04-Feb-2013 11:22 AM
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महाराष्ट्र की राजनीति में प्रमुख स्थान रखने वाली शिव सेना की बागडोर औपचारिक रूप से उद्धव ठाकरे के हाथ में आ गयी है। शिवसेना भवन में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसमत्ति के साथ उद्धव ठाकरे को पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त किया गया। पार्टी ने पहले से ही उद्धव ठाकरे की ताजपोशी के लिए बाला साहब के जन्मदिन को चुना था। बाला साहब के 87वें जन्मदिन पर उद्धव ठाकरे की पार्टी अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी की गई। शिवसेना के कार्यकारिणी की बैठक में तकरीबन 200 से ज्यादा पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। जिसमें राज्य प्रमुख, सांसद, जिला प्रमुख समेत पार्टी के कार्यकर्ता शामिल थे। शिवसेना प्रमुख और दिवंगत नेता बाला साहब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे ने पहले ही घोषणा की थी कि भले ही वो पार्टी के अध्यक्ष चुने जा रहे हो लेकिन शिवसेना प्रमुख का ताज हमेशा बाला साहब के सर पर ही होगा। कहने का मतलब यह है कि पार्टी की कमान संभालने के बाद भी उद्धव ठाकरे शिवसेना प्रमुख नहीं कहलाए जाएंगे। ये निर्णय उद्धव ठाकरे ने खुद अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के सम्मान में लिया था। शिवसेना की इस कार्यकारिणी बैठक में उद्धव ठाकरे के साथ-साथ उनके बेटे आदित्य ठाकरे की भी जिम्मेदारियां बढ़ाई गई। आदित्य को शिवसेना के युवा मोर्चे की कमान दी गई है। आदित्य ठाकरे को ये जिम्मेदारी देने के साथ ही उन्हें पार्टी की मुख्यधारा के साथ जोड़ दिया गया है। आदित्य को युवा कमान देने के पीछे शिवसेना की महत्वकांक्षा है कि शिवसेना की पहचान युवा पार्टी के तौर पर बनी। उनका सोचना है कि जिस तरह बाला साहब के एक हुंकार पर हजारों युवा सड़क पर उतर जाते थे ठीक उसी तरह आदित्य भी युवाओं का नेतृत्व कर उन्हें पार्टी से जोड़े रखें।
शिवसेना सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे की मृत्यु के बाद पार्टी को चुनौतियों का सामना करना है। जिसके लिए बाला साहेब के जन्मदिन 23 जनवरी को आने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी को ध्यान में रखकर बदलाव किया गया। हालाँकि यह बदलाव सेना की कार्य शैली के अनुरूप ही है क्योंकि सेना ठाकरे परिवार के लिए ही सर्वोच्च पद सुरक्षित रहते हैं इसीलिये जो भी सेना की राजनीति जुड़ता है वह यह मानकर चलता है की उसे ठाकरे वंश की छत्रछाया में ही कम करना होगा। हालाँकि अब यह प्रश्न भी खड़ा हो गया है कि उद्धव ठाकरे अपने पिता की तरह किंग मेकर ही बने रहेंगे या वे स्वयं किंग बनना पसंद करेंगे। क्योंकि बाला साहब ने अपने जीवनकाल में कभी सरकार में कोई पद नहीं लिया। वे सरे पदों से ऊपर थे। ठाकरे परिवार के वंशज भी इसी नक्शे कदम पर चलेंगे या नहीं यह देखना जरूरी है। फिलहाल उद्धव ने इस बात का कोई संकेत नहीं दिया है कि वे पर्याप्त सीटें मिलने की स्थिति में सत्ता में आने पर अपने पिता की तरह ही रहेंगे इस प्रश्न पर प्रतिक्रिया देते उद्धव ने हुए कहा था कि मैं बालासाहेब का बेटा हूं और उन्होने अपने प्रयासों से पार्टी को यहां तक पहुंचाया है। अब मैं पार्टी को आगे ले जाने के लिए तैयार हूं। उद्धव ने यह भी कहा कि कुछ लोग ऐसा कह रहे हैं कि शिवसेना का समय अब खत्म हो चुका है लेकिन हम पार्टी को अगले स्तर तक ले जाने के लिए तैयार हैं। उनका कहना है कि हमने पाकिस्तान के सैनिकों द्वारा दो भारतीय सैनिकों की बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाई जिसके कारण ही हॉकी इंडिया लीग में खेल रहे पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को वापस भेज दिया गया। 27 जुलाई 1960 को मुंबई में जन्मे उद्धव ठाकरे को राजनीति

विरासत में मिली। राजनीति में आने के पहले उद्धव ठाकरे शिवसेना के मुखपत्र सामना में अहम जिम्मेदारी संभाल रहे थे। उद्धव के सियासी सफर की शुरुआत 2002 में हुई जब मुंबई नगरपालिका के चुनाव में उद्धव ने सक्रिय भूमिका निभाई। इस चुनाव में शिवसेना को जीत मिली और इसके बाद 2003 में उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। नारायण राणे और राज ठाकरे से उद्धव के मतभेद भी रहे। इन मतभेदों के बाद नारायण राणे को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, जबकि उनके चचेरे भाई राज ठाकरे ने 2006 में शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया। बहरहाल, बाल ठाकरे की आदमकद छवि के बरख्स उद्धव को न सिर्फ अपने सियासी कौशल को साबित करना होगा, बल्कि उनके सामने शिवसेना को आगे बढ़ाने की चुनौती भी होगी। याद रहे, ये वही शिवसेना है जिसकी कमान बाल ठाकरे जैसे लार्जर दैन लाइफ इमेज वाले नेता के हाथों में थी, जिनके इशारे पर मुंबई थम जाया करती थी। लेकिन उद्धव में वह करिश्मा नहीं है। न ही राज ठाकरे उतने करिश्माई हैं। हालाँकि उद्धव के मुकाबले वे ज्यादा आक्रामक हैं। किन्तु केवल आक्रामकता से काम नहीं चलने वाला। जहाँ तक उद्धव का सवाल है उनके सामने कई चुनौतियां हैं शिवसेना की विभिन्न इकाइयों में आंतरिक कलह सामने आई है, जिससे निपटने के लिए उन्हें अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। बाला साहब की मृत्यु के बाद शिवसेना के प्रति मतदाताओं का विश्वास भी डगमगाया है क्योंकि सेना समर्थक उद्धव को उतना काबिल नहीं मानते हैं इसी कारण सेना की ताकत में कमी और जनाधार का खिसकना अवश्यम्भावी है। सेना के प्रभाव क्षेत्र में भी कमी आ सकती है। अभी तक समूचे महाराष्ट्र से शिव सेना को वोट मिलते रहे हैं लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। पर सवाल वही है कि ये वोट अब किसकी तरफ झुकेंगे। जो मतदाता सेना को वोट करते हैं वे क्षेत्रीय राजनीति को प्राथमिकता देने वाले हैं इसी कारण उनके वोट राज ठाकरे और शरद पवार में बंट जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
-धर्मेन्द्र कथूरिया