02-Oct-2013 11:34 AM
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नरेंद्र मोदी दिल्ली की सल्तनत का जिक्र करने लगे हैं। वे अब व्यक्तिगत आरोपों से ज्यादा पार्टीगत आरोपों को तरजीह दे रहे हैं। उनका निशाना कांग्रेस और कुशासन

है। पहले उन्होंने सीधे मनमोहन सिंह पर निशाना साधते हुए उन्हें नाइट वाचमैन तक कह डाला था। लेकिन अब वे मनमोहन पर नहीं बल्कि सरकारी नीतियों पर निशाना साध रहे हैं। प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद नरेंद्र मोदी के धुआंधार चुनावी दौरे प्रारंभ हो गए हैं। भिवाड़ी में पूर्व सैनिकों को संबोधन के साथ शुरू हुआ उनका अभियान दक्षिण भारत तक पहुंच चुका है। भिवाड़ी की पहली ही सभा विवादों में इसलिए आ गई क्योंकि उनके साथ मंच पर रिटायर्ड सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह विराजमान थे जिन्होंने बाद में कुछ ऐसे रहस्य खोले जिनसे विवाद उत्पन्न हुआ, लेकिन उसके बाद जहां-जहां मोदी गए वहां-वहां उन्होंने विवादों से बचने की कोशिश की और सीधे कांग्रेस पर निशाना साधा। प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित होने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सेवानिवृत्त सैनिकों की सभा से अपने अभियान का श्रीगणेश किया था, लेकिन अटल और मोदी के भाषणों में जमीन आसमान का अंतर है। मोदी ने जहां सरकार पर सेना का मनोबल तोडऩे का आरोप मढ़ा। वहीं अटल ने उस वक्त देश की सुरक्षा का मुद्दा प्रमुखता से उठाया था। यही कारण है कि मोदी पर कांग्रेस ने आरोप लगाए कि वे सेना को बांट रहे हैं। पर बाद में मोदी ने अपनी तकरीर का रुख थोड़ा बदला। उनकी सभा में भले ही कथित रूप से बुर्के में और टोपी में मुस्लिम महिला-पुरुषों को बुलाया जा रहा हो, लेकिन मोदी केवल विकास की बात कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी के मूल मुद्दे समान नागरिक संहिता, धारा 370 और राम मंदिर का जिक्र वे भूलकर भी नहीं करते। बल्कि हिंदू राष्ट्रवादी की बजाए हिंदुस्तानी का संबोधन न केवल मोदी वरन् राजनाथ सिंह भी करने लगे हैं। संघ की लाइन के विपरीत दोनों नेताओं के भाषणों में शुद्ध हिंदी की बजाए हिंदोस्तानी भाषा का प्रकट होना भाजपा के धर्मनिरपेक्ष अभियान की एक शुरुआत कही जा सकती है। मोदी इससे भी आगे जाना चाहते हैं और अपने विरोधियों को विकास के आंकड़ों में उलझाना पसंद कर रहे हैं। उन्होंने विकास दर को लेकर यूपीए पर निशाना साधा जिसकी प्रतिक्रिया पी.चिदंबरम ने आंकड़ों का आतंकवाद के रूप में दी। बाद में भोपाल में उन्होंने इंदिरा गांधी के काल में शुरू की गई एक योजना का हवाला दिया, जिसके तहत राज्यों के कार्यों का आंकलन किया जाता था। उन्होंने आरोप लगाया कि 20 सूत्रीय कार्यक्रम के आंकलन में जब सारे एनडीए शासित राज्य शीर्ष पांच में शामिल हुए तो केंद्र सरकार ने वह आंकलन ही बंद कर दिया। मोदी का यह आरोप सच है या नहीं इसका तो ज्ञान नहीं, लेकिन वे विकास को लेकर सरकार को घेरने की रणनीति में कामयाब होते दिख रहे हैं। इसका पुख्ता प्रमाण इस बात में है कि मोदी को जवाब देने के लिए अब कांग्रेस भी आंकड़ों की पैंतरेबाजी पर उतर आई है। यदि ऐसा होता है तो फिर यह एक ऐसा मैदान है जिसमें सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का दांव शायद न चले। दक्षिण में भी तमिलनाडु में त्रिची में मोदी ने यूपीए की विदेश नीति को आड़े हाथों लेते हुए पाकिस्तान से बातचीत