02-Oct-2013 10:58 AM
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कुछ समय पहले राहुल गांधी ने एक भावुक बयान दिया था कि वे देश पर अपने सपनों को कुर्बान करना चाहते हैं। उनके सपने क्या हैं? यह जानने को गैर कांग्रेसी दल ही नहीं कांग्रेस भी बेताब है। लेकिन राहुल ने इसका खुलासा नहीं किया। क्या उनका सपना शादी है? या फिर भ्रष्टाचार मुक्त भारत है? यदि उनका सपना विकसित और भ्रष्टाचार मुक्त भारत है तो फिर उसे कुर्बान करने की क्या आवश्यकता है। जहां तक विवाह का प्रश्न है राहुल गांधी शायद उसी तरफ इशारा कर रहे थे कि वे स्वयं कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते ताकि देश की जिम्मेदारी बेहतरी से उठा सकें। यूं भी राहुल का मुकाबला नरेंद्र मोदी से है। जो फिलहाल अकेले ही हैं और मोदी को भी शादीशुदा भले ही कहा जाए लेकिन गृहस्थ नहीं कहा जा सकता। इसलिए मुकाबले में बने रहने के लिए राहुल का अविवाहित होना अनिवार्य है, लेकिन बात इतनी ही नहीं है। राहुल भी अब खुलकर मैदान में आ चुके हैं। उन्होंने मोदी की तरह दाढ़ी ही बढ़ाकर नहीं रखी है बल्कि वे मोदी के विकास पर भी कटाक्ष कर रहे हैं। धीरे-धीरे ही सही राहुल गति पकडऩे लगे हैं और उनकी वक्तृत्व कला भी पहले की अपेक्षा निखरी है। राजस्थान के बारां जिले में एक जनसभा को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि विपक्ष केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं में अड़ंगा डालने का काम कर रहा है। जबकि यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून, रोजगार गारंटी

योजना और भूमि अधिग्रहण कानून लाकर गरीबों तथा किसानों की बेहतरी के लिए कई कदम उठाए हैं।
राहुल ने मोदी पर कटाक्ष किया कि यूपीए ने जो कहा वह करके दिखाया। चाहे बात मनरेगा की हो, भोजन के अधिकार की हो, सिंचाई की हो या बिजली की हो। राहुल यह कहना चाह रहे थे कि कांग्रेस करती है जबकि मोदी बोलते हैं। इसीलिए उन्होंने मोदी पर कटाक्ष किया कि कांग्रेस ऐसा विकास चाहती है जिसमें लोगों को भूखे पेट न सोना पड़े। राहुल के इस भाषण से कांग्रेस की चुनावी रणनीति का फोकस समझ में आता है। राहुल और कांग्रेस दोनों उस वर्ग तक पहुंचना चाहते हैं जो इंटरनेट या फेसबुक से नहीं जुड़ा है बल्कि बड़ी तादाद में गरीबी और अन्य दुरावस्थाओं से पीडि़त है। मोदी को शहरी पसंद के रूप में स्थापित करने और राहुल को ग्रामीण बांड बनाने की रणनीति पर कांग्रेस काम कर रही है। यह रणनीति पिछले चुनाव में मनमोहन सिंह पर कामयाब हो गई थी जब लालकृष्ण आडवाणी अपनी बड़ी भारी वेबसाइट ही बनाते रह गए और मनमोहन सिंह ने मनरेगा के मार्फत बाजी मार ली। इस बार भी भले ही कांग्रेस की हवा न हो और पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग में कांग्रेस के प्रति भयानक असंतोष तथा आक्रोश पनप रहा हो लेकिन खाद्य सुरक्षा विधेयक और नगद सब्सिडी जैसी योजनाएं केंद्र में सत्तासीन यूपीए की वैतरणी पार लगा सकती हंै। शायद इसीलिए राहुल गांधी कहते हैं कि इस देश में कई युवा गरीब हैं। उनके बहुत से सपने हैं। जो कांग्रेस पूरा कर सकती है। राहुल गांधी की सभा में भले ही वह ग्लैमर नहीं था लेकिन राहुल ने जिस वर्ग तक पहुंचने की कोशिश की है असल में वही वर्ग कांग्रेस को चुनाव जितवाता रहा है। भारतीय जनता पार्टी की पकड़ अभी उस वर्ग में नहीं हो पाई