06-Nov-2013 05:58 AM
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छत्तीसगढ़ में चुनाव-प्रचार अब अंतिम चरण में है और इसके साथ ही जातिवादी राजनीति का खेल शुरू हो गया है। जिसमें आदिवासियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। उधर सतनामी वोट भी भारतीय जनता पार्टी के लिए सरदर्द बनते जा रहे

हैं। सतनामियों ने आरक्षण की मांग को लेकर कभी बड़ा भारी आंदोलन खड़ा किया था अब कांग्रेस सतनामियों के इस असंतोष को भुनाना चाहती है। आदिवासी और सतनामी ये दो समुदाय ऐसे हैं जिनके वोट में पांच-दस प्रतिशत का स्विंग छत्तीसगढ़ के चुनावी परिणामों को बदलकर रख देगा। आदिवासियों के सर्वमान्य नेतृत्व का छत्तीसगढ़ में अभाव है। सर्वमान्य का अर्थ है वैसा नेता जो पार्टी और पार्टी के बाहर दोनों जगह स्वीकार्य हो। दरअसल अजित जोगी इस परिभाषा पर एक जमाने में फिट बैठते थे, लेकिन बदलते वक्त के साथ पार्टी के भीतर वे आप्रासंगिक हो गए। हालांकि कार्यकर्ताओं में उनकी उपयोगिता अभी भी बनी हुई है, लेकिन महज कार्यकर्ताओं में उपयोगिता बनी होने से काम नहीं चलता। पार्टी को भी स्वीकार्य होना चाहिए। जोगी के पार्टी के भीतर बहुत प्रबल विरोधी हैं जो यह मानते हैं कि जोगी ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का कबाड़ा कर दिया। कांग्रेस की एकमात्र उपलब्धि यह है कि उसने जोगी के असंतोष को कुछ हद तक थाम के रखने में सफलता प्राप्त की है। इसलिए जोगी जो नुकसान पार्टी का कर सकते थे वह शायद अब न करें। लेकिन महेंद्र कर्मा की हत्या के बाद अब शायद ही कोई नेता जोगी के मुकाबले कांग्रेस में प्रभावी बन सकेगा। इसलिए आदिवासी नेतृत्व का छत्तीसगढ़ में दोनों पार्टियों में अभाव है। भारतीय जनता पार्टी में भी यही स्थिति है। कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो मुख्यमंत्री बनने की काबिलियत रखता हो। इसी कारण कुछ स्थानीय मुद्दे आदिवासियों का वोट तय करेंगे। जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति कमोबेश वही है जो मध्यप्रदेश में है। दोनों राज्यों में भाजपा वन-मैन शो है। मध्यप्रदेश में जहां शिवराज है वहीं छत्तीसगढ़ में रमन हैं। अन्य मंत्रियों और विधायकों की छत्तीसगढ़ में बहुत खराब छवि है। लगभग आधे विधायकों के प्रति राज्य में भयानक असंतोष है और इन आधी सीटों को बदलना न तो रमन सिंह के बस में है और न ही राज्य भारतीय जनता पार्टी में इतनी ताकत है कि वह कोई बदलाव कर सके। लेकिन दिक्कत यह है कांग्रेस इस जनाक्रोश को वोट में बदलने की स्थिति में दिखाई नहीं दे रही। राहुल गांधी इस रुझान को समझ रहे हैं। इसलिए वे अब छत्तीसगढ़ में नए प्रयोग पर उतारू हो गए हैं। हाल ही में उन्होंने जगदलपुर में एक नौजवान आदिवासी सामू कश्यप को टिकिट देने का फैसला किया। जगदलपुर में सामू के महारा समाज के 45 हजार वोटर हैं। इसाइयों का समर्थन भी उन्हें प्राप्त है। इसी कारण सामू का चयन करके राहुल ने बस्तर की दूसरी विधानसभाओं में महारा समाज के वोट साधने की कोशिश की है। राहुल के इस कदम का जवाब भाजपा के पास नहीं है क्योंकि भाजपा में बस्तर राज परिवार के कमलचंद भंजदेव ने हाल ही में भाजपा में