करने की जल्दबाजी पर सवाल उठाया और कहा कि युद्ध से ज्यादा जवान आतंकवादियों की गोलियों से मारे गए हैं। उन्होंने कहा कि इटली के नौसैनिक हमारे मछुआरों की हत्या कर चले जाते हैं, पाकिस्तानी सैनिक हमारे जवानों के सर काट ले जाते हैं ऐसे वक्त में पाकिस्तान से बातचीत की जल्दी क्यों। मोदी ने दक्षिण में भारतीय मछुआरों की बात कर दक्षिण की नब्ज पकडऩे की कोशिश की और उधर विदेश नीति पर सरकार को लगे हाथ घेरते हुए यह भी कह डाला कि पाकिस्तान शत्रु राष्ट्र है और वह शत्रुवत व्यवहार कर रहा है। मोदी के इस कथन ने कांग्रेस द्वारा मनमोहन सिंह के मार्फत पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात के कदम को आलोचना के दायरे में ला दिया। मोदी सरकार की हर उस नीति को निशाना बना रहे हैं जो आम आदमी की परेशानी का सबब हो सकती है। मिसाल के तौर पर उन्होंने दक्षिण में आधार कार्ड की योजना को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि देश जानना चाहता है कि इस पर कितने रुपए खर्च हुए। मोदी ने जानबूझकर यह प्रश्न नंदन नीलेकणी के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए उठाया। आधार कार्ड योजना में 18 हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। इसलिए मोदी के निशाने पर सरकार आ गई है।
लालकिले नुमा मंच से मोदी का भाषण अब आम हो गया है और इसका संकेत साफ है, लेकिन मोदी स्थानीय आकांक्षाओं का पूरा ध्यान रख रहे हैं। केरल में उन्होंने पद्मनाभ मंदिर में पूजा-अर्चना की और त्रावणकोर राजघराने के महाराजा महेंद्र वर्मा से मुलाकात करके नए सियासी समीकरणों का संकेत दिया। भारतीय जनता पार्टी को केरल में 10 प्रतिशत वोट मिल जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने केरल में बहुत जमकर काम किया है और इस काम में कुछ उन संगठनों ने भी मदद की जो हिंदी का प्रचार करते हैं। इसका फायदा लोकसभा चुनाव में मोदी उठाना चाहेंगे। हालांकि केरल से कोई सीट मिलेगी यह कहना जल्दबाजी है। लेकिन यदि मतप्रतिशत बढ़ता है तो नए समीकरण अवश्य उभरेंगे।
आडवाणी की नाराजगी कम हुई?
आपातकाल के बाद की बात है जब संविद सरकार अस्तित्व में आई और तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी से मिलने कुछ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के सम्पादक पहुंचे और उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई तो आडवाणी ने उनसे कहा (मुझे मालूम है आपसे थोड़ा झुकने को कहा गया और आप रेंगने लगे) 13 सितम्बर की शाम को जब जोर-शोर से भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी तो आडवाणी को फिर से यही सब याद आया। संघ ने थोड़ा झुकने को कहा लेकिन भाजपा पूरी दंडवत हो गई। संघ, आडवाणी और भाजपा का अपना-अपना नजरिया है। लेकिन एक बात प्रमुखता से तीनों मानते हैं कि मोदी भाजपा के कार्यकर्ताओं ही नहीं बल्कि देश के कोने-कोने में प्रधानमंत्री के रूप में सर्वस्वीकार्य और सर्वाधिक पसन्द किए जाने वाले राजनेता हैं। यदि देश में अमेरिका की तर्ज पर अध्यक्षीय शासन प्रणाली होती तो शायद मोदी को पराजित करना असंभव हो जाता। लेकिन आडवाणी इस सच्चाई को जानते हुए भी मोदी की राह में क्यों खड़े हुए यह जानना जरूरी है। आडवाणी जैसा नेता प्रधानमंत्री पद का लालच रखेगा इस बात में कोई दम नहीं है। जब चुनाव होंगे तब आडवाणी की उम्र 86 वर्ष की हो चुकी होगी। भले ही वे कितने भी फिट और तंदुरूस्त राजनेता