अपने मन के रावण को मारें
16-Oct-2013 06:22 AM 1234939

प्रत्येक त्यौहार-परम्परा का एक विशेष महत्व होता है। उसके मूल में एक सन्देश-भाव छिपा रहता है। महापराक्रमी विद्वान दशानन लंकेश रावण पर अयोध्या के राजकुमार-वनवासी राम की विजय सिर्फ एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति पर विजय नहीं थी। न ही यह विजय राक्षसों की सेना पर वानरों,भील आदि रामभक्तों की सेना की विजय मात्र थी। वस्तुत:यह विजय थी-सत्ता के मद में चूर महापराक्रमी रावण के द्वारा स्त्री के अपमान के फलस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों एवं असत्य के राही एवं मदमस्त रावण पर मर्यादा की स्थापना हेतु पिता के आज्ञा पालन हेतु अयोध्या छोड़कर वन में विचरण करने वाले सत्य के राही राम की।यह विजय थी-असत्य पर सत्य की।
सत्यमेव जयते। सत्य की विजय हो। कैसे-कभी सोचा हमने? आज तो जन-मन-गण की सोच ही थक चुकी है या साफ-साफ कहें तो सोच निस्प्राण होकर विकृत अवस्था को प्राप्त हो चुकी है। जहाँ जिस धरा पर आदिकाल से वसुधैव-कुटुम्बकम् की अवधारणा स्थापित रही हो, वहां पाश्चात्य सभ्यता व पूंजीवाद इतना प्रभावी हो गया है कि पैसों के लिए परिवार भी विखण्डित हो रहे हैं। पारिवारिक विखण्डन अब व्यक्ति के आंतरिक टूटन की वजह बन गई है। अंधाधुंध आर्थिक उन्नति की मंजिलें तय करते-करते मनुष्य मानसिक-सामाजिक-चारित्रिक रूप से बिखरता जा रहा है। इन नैतिक मूल्यों का हनन व्यक्ति-परिवार-समाज सभी को हानि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे रहा है।
हाँ, तो बात फिर से दीपावली पर्व के सन्दर्भ में। दीप पर्व की हमारे वर्तमान जीवन में उपयोगिता की, असत्य पर विजय प्राप्त कर के अयोध्या वापस लौटे मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम चन्द्र जी के सम्मान व स्वागत में आयोजित हुए इस दीप पर्व के आज हमारे द्वारा परम्परागत रूप से मनाये जाने की प्रासंगिकता पर। माँ कैकेयी द्वारा मांगे गये पिता से वरदान की लाज रखने हेतु, पिता के वचनों की, राजधर्म की मर्यादा की रक्षा के लिए पत्नी-भाई समेत वन जाने जैसा आचरण क्या आज हमारे समाज में करने की कोई सोच भी सकता है? आज तो हालात यह हो गई है कि पुत्र के विवाहोपरान्त बेचारे मॉं-बाप ही घर से कब निकाल दिये जायें, इसका ही ठिकाना नहीं है। रिश्तों को भौतिकता रूपी दीमक चाट चुका है। लालच का बिच्छू अपना जहर लोगों के नसों में उतार चुका है। मिथ्याचरण मनुष्य के आभूषण रूप में सुशोभित हो रहा है। सदाचार मानव स्वभाव से विलुप्त हो चुका है और व्यभिचार आम जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है।आज कहाँ हैं राम जैसा आज्ञाकारी पुत्र कहाँ है भरत-शत्रुध्न और लक्ष्मन जैसे भाई-क्या कोई स्त्री सीता जैसा कष्ट सहने का,पति के साथ दु:खमय जीवन जीने का निर्णय ले सकती है? त्याग की भावना की जगह वासना-पूर्ति की अभिलाषा अपना साम्राज्य स्थापित कर चुका है। तो क्या हमें अपने अन्दर के राक्षस रूपी इन विकारों को,आसुरी प्रवृत्तियों को खत्म करने का प्रयास नहीं करना चाहिए? क्या परम्परागत रूप से महाविद्वान पुलस्त्य ऋषि के नाती, महापराक्रमी, बलवान, ज्ञानी, शिवभक्त परन्तु अहंकारी, सत्ता मद में चूर, राक्षसी प्रवृत्ति के, स्त्री उत्पीड़क लंकेश रावण के पुतले का दहन कर के ही हम दशहरा मनाते रहेंगें? सिर्फ परम्परा के निर्वाहन हेतु दीप पर्व मनायेंगें?
आइये समाज के हितार्थ स्वयं की आन्तरिक आसुरी शक्तियों के खिलाफ धर्मयुद्ध की शुरूआत करें। अन्र्तद्वन्द छेड़े। चेतना को नया आयाम दें। नया सबेरा लाने की दिशा में कदम बढ़ायें। अपने मन के लंकेश को सदाचार रूपी बाणों से नाभि प्रहार यानि दुराचरण का खात्मा करके आसुरी शक्ति को परास्त कर परिवार-समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें। यदि मानव एैसा करे तो श्री रामचन्द्र जी के लंका विजय के उल्लास में, अयोध्या वापसी की प्रसन्नता में आज तक मनाये जा रहे इन पर्वों की, दीप पर्व की प्रासंगिकता हमारे वर्तमान में है अन्यथा सिर्फ अवकाश, थोड़ा सैर-सपाटा, मन बहलाव व ईश्वर भक्ति के ढ़ोंग के लिए दीपावली मनाना कोई मायने नहीं रखता। राम की शक्ति जगत-कल्याण के लिए है तो रावण की शक्ति परपीड़ा के निमित्त। रावण विद्वान है,लेकिन इस विद्या से उसमें विनय के बदले अभिमान ही बढ़ता है और अभिमान तो सभी विनाशों का मूल है। राम की विद्या परोपकारी है तो रावण की विद्या परपीड़क। राम और रावण दोनों शिवभक्त हैं। एक की भक्ति सात्विक है तो दूसरे की हठधर्मिता वाली। रावण भक्ति में भी शक्ति-प्रदर्शन का समर्थक है। वह आराधना के समय भी अभिमान का परित्याग नहीं करता ईधर राम में तो अभिमान है ही नहीं। वो तो शत्रुओं का भी आदर करते हैं। राम को त्याग में ख़ुशी मिलती है वहीं रावण को छीनने में। राम का मार्ग सन्मार्ग है, नैतिकता का मार्ग है; जबकि रावण के लिए साधन की पवित्रता आवश्यक  नहीं उसके लिए तो सिर्फ साध्य की प्राप्ति ही अभीष्ठ है। रावण त्रेता में भी आसानी से नहीं मारा था। राम ने जितनी बार उसके सिर काटे वह पुनर्जीवित होता रहा। इसलिए हमें भी अपने भीतर के रावण को अगर मारना है तो उसके उद्गम स्थल यानी नाभि-कुंड पर प्रहार करना पड़ेगा। राम वाले पक्ष यानी सद्गुणों का पलड़ा भारी करना पड़ेगा, रावण खुद ही हार जायेगा और हमारे तन-मन से बाहर निकलने को बाध्य हो जायेगा।

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