प्रवेश किया है। राहुल द्वारा सामू कश्यप का नाम सामने लाना भाजपा के इस कदम का सांकेतिक विरोध भी है-राजा के मुकाबले प्रजा। लेकिन यह प्रयोग कितना सफल हो पाएगा कहा नहीं जा सकता क्योंकि कांग्रेस में टांग खींचने वालों की कमी नहीं है और सामू का नाम न तो जिला कांग्रेस की पैनल में था और न ही प्रदेश कांग्रेस की। यदि छत्तीसगढ़ में इसी तरह का माहौल रहा तो टांग खींचा जाना स्वाभाविक है। जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा।
पिछले दो चुनाव की तरह ही इस बार भी जिस पार्टी ने आदिवासी वोट बैंक को साध लिया, उसी के पास सत्ता की चाबी रहेगी। खासकर बस्तर पर फोकस अधिक है। बस्तर के बाद सरगुजा के आदिवासी सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाएंगे। इसका कारण साफ है। बस्तर और सरगुजा को छोड़ दें तो राज्य के मैदानी इलाके में भाजपा और कांग्रेस के बीच बराबरी का मुकाबला है। पूरे चुनाव में ओबीसी और अनुसूचित जाति का समीकरण भी अपनी जगह काम करेगा। पर इसमें एकतरफा पकड़ किसी भी पार्टी की नहीं है। राज्य गठन के बाद हुए अब तक के दोनों चुनावों में आदिवासी बस्तर और सरगुजा क्षेत्र में स्पष्ट बढ़त के साथ भाजपा ने सरकार बनाई। कभी कांग्रेस के साथ रहे आदिवासियों ने दोनों चुनावों में भाजपा को बढ़त दिलाई। उसमें भी बस्तर में भाजपा को एकतरफा समर्थन मिला। वहां की 12 में से 11 सीटों पर भाजपा के विधायक चुने गए। सरगुजा की 14 में से 9 सीटों पर भाजपा को सफलता मिली। आदिवासी परंपरागत रूप से कांग्रेस के वोटर माने जाते रहे हैं लेकिन पिछले दो चुनावों में भाजपा ने उन्हें अपने पक्ष में कर लिया। आरोप-प्रत्यारोप और विकास के दावों के साथ आदिवासी वोट बैंक को रिझाने का खेल चरम पर चल रहा है। छत्तीसगढ़ भौगोलिक दृष्टि से तीन भागों में बंटा हुआ है। दक्षिण में बस्तर का इलाका है और उत्तर में सरगुजा का। बीच में मैदानी इलाका है जिसमें रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग क्षेत्र हैं। राजनीतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो यही तीन प्रमुख क्षेत्र बनते हैं। राजनीतिक दलों का जोड़-तोड़ और प्रत्याशी तय करने की कवायद भी इसी आधार पर होती है। राज्य की 29 आदिवासी सीटों में से भाजपा के पास 19 सीटें हैं और कांग्रेस के पास 10 सीटें। कांग्रेस को मैदानी इलाके की आदिवासी सीटों पर अधिक सफलता मिली। पिछले चुनाव के आधार पर देखा जाए तो दो तरह के परिणाम सामने आए थे। बस्तर में भाजपा कांग्रेस को एकतरफा पटखनी देते हुए वहां से 11 विधायक जिता लाई तो कांग्रेस ने इसके विपरीत महासमुंद और धमतरी जिले में भाजपा का सफाया कर दिया था। दोनों जिलों में एक भी सीट भाजपा के खाते में नहीं आ पाई। यही वजह है कि पिछले छह महीने से भाजपा महासमुंद और धमतरी में अपने लिए बेहतर संभावना बनाने काम कर रही है, वहीं कांग्रेस बस्तर में लगातार सभाएं कर आदिवासी वोट बैंक को वापस पाने का प्रयास करती दिखी। यानी दोनों तरफ एक दूसरे से सीटें झटकने की कोशिश हो रही है। बस्तर से भाजपा को कुछ नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई वह महासमुंद और धमतरी से करना चाहती है।