क्यों न हों उम्र की सीमाएं उन्हें पता हैं। इसलिए भले ही उन्होंने अपने आपको प्रधानमंत्री की रेस से बाहर नहीं किया लेकिन वे इस रेस में शामिल नहीं थे और इसका अंदाजा उन्हें 2009 में भाजपा की भारी पराजय के समय हो चला था। इसके बाद भी मोदी की मुखालफत करने का उनका अपना तर्क है। वे जानते हंै कि यदि मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए तो एनडीए में जो कम्प्रोमाइज केंडीडेट आएगा वह मोदी की कठपुतली भी हो सकता है। जबकि आडवाणी पहले से ही किसी ऐसे नेता को प्रधानमंत्री बनते देखना चाह रहे थे। जो उनकी पसन्द का हो। इसीलिए आडवाणी ने एक पांसा फेंका इस पांसे का दांव लोगों को बाद में समझ में आया जब आडवाणी ने गोवा अधिवेशन की तर्ज पर कोई विस्फोट नहीं किया। 13 सितम्बर की शाम से लेकर 14 सितम्बर की शाम तक आडवाणी थोड़े खिन्न थे लेकिन ज्यों ही उन्हें यह अंदाजा हुआ कि अंजाने में जो चाल उन्होंने चली है वह बहुत कामयाब हो चुकी है तो उनके चेहरे से दुख की और पीड़ा की रेखा गायब हो गई। कम से कम आडवाणी मोदी का विरोध कर देश के सेक्युलर तबके की नजरों में सरताज बन गए हैं। यही नीतीश ने किया था। लगातार मोदी का विरोध करके और यही मुलायम ने किया कारसेवकों पर गोली चलवा कर इस बार आडवाणी ने जानबूझकर नहीं, अनजाने में किया पर चौबीस घंटे के भीतर उनके इस कदम ने बाबरी विध्वंश का दाग उनके दामन से धो दिया। मोदी की तरह आडवाणी भी इस देश में सेक्युलरिष्टों के लिए कभी खलनायक हुआ करते थे लेकिन आज नीतिश से लेकर दिग्विजय सिंह तक तमाम लोग उनकी तरफदारी कर रहे हैं। इससे यह तो साफ हो गया है कि भाजपा के भीतर ही धर्म निरपेक्ष बनाम सेक्युलर का छद्म युद्ध छिड़ा हुआ है जिसके एक सिरे पर मोदी हैं तो दूसरे सिरे पर आडवाणी हैं। कभी यही विरोधाभास अटल और आडवाणी में दिखाई देता था। लेकिन उनमें सामंजस्य भी गजब का था। यहां तक कि मुंबई अधिवेशन में स्वयं आडवाणी ने आगे आकर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया था। आज नरेन्द्र मोदी से ऐसे त्याग की अपेक्षा करना संभव नहीं है। वे वर्ष 2009 से ही लगातार अपनी इमेज तराशने में लगे हुए हैं। अब उनकी छबि की फसल लहलहाने लगी है तो किसी और को वे क्यों काटने देंगे। अब तो केवल एक ही सूरत है कि चुनाव बाद मोदी को पर्याप्त सीटें न मिल पाने की स्थिति में आडवाणी कांग्रेस से इतर कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों की रहनुमाई करने के लिए आगे कर दिए जाएं। भाजपा के उस
थिंक टेंक की तरफ से जो मोदी का पुरजोर विरोध कर चुका है। अर्थात आडवाणी की संभावनाएं समाप्त नहीं हुई हैं। बल्कि अंतिम समय तक मोदी का विरोध करके आडवाणी ने अपना पक्ष मजबूत कर लिया है। उनका यह बलिदान Ó व्यर्थ न जाएं इस बात की उम्मीद ही की जा सकती है।
लेकिन आडवाणी दोनों खेमों को साध रहे हैं। उन्होंने कोपभवन से निकल कर भाजपा के प्रचार का रथ सम्भाल लिया है। रायपुर में उन्होंने मोदी की तारीफ की तो भोपाल में मोदी के साथ मंच साझा किया। हालांकि तल्खियां दिखाई दीं, लेकिन कोई बड़ी भारी खाई मोदी और आडवाणी के बीच है ऐसा आडवाणी ने आभास नहीं होने दिया। इससे यह लगता है कि इस प्रकार वे राजनीति में बने भी रहेंगे और अपनी प्रासंगिकता भी बनाए रखेंगे इससे भाजपा को गुजरात छोडकर बाकी हिस्से में लाभ मिल सकता है क्योंकि गुजरात में तो अब सबसे बड़े खलनायक आडवाणी बन चुके हैं। शायद अगली बार वे वहां से चुनाव भी न लड़ें।