कर्म की महत्ता पहचानो
02-Oct-2013 07:47 AM 1234852

इन्द्रियाणि पराणयाहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स: कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है।
इन्द्रियां काम के कार्यकलापों के विभिन्न द्वार हैं। काम का निवास शरीर में है, किन्तु उसे इन्द्र्रिय रूपी झरोखे प्राप्त हैं। अत: कुल मिलाकर इन्द्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ चेतना या कृष्णभावनामृत होने पर ये द्वारा काम में नहीं आते। कृष्णभावनामृत में आत्मा भगवान् के साथ सीधा संबंध स्थापित करता है, अत: यहाँ पर वर्णित शारीरिक कार्यों की श्रेष्ठता परमात्मा में आकर समाप्त हो जाती है। शारीरिक कर्म का अर्थ है- इन्द्रियों के कार्य और इन इन्द्रियों के अवरोध का अर्थ है- सारे शारीरिक कर्मों का अवरोध। लेकिन चूँकि मन सक्रिय रहता है, अत: शरीर के मौन तथा स्थिर रहने पर भी मन कार्य करता रहता है-तथा स्वप्न के समय मन कार्यशील रहता है। किन्तु मन के ऊपर भी बुद्धि की संकल्पशक्ति होती है और बुद्धि के भी ऊपर स्वयं आत्मा है। अत: यदि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में परमात्मा में रत रहे तो अन्य सारे अधीनस्थ -यथा-बुद्धि, मन तथा इन्द्रियां-स्वत: रत हो जायेंगे। कठोपनिषद् में एक ऐसा ही अंग है जिसमें कहा या है कि इन्द्रिय-विषय इन्द्रियों से श्रेष्ठ है और मन इन्द्रिय-विषयों से श्रेष्ठ है। अत: यदि मन भगवान् की सेवा में निरन्तर लगा रहता है तो इन इन्द्रियों के अन्यत्र रत होने की सम्भावना नहीं रह जाती। इन मनोवृत्ति  की विवेचना की जा चुकी है। परं दृष्ट्वा निवर्तते-यदि मन भगवान की दिव्य सेवा में लगा रहे तो तुच्छ विषयों में उसके लग पाने की सम्भावना नहीं रह जाती। कठोपनिषद में आत्मा को महान कहा गया है। अत: आत्मा इन्द्रिय-विषयों, इन्द्रियों , मन तथा बुद्धि- इन सबके ऊपर है। अत: सारी समस्या का हल यह है कि आत्मा के स्वरूप को प्रत्यक्ष समझा जाय।
मनुष्य को चाहिए कि बुद्धि के द्वारा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को ढूँढे और फिर मन को निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगाये रखे। इससे सारी समस्या हल हो जाती है। सामान्यत: नवदीक्षित अध्यात्मवादी को इन्द्रिय-विषयों से दूर रहने की सलाह दी जाती है। किन्तु इसके साथ-साथ मनुष्य को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को सशक्त बनाना होता है। यदि कोई बुद्धिपूर्वक अपने मन को भगवान के शरणागत होकर कृष्णभावनामृत में लगाता है तो मन स्वत: सशक्त हो जाता है और यद्यपि इन्द्रियाँ सर्प के समान अत्यन्त बलिष्ठ होती है किन्तु ऐसा करने पर वे दन्त-विहीन साँपों के समान अशक्त हो जाएँगी। यद्यपि आत्मा बुद्धि, मन तथ इन्द्रियों का भी स्वामी है तो भी जब तक इसे कृष्ण की संगति द्वारा कृष्णभावनामृत मे सुदृढ नहीं कर लिया जाता तब तक चलायमान मन के कारण नीचे गिरने की पूरी-पूरी सम्भावना बनी रहती है।
एवं बुद्धे: परमे बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम।।
इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो।
भगवद्गीता का यह तृतीय अध्याय निष्कर्षत: मनुष्य को निर्देश देता है कि वह निर्विशेष शून्यवाद को चरम-लक्ष्य न मान कर अपने आपको भगवान् का शाश्वत सेवक समझते हुए कृष्णभावनामृत में प्रवृत हो। भौतिक जीवन में मनुष्य काम तथा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने की इच्छा से प्रभावित होता है। प्रभुत्व तथा इन्द्रियतृप्ति की इच्छाएँ, बद्धजीव की परम शत्रुु हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत की शक्ति से मनुष्य इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रख सकता है। इसके लिए मनुष्य को सहसा अपने नियतकर्मों को बन्द करने की आवश्यकता नहीं है, अपितु धीरे-धीरे कृष्णभावनामृत विकसित करके भौतिक इन्द्रियों तथा मन से प्रभावित हुए बिना अपने शुद्ध स्वरूप के प्रति लक्षित स्थिर बुद्धि से दिव्य स्थिति को प्राप्त हुआ जा सकता है। यहीं इस अध्याय का सारांश है। सांसारिक जीवन की अपरिपक्व अवस्था में दार्शनिक चिन्तन तथा योगिक आसनों के अभ्यास से इन्द्रियों को वश में करने के कृत्रिम प्रयासों से आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने में सहायता नहीं मिलती। उसे श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित होना चाहिए।

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