02-Oct-2013 10:53 AM
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भोपाल की सरजमीं पर एक बार फिर चुनावी युद्ध का आगाज हो गया। कार्यकर्ता महाकुंभ में जहां भारतीय जनता पार्टी ने दावा किया है कि उन्होंने अपने लगभग पांच लाख कार्यकर्ताओं, समर्थकों

को एकत्र कर अपनी ताकत का अहसास कराया। वहीं पीसीसी में कांग्रेस के घमासान की खबरें इस बात का संकेत दे गईं कि चुनाव से पहले कांग्रेस को भीतरी महायुद्ध से भी निपटना होगा।
भोपाल के जंबूरी मैदान पर भारतीय जनता पार्टी ने एकता का प्रदर्शन किया। कुछ उसी अंदाज में जिस अंदाज में कांग्रेस चुनावी सभाओं में कर रही है। लेकिन खीरे की तरह। ऊपर से तो एक पर अंदर से तीन फांकों में बंटी हुई। भाजपा में यह फांकें महाकुंभ के उस मंच पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। लालकृष्ण आडवाणी मोदी को आशीर्वाद देने के लिए प्रस्तुत नहीं थे तो सुषमा स्वराज के मुंह में मोदी की तारीफ में दो बोल नहीं थे, लेकिन फिर भी नितिन गडकरी को छोड़कर बाकी सभी दिग्गजों की मौजूदगी ने कार्यकर्ताओं को इतना मनोबल तो दिया ही कि वे समझें कि पार्टी एक है। पर खीरे से भी ज्यादा संतरे की तरह कई फांकों में विभाजित दिखाई दी कांग्रेस। जिसकी एकता की परतें अब उखडऩे लगी हैं। विदिशा की चुनावी रैली से जो मूमेंटम बना था वह मूमेंटम कहीं न कहीं सतना, रतलाम, शाजापुर में उत्तरोत्तर कम होना दिखा। जो अब कांग्रेस की भीतरी राजनीति के चलते ध्वस्त होता नजर आ रहा है। इस राजनीति के एक छोर पर दिग्विजय सिंह है तो दूसरे छोर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया है और कमलनाथ, भूरिया, अजय सिंह सरीके नेता तो हैं ही। लेकिन सबसे बड़ी दुविधा मध्यप्रदेश में कांग्रेस के भीतर दिग्विजय सिंह को लेकर पैदा हुई है। कहने को तो दिग्विजय राहुल गांधी के निकटतम सिपहसालारों में एक हैं, लेकिन सच यह है कि दिग्विजय प्रदेश चुनाव समिति की बैठक में उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हैं। वे जिले और ब्लाक की सिफारिशें नदारद होने का मसला प्रमुखता से उठाते हैं और इसी कारण प्रदेश के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की आंखों की किरकिरी बन जाते हैं। देखा जाए तो दिग्विजय सिंह जिस रणनीति पर काम कर रहे हैं वह उचित ही है। चुनाव से पूर्व पत्ते न खोलना और बाद में अपना वजन बढ़ाना, लेकिन मध्यप्रदेश कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बढ़ती ताकत के कारण दिग्विजय की यह रणनीति उतनी कामयाब होती नहीं दिखाई दे रही। कार्यकर्ता या तो जानबूझकर या अनजाने में दिग्विजय सिंह को इग्नोर करने लगे हैं। इसकी बानगी पीसीसी में भी देखने को मिली थी जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रेस कांफ्रेंस के बाहर दिग्विजय दरवाजा खटखटाते रह गए, लेकिन उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया गया। यह गलती जानबूझकर की गई या अनजाने में की गई इसकी कैफियत कांग्रेस बेहतर दे सकती है, लेकिन कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर नेताओं के बीच वर्चस्व का युद्ध