर को खुलेंगे बहुप्रतीक्षित नतीजे जो तय करेंगे भारतीय राजनीति की दिशा। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम में मिजोरम को छोड़कर बाकी 4 राज्य ऐसे हैं जिनसे भविष्य की राजनीति का संकेत स्पष्ट मिल सकता है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के जिस संभावित मुकाबले की बात भारतीय राजनीति में चल रही है उसे फाइनल माना जाए तो इन चुनावों को सेमीफाइनल कहना उचित ही होगा। रोचक तथ्य यह है कि राहुल गांधी जिस तरह इन विधानसभा चुनावों में हर निर्णय में पूरी तरह छा गए हैं उसके विपरीत नरेंद्र मोदी प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया से लेकर अन्य प्रक्रियाओं में उतने सक्रिय भागीदार नहीं हैं। बल्कि वे राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका के मद्देनजर इन सारे मसलों से अपने आपको दूर रखे हुए हैं। हालांकि यह भी सच है कि प्रधानमंत्री प्रत्याशी के बतौर मोदी की छाया कहीं न कहीं इन चुनावों में अवश्य पडऩे वाली है।
बहरहाल उत्तरप्रदेश की तरह राहुल गांधी ने भी लगभग सभी चुनावी राज्यों में अपनी दखलंदाजी के द्वारा स्पष्ट संकेत दिया है कि न खाता न बही जो राहुल कहे वही सही। अब चर्चा मध्यप्रदेश की। मध्यप्रदेश की सभी 230 सीटों पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच सीधा मुकाबला है। यहां किसी तीसरी ताकत का अस्तित्व न के बराबर है। बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्रों में और सीमावर्ती क्षेत्रों में बहुजन समाजपार्टी तथा समाजवादी पार्टी जैसे दलों का थोड़ा बहुत हिस्सा तो बनता है लेकिन कांग्रेस के भीतरी समीकरण अब इस हिस्सेदारी में लाभ तलाशने और येन-केन-प्रकारेण मध्यप्रदेश का चुनावी समर जीतने की तैयारी कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों को चुनावों में अपने प्रत्याशियों के चयन के लिए इस बार जितनी मशक्कत करनी पड़ रही है इससे पहले वैसी मशक्कत कम ही देखने को मिली थी। 2003 में भाजपा की लहर थी तो 2008 में जनता भाजपा को एक बार फिर अवसर देने का मन बना चुकी थी, लेकिन इस बार तस्वीर कुछ अलग है। शिवराज सिंह चौहान जनता के मन में स्थापित हो चुके हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के विधायकों और मंत्रियों के प्रति पनपता असंतोष चुनाव से लगभग 50 दिन पहले भाजपा के समक्ष यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया है। जनता शिवराज को तो वोट देना चाहती है, लेकिन उन विधायकों और मंत्रियों की शक्ल भी देखना नहीं चाहती जिन्होंने पिछले पांच वर्ष तक अपना घर भरने के सिवाय कुछ और काम नहीं किया। यह आक्रोश जनता में ही नहीं है बल्कि यह आक्रोश कार्यकर्ताओं में भी समाया हुआ है और यही चिंता का विषय है। भारतीय जनता पार्टी के साथ विडम्बना यह है कि वह तकरीबन 80 से 90 विधायकों का टिकिट काटने का साहस नहीं दिखा सकती। क्योंकि सभी अपने-अपने आकाओं के बल पर प्रदेश के नेतृत्व पर दबाव बनाए हुए हैं। यही सबसे बड़ी कमजोरी है। जिन विधायकों और मंत्रियों से कार्यकर्ता बेतहाशा नाराज है उन्हें टिकिट न देकर दूसरे चेहरों को सामने लाना एक चुनौती है, जिससे आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी को रूबरू होना पड़ेगा। आलम यह है कि एक दर्जन विधायक और करीब 10 मंत्रियों का खुलकर विरोध हो रहा है। कार्यकर्ताओं की नाराजगी संभाले संभल नहीं रही है। कार्यकर्ता ही मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए उकसाता है। परंतु