है। लोग भले ही राहुल के गरीबों की झोपडिय़ों में रात गुजारने की बात का मखौल उड़ाएं, लेकिन सच तो यह है कि राहुल के इस कदम ने पिछले चुनाव में कांग्रेस को बहुत फायदा पहुंचाया था पर दुर्भाग्य से विधानसभा चुनाव में उन्हें खास सफलता नहीं मिली। राहुल के साथ एक परेशानी यह भी है कि सर्वेक्षणों में उन्हें नरेंद्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री के रूप में पसंद करने वालों की संख्या बहुत कम है। लेकिन राहुल ने मुश्किल समय में मुश्किल रास्ते का चयन करके अपना एक नया मुकाम बनाने का प्रयास किया है। हालांकि मुजफ्फरनगर दंगों सहित कश्मीर पर हमले से लेकर कई अन्य मसलों पर उनकी चुप्पी देश के मध्यम वर्ग को परेशानी करती है। लेकिन 42 साल के राहुल गांधी कहीं न कहीं उस वर्ग को साधने में कामयाब हो रहे हैं जो सही मायने में सत्ता के लाभ से वंचित हैं। शायद इसीलिए राहुल गांधी अपने भाषण में कहते हैं कि अगर आपके पास पद नहीं है तो कुछ नहीं है और यही भारत का दुर्भाग्य है। राहुल गांधी के इस कथन से यह अर्थ निकल सकता है कि वे अपनी छवि एक ऐसे नेता की बनाना चाहते हैं जो पद के लालच में न रहते हुए भी काफी महत्वपूर्ण साबित हो। कभी उनकी मां ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया था। आज राहुल अपने आपको उसी तरह के बलिदानी के रूप में प्रोजेक्ट कर रहे हैं। जिनके लिए पद का महत्व नहीं है। नरेंद्र मोदी को लेकर भाजपा में आडवाणी सहित शीर्ष नेताओं के बीच जो घमासान मचा था उससे राहुल को दूरगामी फायदा मिल सकता है। क्योंकि तमाम बातें पक्ष में होने के बावजूद उन्होंने प्रधानमंत्री पद से दूरी बनाए रखी और अभी भी वे इस बात के लिए उत्सुक नहीं हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया जाए। लेकिन देश में केवल प्रधानमंत्री पद ही अहम समस्या नहीं है कई और भी समस्याएं हैं। देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। आर्थिक हालात दयनीय हैं। आतंकवादी और माओवादी कहीं भी हमले करने में सक्षम हो गए हैं। हमारा खुफिया तंत्र धराशायी हो चुका है। ऐसे हालात में राहुल कांग्रेस में भले ही अपने आपको सर्वोच्च पद की दौड़ में न रखें लेकिन सच तो यह है कि राहुल गांधी का नाम कांग्रेस ने मोदी से पहले ही आगे बढ़ा दिया था। क्योंकि उनके अलावा कांग्रेस में ऐसा कोई भी नेता नहीं है जिनके नाम पर सहमति बने।

कांग्रेस का यह मानना है कि देश के युवा यह समझने लगे हैं कि देश में आर्थिक सामाजिक बदलाव पार्टियां नहीं बल्कि लोग स्वयं करते हैं। इसीलिए कांग्रेस को एक विकल्प के तौर पर उन राज्यों में भी अपनाया जा सकता है जहां कांग्रेस की सरकार नहीं है। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी गुजरात के मुख्यमंत्री की तरह आक्रामक या हमलावर नहीं है और न ही वे बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हैं। बल्कि राहुल गांधी कर्म करने वाले हैं। पार्टी में राहुल गांधी का प्रचार कुछ इस तरह से किया जा रहा है कि वे अंतरमुखी हैं, कर्म करने में विश्वास करते हैं और उनका व्यक्तित्व अलग है जो जिम्मेदारी लेते हैं उसे गंभीरता से पूरा करते हैं। लेकिन राहुल की यह विशेषता भारतीय चुनावी राजनीति में फिट नहीं बैठती। यहां तो वही नेता लोकप्रिय हैं जो गलत आंकड़े भी पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करे। झूठ भी इस अंदाज में बोले की जनता को लगे जो बोला जा रहा है वह एकदम सच है। राहुल गांधी भले ही झूठ न बोलें लेकिन उन्हें वाचाल तो होना ही पड़ेगा। देश के हर छोटे-बड़े मुद्दे पर अपना मत व्यक्त करना ही पड़ेगा तभी जनता को लगेगा कि राहुल देश की समस्याओं को लेकर गंभीर हैं और कुछ कर दिखाना चाहते हैं अन्यथा भले ही राहुल ढिंढोरा न पीटें लेकिन उनकी चुप्पी कांग्रेस को ज्यादा फायदा कराने वाली नहीं है। खासकर जिस तरह मोदी सपनों के सौदागर के रूप में लगातार अपनी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा रहे हैं। राहुल को खुलकर मैदान में आना होगा और मुकाबला करना होगा। भाजपा चुनाव जीते या न जीते यह अलग विषय है, लेकिन राहुल के नेतृत्व में यदि कांग्रेस की पराजय होती है तो राहुल के लिए यह एक बड़ा हादसा ही साबित होगा और इसीलिए विश्लेषक यही मान रहे हैं कि राहुल को प्रोजेक्ट करने का यही समय है। केंद्र की मनमोहन सरकार भले ही तमाम घोटालों से जूझ रही हो, लेकिन अभी भी जनता कांग्रेस के विकल्प के रूप में भाजपा को नहीं देख पा रही है। यही एक फायदा है जो राहुल गांधी उठा सकते हैं।
केंद्रीय कानून मंत्री और कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने हाल में ही एक साक्षात्कार में कहा था कि अगर राहुल गांधी पार्टी या सरकार में ज्यादा सक्रिय होंगे तो दल को खुशी होगी, क्योंकि अभी तक तो वो कभी कभार दिखकर गायब हो गए हैं। सलमान खुर्शीद के इस बयान को मीडिया के एक समूह ने इस तरह पेश किया जैसे राहुल गांधी की शान में उन्होंने कोई गुस्ताखी के तौर पर कर दी हो लेकिन विश्लेषक भारत भूषण का कहना था, बयान पूर्वनियोजित था क्योंकि भारतीय राजनीति में पद के लिए दावेदारी या अहम रोल पाने की बात खुद से नहीं की जाती बल्कि किसी से कहलवाई जाती है। अगले आम चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार को लेकर कांग्रेस पार्टी में काफी हलचल है और सोच ये है कि नरेन्द्र मोदी की काट राहुल गांधी से बेहतर कौन हो सकता है। लेकिन कांग्रेस का ये दांव फेल भी तो हो सकता है? क्या इसमें ये खतरा नहीं होगा कि राहुल गांधी, जो पहले भी पार्टी को कोई बड़ी कामयाबी हासिल करवाने में नाकाम रहे हैं, के जलवे की पोल पूरी तरह से खुल जाए? भारत भूषण मानते हैं कि ये खतरा तो है लेकिन अगर राहूल गांधी को कामयाब होना है तो उन्हें खतरा मोलना पड़ेगा और पार्टी को अपनी छवि में तैयार करना होगा। वो कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी में 1969 और फिर 1977 के विभाजन के बाद पार्टी नई नेता, यानी इंदिरा गांधी की छवि में तैयार हुई थी। राहुल गांधी को भी पार्टी में अपने लोगों को स्थापित करना होगा, एक नई व्यवस्था कायम करनी होगी। भारतीय राजनीति आश्रय-पश्रय़ के बल पर चलती है, वो तभी बनेगी जब आप अधिक सक्रिय होंगे। उनका कहना है कि पार्टी के एक धड़े में ये सोच भी काम कर रही है कि कांग्रेस पर सोनिया गांधी के खासम-खास लोगों की पकड़ ढीली हो और उसकी जगह राहुल गांधी के करीबी लोग लें। लेकिन भारत भूषण कहते हैं कि राहुल गांधी को याद रखना होगा कि राजनीति कोई पिकनिक नहीं कि एक रात गांव में गुजार ली और फिर दोस्तों के साथ पार्टी करने चले गए। उन्हें समझना होगा कि राजनीति एक फुल-टाइम प्रोफेशन है और वो जबतक इसमें पूरी तरह नहीं डूबेंगे तब तक कुछ हासिल नहीं होगा।