सत्कर्म ऊध्र्वगामी नहीं होते
16-Sep-2013 05:45 AM 1235009

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:।।
जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।
ऐसे अनेक भक्त हैं जो अपने को कृष्णभावनामृत तथा भक्ति मे रत दिखलाते हैं, किन्तु अन्त:करण से वे भगवान् कृष्ण को परब्रहा्र नहीं मानते। ऐसे लोगों को कभी भी भक्ति-फल-भगवद्धाम गमन-प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार जो पुण्यकमों में लगे रहकर अन्तोगत्वा इस भववन्धन से मुक्त होना चाहते ळैं, वे भी सफल नहीं हो पाते, क्योंकि वे कृष्ण का उपहास करते हैं। दूसरे शब्दों में, जो लोग कृष्ण पर हँसते हैं, उन्हें आसुरी या नास्तिक समझना चाहिए। जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जा चुका है, ऐसे आसुरी दुष्ट कभी भी कृष्ण की शरण में नहीं जाते। अत: परमसत्य तक पहुँचने के उनके मानसिक चिन्तन उन्हें इस मिथ्या परिणाम को प्राप्त कराते हैं कि सामान्य जीव तथा कृष्ण एक समान हैं। ऐसी मिथ्या धारणा के कारण वे सोचते हैं कि अभी तो यह शरीर प्रकृति द्वारा केवल आच्छादित है और ज्यों ही व्यक्ति मुक्त होगा, तो उसमें तथा ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। कृष्ण से समता का यह प्रयास भ्रम के कारण निष्फल हो जाता है। इस प्रकार का आसुरी तथा नास्तिक ज्ञान-अनुशीलन सदैव व्यर्थ रहता है, यही इस श्लोक का संकेत हैँ ऐसे व्यक्तियों के लिए वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों जैसे वैदिक वाड्मय के ज्ञान का अनुशीलन सदा निष्फल होता है।
अत: भगवान को सामान्य व्यक्ति मानना घोर अपराध है। जो ऐसा करते है वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त रहते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के शाश्वत रूप को नहीं समझ पाते। बृहदविष्णु स्मृति का कथन है-
यो वेति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मन:।
स सर्वस्माद् बहिष्कार्य: श्रौतस्मार्तविधानत:।
मुखं तस्यावलोक्यापि सचेलं स्नानमाचरेत्।।
जो कृष्ण के शरीर को भौतिक मानता है उसे श्रुति तथा स्मृति के समस्त अनुष्ठानों से वंचित कर देना चाहिए। यदि कोई भूल से उसका मुँह देख ले तो उसे तुरन्त गंगा स्नान करना चाहिए, जिससे छूत दूर हो सकें।Ó लोग कृष्ण की हँसी उड़ाते हैं क्योंकि, वे भगवान् से ईष्र्या करते हैं। उनके भाग्य में जन्म-जन्मान्तर नास्तिक तथा असुर योनियों में रहे आना लिखा है। उनका वास्तविक ज्ञान सदैव के लिए भ्रम में रहेगा और धीरे धीरे वे सृष्टि के गहनतम अन्धकार में गिरते जायेंगे।Ó
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्तयनन्यमनसों ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।
हे पार्थ। मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णत: भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं।
इस श्लोक में महात्मा का वर्णन हुआ है। महात्मा का सबसे पहला लक्षण यह है कि वह दैवी प्रकृति में स्थित रहता है। वह भौतिक प्रकृति के अधीन नहीं होता और यह होता कैसे है? इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में की गई है - जो भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता है वह तुरन्त ही भौतिक प्रकृति  के वश से मुक्त हो जाता है। यही वह पात्रता है। ज्योंही कोई भगवान का शरणागत हो जाता है वह भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है। यही  मूलभूत सूत्र है। तटस्था शक्ति होने के कारण जीव  ज्योंही भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त होता है त्योंही वह आध्यात्मिक प्रकृति के निर्देशन में चला जाता है। आध्यात्मिक प्रकृति का निर्देशन ही दैवी प्रकृति कहलाती है। इस प्रकार से जब कोई भगवान के शरणागत होता है तो उसे महात्मा पद की प्राप्ति होती है।
महात्मा अपने ध्यान को कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी ओर नहीं ले जाता, क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि कृष्ण ही आदि परम पुरूष, समस्त कारणों के कारण हैं।  इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ऐसा महात्मा अन्य महात्माओं या शुद्धभक्तों की संगति से प्रगति करता है। शुद्धभक्त तो कृष्ण के अन्य स्वरूपों, यथा चतुर्भुज महाविष्णु रूप से भी आकृष्ट नहीं होते। वे न तो कृष्ण के अन्य किसी रूप से आकृष्ट होते हैं, न ही वे देवताओं या मनुष्यों के किसी रूप की परवाह करते हैं। वे कृष्णभावनामृत में केवल कृष्ण का ध्यान करते हैं। वे कृष्णभावनामृत में निरन्तर भगवान् की अविचल सेवा में लगे रहते हैं।

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