जब कार्यकर्ता भाजपा के मंत्री और विधायक से भारी नाराज हैं तो भला वह भाजपा की मार्केटिंग कैसे करेगा। भाजपा ने अभी तक जो भी सभाएं और चुनावी अभियान चलाएं हैं उनका लक्ष्य जनता न होकर कार्यकर्ता थे। कार्यकर्ताओं को मनाने के लिए बड़े-बड़े सम्मेलन किए गए। उनकी मान मनोव्वल की गई। उन्हें लालच भी दिया गया, लेकिन कार्यकर्ता नाराज हैं और यही सबसे बड़ी चिंता है। मतदाता तो भाजपा के पक्ष में मतदान करना चाहता हैं, परंतु कार्यकर्ता की नाराजगी के कारण मतदाता पार्टी की तरफ कैसे खिंचे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी सभाओं में कहते हैं कि मुझे देखो। लेकिन अंतिम सत्य तो यह है कि मुख्यमंत्री से बार-बार कैसे मिला जाए। मिलना तो वहां के स्थानीय विधायक से ही पड़ेगा। यही भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंता का विषय है। क्योंकि जिन विधायकों पर दांव खेला जाना है उनमें से अधिकांश अपने जेबें भरने में लगे रहे। जनता के मुद्दों को दरकिनार कर दिया और कार्यकर्ताओं को भी नाराज कर दिया। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि प्रभात झा साफ कह रहे हैं कि पार्टी में विधायकों और मंत्रियों के प्रति उपजे असंतोष से वे दुखी हैं। हालांकि नरेंद्र सिंह तोमर कार्यकर्ताओं के असंतोष को खारिज करते हुए कहते हैं कि टिकिट के लिए दावेदारी स्वाभाविक है बाद में सभी समर्थन करने लग जाएंगे, लेकिन ऐसा है नहीं। कार्यकर्ता तख्ती लगाकर विरोध जता रहे हैं। पीडब्ल्यूडी मंत्री नागेंद्र सिंह तो कार्यकर्ताओं के विरोध से इतना घबरा गए कि उन्होंने साफ कह दिया कि वर्तमान दौर में तो युवाओं को मौका दिया जाना चाहिए। संकेत साफ है लंबे समय से जमकर बैठे और घर भर रहे मंत्रियों को कार्यकर्ता दरकिनार कर चुके हैं, लेकिन इन मंत्रियों की लॉबिंग आलाकमान तक इतनी अधिक है कि वे टिकिट पाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इसीलिए इस बात की संभावना कम ही है कि मौजूदा मंत्रियों में से किसी का टिकिट कटेगा। हां यह अलबत्ता हो सकता है कि कार्यकर्ताओं का मूंड भांपकर नागेंद्र सिंह जैसे कुछ मंत्री पहले ही किनारा कर लें, लेकिन यह समझदारी बाकी मंत्री दिखाएंगे इसमें संदेह है। इसी कारण पार्टी का वह क्राइटेरिया भी धराशायी होता नजर आ रहा है जिसमें कभी कहा गया था कि जिसकी जीत का अंतर पिछली बार कम था उसे इस बार टिकिट नहीं दिया जाएगा। ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं। सारे सिद्धांत कचरे की टोकरी में जाते प्रतीत हो रहे हैं। पार्टियां भी चुप्पी साधकर बैठी हुई हैं। इसका कारण यह है कि अंतिम समय में टिकिट पक्के किए जाएंगे ताकि असंतुष्टों को ज्यादा उलटफेर करने का मौका न मिले। विद्रोह को दबाने के लिए राज्यमंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह के विरोध मंडल अध्यक्षों रेपुरा से कैश पटेल और माहोन्द्र से रमेश कुमार पटेल को हटाने का फैसला तो पार्टी ने कर लिया लेकिन उसके बाद कार्यकर्ताओं के तेवर बगावती हो गए। यानि अनुशासन का पाठ भी असंतुष्ट कार्यकर्ता नहीं पढऩा चाहते।
