दिल्ली में शीला बनाम हर्षवर्धन
02-Oct-2013 08:00 AM 1234764

दिल्ली में भारतीय जनता पार्टीं सरकार बनाने की स्थिति में भले ही न हो लेकिन पार्टी के भीतर मुख्यमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। शीला दीक्षित के मुकाबले का नेता पार्टी के पास नहीं है। विजय गोयल मोदी से तकरार के कारण अब मैदाने जंग में नहीं हैं और उनकी जगह जो नया नाम उभरकर सामने आया है वह है डॉ. हर्षवर्धन का। डॉ. हर्षवर्धन कभी भारतीय जनता पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य एवं शिक्षामंत्री हुआ करते थे, लेकिन उनका नाम ज्यादा चर्चित नहीं रहा। बाद में समय बीतने के साथ हर्षवर्धन पार्टी के लिए महत्वपूर्ण होते चले गए और आज उनका नाम मुख्यमंत्री की दौड़ में अचानक सबसे आगे आ गया। सौम्य और बेदाग छवि के मालिक हर्षवर्धन को नरेंद्र मोदी की भी पहली पसंद माना जा रहा है। हालांकि हर्षवर्धन के विरोधियों का कहना है कि वे लोकप्रिय और जाना-पहचाना चेहरा नहीं है। इसलिए संभवत: दिल्ली में भाजपा बिना किसी चेहरे के भी मैदान में उतर सकती है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री के रूप में जिस विजय गोयल को प्रोजेक्ट किया जा रहा था उन्हें नरेन्द्र मोदी पसन्द नहीं करते और अब सुनने में यह आ रहा है कि राजनाथ सिंह भी विजय गोयल से परेशान हो गए हैं। वैसे राजनाथ सिंह हर उस चीज को नापसन्द करते हैं जिसे मोदी नापसन्द करते हैं और इसी कारण विजय गोयल के पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही है। आलाम यह है कि स्थानीय नेता विजय गोयल के खिलाफ लगातार शिकायतें कर रहे हैं। पहले जब शिकायतों की भरमार हो गई थी तो राजनाथ सिंह ने नीतिन गडकरी को दिल्ली चुनाव समिति का प्रभारी बनाकर अपना भार हल्का करना चाहा। लेकिन गडकरी को दिल्ली की राजनीति का अंदाजा नहीं है गडकरी महाराष्ट्र में राजनीति करते आए हैं, दिल्ली में स्थिति दूसरी है और अब   नरेन्द्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किए जाने के बाद हालात बदल गए हैं।
गोयल के विरोधी नेता दिल्ली में अपना रोब जमाने के लिए मोदी से नजदीकी बढ़ाने लगे हैं। इसका नतीजा यह निकला कि दिल्ली में बतौर सीएम प्रोजेक्ट होने की गोयल की रणनीति धराशायी हो गई है। गोयल को पिछले दस वर्ष से की गई मेहनत का फल शायद ही मिले। इसमें वह मेहनत भी शामिल है जो उन्होंने स्मृति ईरानी को दिल्ली से लोकसभा चुनाव हरवाने के लिए की थी। अब उस मेहनत का फल मिलने लगा है तो गोयल बौखला गए हैं। गोयल ने कभी सोचा नहीं था कि नरेन्द्र मोदी पार्टी में इतने ताकतवर हो जाएंगे। लेकिन मोदी के ताकतवर होते ही गोयल के चेहरे पर मायूसी छा गई। स्मृति ईरानी की मोदी से नजदीकी किसी से छिपी नही है। यह बात अलग है कि स्मृति बड़े दिल वाली महिला हैं वे शायद गोयल को माफ भी कर दें लेकिन मोदी उतने माफी पसन्द नहीं हैं। इसी कारण दिल्ली भाजपा में अंतरकलह चरम सीमा पर है।  सूत्र बताते हैं कि किसी को भी प्रोजेक्ट किए बगैर चुनाव लडऩे की तैयारी में भाजपा है और इसीलिए पूर्व मंत्री डॉ हर्षवर्धन को चुनाव अभियान समिति की कमान सौप दी गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि कम्प्रोमाईज केन्डिडेट के रूप में हर्षवर्धन भी स्वीकार हो सकते हैं। मतलब साफ है मोदी की पसन्द का व्यक्ति दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में रहेगा और वह व्यक्ति कौन हो सकता है यह बताना आवश्यक नहीं है - थोड़ा तलाशने पर मिल जाएगा। विजय गोयल के साथ दिक्कत यह है कि वे भविष्य का अनुमान करने में नाकाम रहते हैं। जब उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को 2014 के चुनाव में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया था उस वक्त उन्हें उम्मीद नहीं थी कि आडवाणी की तरफदारी इतनी महंगी पड़ेगी। समझदार गोयल को यह क्यों नहीं पता चला कि मोदी के इशारे पर पूरी पार्टी चल रही है। राजनाथ भी मोदी के इशारे पर ही चल रहे हैं लेकिन उसके बाद भी गोयल ने नादानी की और यह नादानी अब महंगी पड़ी है।
वैसे भी दिल्ली में हालात साफ नहीं है। आम आदमी पार्टी ने सारा गणित बिगाड़ दिया है। चुनावी सर्वेक्षणों में आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा में 9 सीटें मिलने का दावा किया जा रहा है। यदि ऐसा हुआ तो सत्ता विरोधी मत का फायदा भाजपा को नहीं मिल पाएगा और किसी न किसी से समर्थन तो लेना ही होगा। जाहिर है समर्थन के लिए एक ही दल उपलब्ध हो सकता है - आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल सौदेबाजी में बहुत माहिर हैं। जिस तरह उन्होंने अन्ना हजारे को ठिकाने लगाया है उससे झलकने लगा है कि केजरीवाल दिल्ली चुनाव में भरपूर भाव-ताव करेंगे। विजय गोयल दिल्ली में मुस्लिम वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अब इस कोशिश का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। क्योंकि बीजेपी  नार्थ में धु्रवीकरण चाहती है। धु्रवीकरण के भरोसे ही वह सीटें हांसिल कर सकती है। भाजपा दिल्ली में मुस्लिम वोटरों को दूर होते देखने का जोखिम उठा सकती है यदि ऐसा हुआ तो दिल्ली की तस्वीर बड़ी उलझी हुई नजर आएगी। शायद झारखण्ड जैसा हाल दिल्ली में देखने को मिले। कुछ विधायक तो अभी से नीलामी के लिए तैयार बैठै हैं। परिणाम आने के बाद नीलामी के बाजार में आने वाले विधायकों की तादात बढ़ सकती है। यदि भाजपा 30 सीटें जीतने में कामयाब रही तो भाजपा की तरफ  विधायकों का रूख हो सकता है और कांग्रेस के कुछ नीलामीशुदा विधायक टूट कर भाजपा में जुड़ सकते हैं। जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है वह नैतिकता की दुहाई देती आई है इसलिए जो भी सौदेबाजी की जाएगी उसे नैतिकताÓ के दायरे में ही अंजाम दिया जाएगा। जिस तरह फिल्मी टाइप के लोगों को आम आदमी पार्टी जोड़ रही है। उसे देखते हुए लगता है कि जहां ज्यादा दाम होंगे वहां ये अभिनेता पलायन कर जाएंगे। अभिनेताओं को अच्छी तरह पता है कि आम आदमी पार्टी चार-पांच साल बाद विलुप्त हो जाएगी क्योंकि यह एक भावानात्मक मुद्दे से उपजी है। इसलिए वे कोई स्थाई प्लेटफार्म तलाश सकते हैं। कुल मिलाकर देश की राजधानी में सियासी हालात बड़े दिलचस्प होने वाले हैं।
दिल्ली की अहमियत: जिस तरह से बीजेपी ने विकास का आईना गुजरात को और कामयाबी का चेहरा नरेन्द्र मोदी को बनाया है उसी तरह कांग्रेस ने भी विकास के लिए दिल्ली को रोल मॉडल और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को फ्रंट रनर के तौर पर पेश किया है। हालांकि यहां शीला कांग्रेस की कामयाबी का सिर्फ दिल्ली में चेहरा है, इससे बाहर नहीं। इसके साथ ही सियासी गलियारों में यह चर्चा भी जोरों पर है कि जिस तरह से राहुल फ्रंट रनर बनने से कतरा रहे हैं, उसे देखते हुए अगर शीला चौथी बार कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता सौंपने में कामयाब होती हैं तो पार्टी उनके चुनावी अनुभव और कौशल का इस्तेमाल लोकसभा चुनाव में करने से नहीं हिचकेगी। वैसे भी शीला की सोनिया के प्रति वफादारी इस रणनीति को आगे बढ़ाने में कांग्रेस की राह आसान कर सकेगी। इस लिहाज से बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए दिल्ली फतह करना वक्त की सबसे जरूरी मांग बन गई है. इसका असर भी दिखना शुरु हो गया है। दिल्ली में बह रही चुनावी बयार में मोदी का रंग अब गहराने लगा है।