जारी है। पूर्व केंद्रीय मंत्री अशलम शेर खान का कहना है कि छह बड़े नेता कांग्रेस को नहीं जिता सकते। शेर खान सही कह रहे हैं। इन नेताओं को कांग्रेस को जिताने के लिए एक होना पड़ेगा केवल मंचीय एकता से काम नहीं चलेगा। बहरहाल कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति की 10 अक्टूबर को होने वाली बैठक को लेकर काफी गहमागहमी है। सूत्र बताते हंै कि इसमें पहले से ही तय सीटों के प्रत्याशियों को अंतिम रूप दिया जाएगा। जिस तरह की चयन प्रक्रिया राहुल गांधी ने प्रस्तुत की है उससे कांग्रेसियों के होश उड़े हुए हैं। बहुत सूक्ष्म स्क्रीनिंग की जा रही है। यह तक पूछा गया है कि कितने चुनाव जिताए हैं और किन स्तरों पर जिताएं हैं। इससे प्रत्याशियों में खासी बेचैनी है और उतनी ही बेचैनी उन क्षत्रपों में है जो अपने-अपनों को चुनाव जिताने की होड़ में हैं। विंध्य में सतना की चुनावी सभा में यह होड़ स्पष्ट दिखाई दी। जब एक कांग्रेसी नेता ने ऑफ द रिकार्ड कहा कि राहुल का फार्मूला मध्यप्रदेश में काम नहीं करेगा। जिस गति से काम चल रहा है उसे देखते हुए नवंबर माह में ही टिकिटों का वितरण होना संभावित है। टिकटार्थियों को इस बात की फिक्र है कि देर से टिकिट मिला तो वे अपनी चुनावी रणनीति पर काम नहीं कर पाएंगे। बहरहाल कांग्रेस की सभाओं में जुटती भीड़ से यह तो साफ हो गया है कि ज्योतिरादित्य को लेकर कार्यकर्ताओं में उत्साह है। लेकिन ज्योतिरादित्य स्वयं सामंतवादी प्रवृत्तियों को कितने शीघ्र त्यागते हैं यह देखना उचित होगा। जिस तरह पीसीसी में वे अलग थलग दिखाई देते हैं उसे उनकी झिझक से जोड़कर देखा जा रहा है, लेकिन उनके आलोचक इसे राजसी ठाठ-बाट कहते देखे गए हैं। इस बीच खबर यह भी है कि टिकिट में देरी का एक कारण कुछ नेताओं द्वारा वंशवाद को बढ़ावा देना भी है।
उधर भारतीय जनता पार्टी में सत्ता होने के कारण अपेक्षाकृत ज्यादा एकता है। खासकर मध्यप्रदेश के नेता अब चुनाव से पूर्व एक दिखाई दे रहे हैं और यह एकता कागजी न होकर वास्तविक है। भले ही राष्ट्रीय स्तर पर बड़े नेताओं के बीच विभाजन स्पष्ट दिखाई दे रहा हो पर मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह सभी को साधने में कामयाब रहे हैं। शायद इसीलिए शिवराज अब आक्रामक होकर चुनावी मैदान में डट गए हैं। कुछ चुनावी सर्वेक्षणों ने उनका उत्साहवर्धन किया है तो कुछ खबरें ऐसी भी हैं जो मायूस कर सकती है। मंत्रियों के बारे में लगातार रिपोर्ट नकारात्मक आ रही है। जिसका असर चुनाव पूर्व आनन-फानन में लिए गए फैसलों में देखा जा सकता है।
बहरहाल भोपाल भारतीय जनता पार्टी के महाकुंभ में शिवराज सिंह ने जो आक्रामकता दिखाई वह थोड़ी आश्चर्य में डाल रही थी। पहली बार मुख्यमंत्री ने कांग्रेसियों को सांप-बिच्छू तक कह डाला।