राजनाथ सिंह द्वारा इंदौर, उज्जैन का दौरा अचानक रद्द करने का कारण भी यही अंतर्रकलह थी। कुसमारिया के खिलाफ तो पार्टी कार्यालय में जमकर नारेबाजी हुई। पार्टी सूत्रों के मुताबिक लगभग 100 विधायकों, मंत्रियों के खिलाफ असंतोष खुलकर सामने आया है और इसका इलाज केवल यही है कि ज्यादा से ज्यादा टिकिट बदले जाए। ताकि जनता जो विश्वास शिवराज में दिखाना चाहती है वह दिखा सके। हालांकि मुख्यमंत्री के सर्वेक्षण और इंटेलीजेंस की रिपोर्ट के आधार पर 80 मौजूदा विधायकों को फिर से चुनाव लडऩे का संकेत पार्टी ने दिया है। इससे यह लग रहा है कि ज्यादा टिकिट काटना संभव नहीं है। अधिक से अधिक 40 टिकिट काटे जा सकते हैं। पूर्व प्रदेश सहसंगठन महामंत्री भगवतशरण माथुर ने भी मध्य भारत की 70 सीटों पर अपना सुझाव दिया है तोमर ने संकेत दिया है कि इस सुझाव को ध्यान में रखा जाएगा। लेकिन कार्यकर्ताओं की भावनाओं को भी ध्यान में रखना होगा।
जिन विधायकों, मंत्रियों का प्रमुख रूप से विरोध हो रहा है उनमें सरताज सिंह, गिरिजा शंकर (होशंगाबाद), अलकेश आर्य (बैतूल), मोहन शर्मा (रायगढ़), बाबूलाल वर्मा (कालापीपल), रामदयाल अहिरवार, राधेलाल नानालाल पाटीदार (सुवासरा), नरेंद्र त्रिपाठी (पनागर), रामकृष्ण कुसमारिया, हरिशंकर खटीक, बृजमोहन धूत (खातेगांव विधायक), मोहन शर्मा नरसिंहगढ़, ठाकुर दास नागवंशी पिपरिया, नीना वर्मा, मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह, लोकेंद्र सिंह तोमर (मांधाता-इनका विरोध इनके भाई ने ही किया) सहित कई विधायक और मंत्री शामिल हैं। इसी को देखते हुए पार्टी जिलाध्यक्षों और संगठन मंत्रियों से राय लेने के साथ-साथ सांसदों से भी फीडबैक मांग रही है। 20 अक्टूबर तक दिल्ली में केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक है उससे पहले अधिक से अधिक लोगों से राय ली जा सकती है।  विरोध की आंधी को थामने के लिए प्रभात झा, माखन सिंह, भगवत शरण माथुर, कप्तान सिंह सोलंकी, सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, कैलाश सारंग, मेघराज जैन, रघुनंदन शर्मा और विक्रम वर्मा शामिल हैं। रोचक यह है कि विरोधा थामने वालों का भी विरोध हो रहा है। पटवा और जोशी का विरोध यह कहकर किया जा रहा है कि वे अपने वालों को टिकिट दिलवाते हैं और विक्रम वर्मा को संभावित दावेदार होते हुए विरोध जताया जा रहा है। बाबूलाल गौर कहते हैं कि 50 से 60 टिकिट काटे जाएंगे। हालांकि बाद में वे सुधार करते हुए दोहराते हैं कि 30 से 40 टिकिट काटे जाएंगे। वहीं अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि 30 से अधिक टिकिट काटने की हिम्मत पार्टी जुटा नहीं पा रही है क्योंकि इससे भगदड़ मचने की पूरी संभावना है। ऐसे हालात में भाजपा ने टिकिट वितरण के बाद संभावित नुकसान को नियंत्रित करने के लिए संगठन मंत्रियों और जिलाध्यक्षों को जिम्मेदारी सौंपी है। जिन विधायकों ने 20 हजार या उससे अधिक मतों से जीत दर्ज की थी उनके नाम दशहरे के बाद घोषित किए जाने की योजना भी खटाई में पड़ गई है।
पिछली बार 54 टिकिट बदले गए थे। इस बार 62 टिकिट बदलने की बात आलाकमान तक पहुंची है। इसका अर्थ यह है कि भाजपा ने ए, बी और सी में जिस तरह सीटों का विभाजन किया था उसके अनुसार 75 सीटें ही अब ऐसी हैं जहां पार्टी जीत के बारे में सुनिश्चित है। बाकी सीटें बी और सी श्रेणियों में है। बी का अर्थ है जहां कांग्रेस से कड़ा मुकाबला है और सी का अर्थ है जहां कांग्रेस जीत सकती है या उसका जीतना तय है।

वार रूम मगर हथियारÓ नहीं