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने जय सतनाम और साहेब बंदगी के नारों के साथ जब जोगी एक्सप्रेस चलाने का ऐलान किया था तब ऐसा लग रहा था कि राज्य में सतनामी वोटों का धु्रवीकरण सत्ता का गणित बिगाड़ सकता है। पर बाद में कांग्रेस ने जोगी की नाराजगी को दूर करने का प्रयास किया और बगावत को रोक लिया। ऐसे में अब यह बात फिर भी महत्वपूर्ण होगी कि एससी वोटों का समर्थन किस तरफ जाता है। वर्तमान में बसपा के खाते मं दो सीटें हैं पर इनमें से एक सीट सामान्य है। ऐन चुनाव के पहले बसपा विधायक सौरभ सिंह ने कांग्रेस प्रवेश कर लिया है। एससी वर्ग का आरक्षण का प्रतिशत कम करने का मामला कितना प्रभाव डालेगा यह भी देखना होगा। फिलहाल एससी सीटों में से पांच भाजपा और चार कांग्रेस के खाते में हैं। बसपा के पास एक सीट है। जहां तक ओबीसी वर्ग की बात है तो इस पर किसी की एकतरफा पकड़ नहीं है। मसलन साहू समाज के 11 विधायकों में से छह भाजपा के और पांच कांग्रेस के हैं। वैसे पिछले चुनाव में कांग्रेस और भाजपा ने साहू समाज के कुल 18 लोगों को टिकट दिया था। एंटी-इनकम्बेंसी (सत्ता का विरोध) जैसे स्वाभाविक तथ्य के अलावा बीजेपी को खारिज करने की कोई ठोस वजह भी दिखाई नहीं दे रही है। यानी, न तो बीजेपी के पास गिनाने को बड़ी

उपलब्धि है और न ही कांग्रेस के पास बीजेपी की बड़ी नाकामियां। यही वजह है कि अब तक चुनाव आरक्षण, भ्रष्टाचार और बेलगाम नौकरशाही जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई पड़ रहा है। देखना यह होगा कि झीरम घाटी की नक्सली हिंसा को कांग्रेस कितना बड़ा चुनावी मुद्दा बनाती है। इस घटना में कांग्रेस ने अपने कद्दावर नेता नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ला और उदय मुदलियार को खोया है। कांग्रेस के छोटे कार्यकर्ताओं में तो सत्ता हासिल करने की छटपटाहट दिखाई पड़ रही है, लेकिन बड़े नेता आपसी सिर फुटौव्वल से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। यही वजह है कि पिछले दो-तीन महीनों में कांग्रेस के बड़े नेताओं का ज्यादा वक्त मैदान के बजाए दिल्ली दरबार के चक्कर काटते गुजरा है।
जनता में भ्रष्टाचार को लेकर भी नाराजगी है। आम चर्चा है कि छोटे-मोटे बीजेपी कार्यकर्ता जो आज से पांच-सात साल पहले तक आर्थिक रूप से कमजोर थे, सत्ता के जरिए खूब पैसा बनाने में कामयाब हो गए हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं और छुटभैये नेताओं से न केवल जनता बल्कि खुद पार्टी का एक बड़ा धड़ा भी नाराज है। यही वजह है कि हर बार की अपेक्षा इस बार मौजूदा विधायकों के खिलाफ गुस्सा ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। अब बीजेपी के लिए सांप-छछुंदर जैसे हालात हो गए हैं। टिकट काटने पर भितरघात का डर और देने पर जनता की नाराजगी सामने आने का खतरा। वैसे तो बेलगाम और सरकार पर हावी नौकरशाही भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा हो सकती है, लेकिन लचर कांग्रेस इसे जनता के बीच ठीक से ले जा पाएगी, इसमें फिलहाल तो संदेह ही दिखाई पड़ रहा है। 90 विधायकों वाली छोटी विधानसभा में सिर्फ तीन-चार सीटों पर हार-जीत ही पूरा चुनावी गणित बदल सकता है। अगर पिछले चुनाव की ही बात करें तो कांग्रेस के चर्चित चेहरे- तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा (सिर्फ 700 वोट से), भूपेश बघेल, सत्यनारायण शर्मा चुनाव हार गए थे। इस वजह से भी बीजेपी की सत्ता वापसी की राह आसान हुई थी।
करुणा ने पार्टी छोड़ी
वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की भांजी और छत्तीसगढ़ की नेता करुणा शुक्ला ने भाजपा छोड़ दी। दरअसल, करुणा शुक्ला बेलतारा से विधानसभा का टिक चाहती थीं। टिकट नहीं मिलने से वे नाराज थीं। समझा जाता है कि इसी नाराजी के चलते उन्होंने पार्टी छोडऩे का फैसला किया।