अचानक शिवराज की आक्रामकता से यही लगता है कि शिवराज भाजपा में मोदी के नक्शे कदम पर हैं। क्योंकि उन्होंने टिकिट वितरण में भी फ्री हैंड चाहा है। चुनाव जीतने पर शिवराज भी एक ताकतवर राजनेता के रूप में उभरेंगे। भोपाल में जिस तरह एक विशाल आयोजन हुआ और उसमें लाखों की संख्या में कार्यकर्ताओं की मौजूदगी रही उससे भी शिवराज की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। भीतरी खबर यह है कि हर संभाग में ज्यादा से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराने की होड़ लगी हुई थी, लेकिन साथ ही यह हिदायत भी थी कि इस उपस्थिति का श्रेय शिवराज को मिलना चाहिए। इसीलिए शिवराज के मुखौटे और तख्तियां लिए कार्यकर्ता इस महाकुंभ में नजर आए। लालकृष्ण आडवाणी ने जिस तरह तहे दिल से शिवराज की तारीफ की तथा यह भी कहा कि भोपाल में ही इतनी भीड़ संभव है उससे यह लगता है कि आडवाणी का शिवराज प्रेम बरकरार है और वह सही समय पर प्रकट भी हो सकता है। सुषमा स्वराज ने भी शिवराज की तारीफ के पुल बांधे लेकिन मोदी के लिए एक शब्द भी नहीं बोला। इन वचनवीरों के कथनों से यह साफ झलक रहा है कि भाजपा में भी अंदरूनी तौर पर गुटबाजी है जिसे ऊपरी दिखावे के द्वारा ढांकने की कोशिश की जा रही है। लेकिन चुनावी माहौल बन चुका है और इसीलिए कुछ मुद्दे गौण हो गए हैं। प्रशासनिक सर्जरी भी कुछ इसी अंदाज से की गई है। खासकर मुख्य सचिव के रूप में एंटोनी जेसी डिसा की नियुक्ति। अब सबसे बड़ी चुनौती टिकिट वितरण की है क्योंकि टिकटार्थियों की लंबी सूची है। स्थानीय विधायकों के खिलाफ असंतोष चरमसीमा पर है। लेकिन कुछ ऐसे हैं जो ज्यादा ही हिस्सा मांग रहे हैं। इनमें सबसे पहला नाम कैलाश विजयवर्गीय का है जो बेटे के लिए इंदौर 2 से टिकिट मांग रहे हैं और महु से स्वयं लडऩा चाहते हैं। टिकिट चाहने वाले बुंदेलखंड के एक नेता भी अपने खासमखास को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि मंत्रियों के पीछे चलने वालों को संगठन ने साफ कर दिया है कि टिकिट उसी को मिलेगा जो जिताने में सक्षम होगा। इसलिए कुछ मंत्री भी टिकिट की दौड़ से हट चुके हैं। वहीं कुछ मंत्री अपना विधानसभा क्षेत्र बदलने के लिए उत्सुक हैं क्योंकि उनको जनता नकार चुकी है। हाल ही में जब भारतीय जनता पार्टी की घोषणा पत्र समिति की बैठक हुई उसमें यह बात उभरकर सामने आई कि मंत्रियों से जनता में नाराजगी है और मंत्रियों के ठाठ-बाट जनता को नहीं सुहा रहे हैं। शिवराज सिंह को चुनाव के समय अव्यवस्था की चिंता सताने लगी है। खबर है कि कुछ समय शिवराज सिंह ने बिजली विभाग के अफसरों को तलब करके उनसे सुनिश्चित किया था कि अटल ज्योति अभियान सही चल रहा है या नहीं। क्योंकि भाजपा के ही कुछ विधायक ऑफ द रिकार्ड सरकार के इस अभियान की पोल खोलने में लगे हुए हैं। नरेंद्र मोदी के प्रभावशाली होने के बाद समीकरणों में भी बदलाव आया है। प्रदेश की 34 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के प्रभाव का आंकलन करने में पार्टी जुट गई है। इस बीच पार्टी की सीटों की संख्या में कमी की खबर ने भी भाजपा को परेशान किया है।
हेलीकॉप्टरों में घूमेंगे नेता
चुनावी महाकुंभ में हेलीकॉप्टर कंपनियों की अच्छी कमाई हो रही है। भाजपा ने चार हेलीकाप्टर बुक किए हैं तो कांग्रेस ने पांच हेलीकाप्टर बुक किए हैं। सारे बड़े नेता हवा से बात करेंगे। उधर दिग्विजय सिंह के खासमखास महेश जोशी को कांग्रेस में मीडिया प्रभार मिलने से गहमागहमी का माहौल है।