इस बार ऐसा माना जा रहा है कि सोशल मीडिया के माध्यम से 45 प्रतिशत मतदातां  अपना मन बदल सकते हैं। इसको देखते हुए प्रेमचंद गुड्डू ने अपना टाप सीक्रेट वार रूम बनाया है। वहीं कैलाश विजयवर्गीय ने इंदौर में वार रूम बनाकर फिर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की कवायद तेज कर दी है। दिग्गज कांग्रेसी नेताओं के बंगलों पर भोपाल और इंदौर में वार रूम तो बन गए हैं, लेकिन राहुल बाबा ने इन नेताओं को निहत्था कर दिया है। बिना हथियार के ये वार रूम कितने कारगर होंगे कहा नहीं जा सकता। चुनाव प्रबंधन समिति के अध्यक्ष अरुण यादव का वार रूम रिवेरा टॉउन स्थित बंगले में है। मीडिया कमेटी के अध्यक्ष प्रेमचंद गुड्डू ने भी यहीं अपने निवास पर वार रूम बना लिया है। कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष मोहम्मद सलीम ने भी ईदगाह हिल्स में अपने आवास में वार रूम बना लिया है और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने इंदौर स्थित बंगले पर वार रूम बनाया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पीसीसी में दफ्तर तो खोला है लेकिन काम ग्वालियर और दिल्ली से चला रहे हैं। सोशल मीडिया में फेसबुक पर ज्योतिरादित्य 1 लाख 8 हजार 27 लाइक के साथ लागे हैं। तो शिवराज को भी 53 हजार 944 लाइक मिली हैं। ट्विटर पर शिवराज 1 लाख 9 हजार 822 फालोअर्स के साथ आगे हैं वहीं ज्योतिरादित्य के मात्र 616 फालोअर्स हैं। दिग्विजय सिंह के 97 हजार 700 फालोअर्स हैं।

कांग्रेस में भी अंतर कलह
कांग्रेस अपनी असाध्य बीमारी गुटबाजी और भाई-भतीजावाद से मध्यप्रदेश में भी पीडि़त है। सांसदों के विरोध के कारण कांग्रेस में टिकिट को लेकर अभी भी संशय कायम है। दिग्विजय सिंह ने जो तुरुप की चाल चली है उसके आगे कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया धराशायी हो गए हैं। दरअसल स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की मौजूदगी पर सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद्र गुड्डू, अरुण यादव, गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी, मीनाक्षी नटराजन और राव उदयप्रताप सिंह ने आपत्ति जताते हुए सोनिया तथा राहुल गांधी को ईमेल भेजकर मिलने का समय मांगा था यह मुलाकात नहीं हो सकी। ईमेल का जवाब आया कि मामला वहीं सुलझा लिया जाए। हालांकि स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक से इन दोनों के अलावा सुरेश पचौरी को बाहर रखकर सोनिया और राहुल ने कड़ा संदेश दिया, लेकिन इससे यह साफ हो गया कि दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं की उपेक्षा करके जिस तरह के फैसले कांग्रेस में किए जा रहे थे उन्हें बर्दाश्त नहीं किया गया। दिग्विजय सिंह की खासियत यह है कि वे आम जनता में भले ही लोकप्रिय न हों, लेकिन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के बीच अभी भी उनका अच्छा-खासा रुतबा है और यह भी एक अकाट्य सत्य है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जितवाने या हरवाने का दम-खम किसी नेता में है तो वह दिग्विजय सिंह में है। अब स्क्रीनिंग कमेटी के विवाद के बाद कांग्रेस में कहा जा रहा है कि भाजपा की सूची के बाद कांग्रेस की सूची जारी होगी, लेकिन सारा मामला अंतर्कलह का है। पहले 82 नाम करीब-करीब तय हो चुके थे, जिनमें अधिकांश वर्तमान विधायक और पिछला चुनाव एक हजार से कम मतों से हारे प्रत्याशी थे, लेकिन बाद में इस पर भी गुटबाजी और विरोध शुरू हो गया, जिसके चलते अब स्थिति और पेंचीदा हो गई है।