व्यक्तिनिष्ठ होती चुनावी जंग
इस बार का चुनाव कई मायनों में खास होने जा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी बनाम राहुल के इर्द गिर्द होता ध्रुवीकरण स्थानीय क्षत्रपों की साख पर भी सवाल खड़े कर रहा है। एक ओर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव के केन्द्र में शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह हैं। इनके सामने कांग्रेस का कोई चेहरा मुकाबले में नहीं है। व्यक्तिनिष्ठ होती चुनावी राजनीति की यह मजबूरी कांग्रेस के लिए यहां दिक्कत का सबब बन रही है। जबकि राजस्थान में मुकाबला अशोक गहलोत बनाम वसुंधरा राजे के बीच हो गया है। गौर करने वाली बात है कि इन तीनों राज्यों में मोदी बनाम राहुल के नाम से एक समानांतर मैच भी चल रहा है। तीनों ही राज्यों में शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा की तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस मोदी को मुद्दा बनाकर इन तीनों की स्थानीय छवि और अहमियत को फीका करने की कोशिश रही है।
कांग्रेस की इस रणनीति से दिल्ली बिल्कुल जुदा है। एक ओर बीजेपी ने देश के लिए मोदी को अपना चेहरा घोषित कर दिया है, वहीं दिल्ली में शीला के सामने 2008 में बीजेपी किसी नेता को उतारने जैसी हिम्मत इस बार नहीं कर पा रही है। शीला के कद का कोई नेता न होने की बीजेपी की मजबूरी ने उसे दिल्ली का चुनाव मोदीमय करने और मंहगाई तथा बिजली पानी जैसे मुद्दों पर केन्द्रित करने को विवश कर दिया है। दिल्ली बीजेपी की कमजोरी शीला की बड़ी ताकत है। बीजेपी के पास ज्यादातर ऐसे नेता है जो विधानसभा या लोकसभा से ज्यादा छात्रसंघ के हुल्लड़बाज नेता जैसी की छवि पेश करते हैं। बीते चुनावों से पहले 40 लाख वोट बैंक वाली अनधिकृत कालोनियों को नियमित करने के शीला के एकमात्र दांव ने बीजेपी की हवा निकाल दी। साफ है कि हर राज्य में चुनाव कुछ चेहरों के इर्द गिर्द केन्द्रित हो गया है और ऐसे में दलों की पहचान गौण हो गई है।

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