लालू के बिना बिहार की राजनीति
16-Oct-2013 06:25 AM 1234761

लालू यादव अंतत: पांच वर्ष के लिए चारा घोटाले में जेल भेज दिए गए। जेल भेजने वाले जज ने कहा कि भ्रष्टाचार सर्वव्यापी हो गया है। निश्चित रूप से जज की चिंता जायज थी और जिस अंदाज में 90 के दशक में चारा घोटाला हुआ उसे देखते हुए लालू यादव के प्रति किसी प्रकार की नरमी की उम्मीद लगाना बेमानी ही थी। हालांकि लालू यादव के समक्ष ऊंची अदालतों में जाकर अपना पक्ष रखने का विकल्प खुला हुआ है। किंतु लालू यादव को जो सजा मिली है उसने बिहार की राजनीति में व्यापक बदलाव के संकेत दिए हैं। सजा पाने के बाद से ही लालू यादव समर्थक लगातार जनतादल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी को इस सजा के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लेकिन सच तो यह है कि लालू यादव को इस अंजाम तक जिस संस्था ने पहुंचाया वह संस्था सीबीआई कांग्रेस का तोता कहलाती है और जिस निर्मम अंदाज में न्यायाधीश पीके सिंह ने सजा सुनाने के बाद लालू की सफाई को दरकिनार करते हुए कहा कि फैसला हो चुका जो कहना हो हाई कोर्ट में कहिएगा। इससे साफ लगता है कि न्यायपालिका की तरफ से लालू यादव को राहत मिलने की उम्मीद अब बहुत कम है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र भी चार साल के लिए जेल भेज दिए गए हैं। किसी भी राज्य में यह पहला मौका है जब दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को एक दिन में जेल हुई। जगन्नाथ मिश्र राजनीति में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं बिहार में उनका प्रभाव न के बराबर है। वे जनतादल यूनाइटेड में शामिल हो चुके हैं। 77 वर्ष के मिश्र सजा पूरी होने के बाद राजनीति से करीब-करीब रिटायर्ड ही हो जाएंगे, लेकिन 67 वर्ष के लालू के समक्ष राजनीति में एक बड़ा आघात उत्पन्न हुआ है। जिस तरह का माहौल आने वाले दिनों में बनने वाला है उसे देखते हुए यह कयास लगाए जा रहे थे कि देश में एक बार फिर तीसरा मोर्चा पुनर्जीवित हो सकता है। इसी कारण लालू यादव की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जा रहा था, लेकिन पांच वर्ष की सजा को छोड़ भी दें तो कम से कम छह वर्ष के लिए चुनाव से बाहर रहना लालू के लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है। इसीलिए लालू के करीबी सूत्रों का कहना है कि वे पहली कोशिश यही करेंगे कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से उनकी सजा जितनी भी कम हो सकती है कम की जाए।
लालू की सजा के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण अब पूर्णत: स्पष्ट हो चुके हैं। नीतिश कुमार की सरकार को समर्थन देकर बचाने वाली कांग्रेस ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उसकी राजनीति का भविष्य बिहार में क्या है। शायद कांग्रेस को पहले ही अंदेशा था कि लालू यादव ज्यादा समय तक बाहर नहीं रह सकेंगे। राहुल गांधी ने जो रुख दागियों को चुनाव न लडऩे संबंधी अध्यादेश के समय अख्तियार किया था उसके पीछे भी कहीं न कहीं बिहार की राजनीति का योगदान है। कांग्रेस उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में अपनी खोई हुई जमीन की तलाश में है और वह जमीन लालू यादव जैसे नेताओं की खोखली राजनीति पर स्थापित नहीं हो सकती। उसके लिए नीतिश कुमार जैसे ठोस और सिद्धांतवादी राजनीतिज्ञ की जरूरत पड़ेगी। लालू यादव ने दो दशक तक जिस गंवई अंदाज में बिहार की राजनीति चलाई और बिहार को लगभग अराजकता में धकेला उसका खामियाजा उन्हें आज भुगतना पड़ रहा है। सजा के बाद कांग्रेस लालू से दूरी बना चुकी है। उधर लालू की पार्टी के कई नेता अब पार्टी छोडऩे को तैयार बैठे हैं। शायद कुछ दिन बाद लोकसभा चुनाव के समय यह भगदड़ देखने को मिले। इसे देखकर कहा जा सकता है कि बिहार में जनतादल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच स्पष्ट शक्ति विभाजन हो चुका है। जहां तक लालू का प्रश्न है लालू, पासवान जैसे नेताओं की ताकत फिलहाल उतनी ही है जितनी कथित रूप से तीसरे मोर्चे की है। कांग्रेस नीतिश के सुशासन का बहाना लेकर यह कह सकती है कि उसने सिद्धांतों को तरजीह दी तथा सिद्धांतहीन ठेठ राजनीति की जगह विकास की राजनीति को आगे बढ़ाया। लेकिन लालू यादव पूरी तरह खारिज हो गए हैं यह कहना जल्दबाजी होगी। बिहार के एक वर्ग पर उनका प्रभाव अभी भी है जो सजा मिलने के बावजूद उन्हें निर्दोष मानता है। यह वर्ग लालू से कभी दूर नहीं होगा। बल्कि लालू को सहानुभूति का लाभ भी इस वर्ग से मिल सकता है। लालू के लिए सबसे बड़ी चिंता केवल यही है कि वे जेल में रहते हुए अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनतादल को एक बनाए रखे। क्योंकि लालू की पार्टी वन मैन शो थी उसमें किसी दूसरे नेता को उभरने ही नहीं दिया गया। इसीलिए लालू के कुनबे में भी किसी में वह काबिलियत नहीं आ सकी।

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