गुटबाजी की समस्या का समाधान तलाशना कांग्रेस में संभव नहीं है। जो बाहर साथ दिखता है वह भीतर से भी साथ है ऐसा कहना संभव नहीं है। कई बार कुछ नेताओं के साथ दूसरे लोग भी जुड़ जाते हैं, लेकिन वे सब व्यवहार निभा रहे होते हैं। लगता है कि मध्यप्रदेश में शीर्ष नेता चाहते ही नहीं है कि कांग्रेस चुनाव जीते। ऊपरी स्तर पर सिर फुटव्वल जारी है। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण यादव, सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद्र गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन का प्रदेश में क्या वजूद है। यह सब केवल लोकसभा चुनाव जीतें हैं। अगर ये जादूगर होते तो अपनी-अपनी विधानसभा भी जिताकर लाते। ज्योतिरादित्य के संसदीय क्षेत्र गुना-शिवपुरी से एक भी विधानसभा सीट नहीं जिता पाए। पिछोर से केपी सिंह अपने बलबूते पर चुनाव जीते वहीं मूलसिंह की जीत दिग्विजय सिंह के खाते में जाती है। कमलनाथ अपने संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा से आठ में से केवल तीन सीट ही जिताने में कामयाब हो सके।
इसीलिए राहुल गांधी ने सारी कमान अपने हाथों में ले ली है और वह अपनी टीम के सर्वे और खुद के विवेक से टिकिट बांटेंगे। उन्होंने प्रदेश के सभी बड़े नेताओं की सिट्टी-पिट्टी गुल कर दी है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी को तो प्रमोद गोगलिया, प्रवीण कक्कड़, रवि जोशी, शांतिलाल पडियार और इन सबका व्यवस्थापक राजू भाटी जैसे नेता ्रचला रहे हैं। अब जाकर महेश जोशी और नीखरा जैसे लोगों की पूछ-परख बढ़ी है। कांग्रेस में टिकट को लेकर जिस तरह का घमासान मचा हुआ है उसको देखते हुए लगता है कि तीन-चार नवम्बर के पहले किसी को भी फार्म बी नहीं दिया जाएगा। इसका मतलब साफ है कि किसी सीट पक्की नहीं है। चुनाव अभियान समिति की भूमिका शून्य हो गई है। कुछेक टिकिट दिग्गजों के कहने पर अवश्य मिलेंगे, लेकिन उनमें भी ज्यादातर बेटे, बेटियां, भाई-भतीजे, पोते शामिल हंै। गंगा बाई उरेती अपनी दो बेटियों कृष्णा और दया मेें से किसी एक को टिकिट दिलाना चाहती हैं, कांतिलाल भूरिया अपने बेटे विक्रांत को टिकट दिलाना चाहते हैं, तो कमलनाथ के पुत्र नकुल, दिग्विजय सिंह के सुपुत्र जयवर्धन सिंह, हरवंश सिंह के पुत्र रजनीश, सत्यव्रत चतुर्वेदी के पुत्र नितिन, हजारीलाल रघवुंशी के पुत्र ओम रघुवंशी, प्रेमचंद्र गुड्डू के पुत्र अजीत बोरासी, सज्जन सिंह वर्मा के पुत्र पवन वर्मा, इंद्रजीत पटेल के पुत्र कमलेश्वर पटेल, प्रभुदयाल गेहलोत के पुत्र हर्ष गहलोत लाइन में हैं। वहीं हिमाचल की राज्यपाल उर्मिला सिंह अपने पुत्र को टिकट दिलाना चाहती हैं। महिला कांग्रेस अपनी दो दर्जन महिलाओं की दावेदारी तय मान रही है। इसी तरह यूथ कांग्रेस भी 20 से 25 युवाओं को टिकट दिलाने के लिए प्रयासरत है। उधर विजयलक्ष्मी साधों अपने भाई को टिकिट दिलवाने के लिए प्रयासरत हैं।

भ्रष्टाचार का ट्रिपल-टी
कांग्रेस ने सत्ता परिवर्तन यात्रा के माध्यम से एकता प्रकट करने का प्रयास किया है। अधिकतर सभाओं में प्राय: सभी नेता एक मंच पर रहते हैं और मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि हम सब एक हैं। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ट्रिपल-टी से भ्रष्टाचार कर रही है। इसमें ट्रक, ट्रस्ट और टिम्बर का उपयोग किया जा रहा है। सिंधिया अधिकांश सभाओं में विकास की बात करते हैं और आरोप लगाते हैं कि विकास में मध्यप्रदेश पिछड़ गया है। उधर, दिग्विजय सिंह ने विकास के मसले पर शिवराज सिंह को शास्त्रार्थ की चुनौती दी है। लेकिन कांग्रेसी रैलियों में भी गुटबाजी जमकर देखने को मिली है। इसकी झलक उन नारों में देखी जा सकती है जो अपने पसंदीदा नेताओं के समर्थन में कार्यकर्ताओं द्वारा लगवाए जाते हैं।

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