दंगों में झुलसता उत्तरप्रदेश
16-Sep-2013 07:22 AM 1234792

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा है कि गैर भाजपा शासित राज्यों में दंगे भड़क सकते हैं इसलिए सतर्क रहना चाहिए। यह निष्कर्ष है या चेतावनी?  समझ से परे है। मुजफ्फरनगर और मेरठ सहित उत्तरप्रदेश के जिन तीन जिलों में दंगे भड़के हैं। उन्हें भड़काने में सरकार की लापरवाही जिम्मेदार है। अभी तक दंगों ने लगभग 36 लोगों की जान ली है, यह सरकारी आंकड़ा है। गैर सरकारी एजेंसियां लगभग 175 मौतों का दावा करती हैं। दंगों के मामले में बड़े राज्यों में बिहार का रिकार्ड सबसे बेहतर है यहां कम से कम उत्तरप्रदेश के मुकाबले एक-चौथाई घटनाएं ही घटी हैं। वर्ष 2009 से वर्ष 2013 के मार्च तक देश में जो 2969 दंगे हुए उनमें से सबसे कम 137 साम्प्रदायिक हिंसा की घटना बिहार में घटी जबकि जनसंख्या की दृष्टि से यह राज्य उत्तरप्रदेश के बाद दूसरे नम्बर पर है। गुजरात में सुशासन का और शांति का नगाड़ा पीटने वाले नरेन्द्र मोदी भी साम्प्रदायिक हिंसा नहीं रोक पाए अनुपातित दृष्टि से देखा जाए तो छोटी जनसंख्या वाले राज्य गुजरात में 246 सम्प्रदायिक हिंसा घटी हैं। जो बहुत अधिक है मध्यप्रदेश का रिकार्ड भी संतोषजनक नहीं है यहां भी 432 साम्प्रदायिक हिंसा की घटना घटी हैं।
हालांकि इन राज्यों की खासियत यह रही है कि यहां कोई बड़ी घटना नहीं घटी। मध्यप्रदेश में भोजशाला जैसे संवेदनशील मुद्दे को राज्य सरकार ने कुशलता से नियंत्रित किया लेकिन उत्तरप्रदेश में मशीनरी पूरी तरह नाकाम साबित हुई है। कुछ माह पूर्व ही जब म्यांमार में हिंसा भड़की थी तो उसका असर सबसे ज्यादा उत्तरप्रदेश में देखने को मिला। गौतम बुद्ध की मूर्ति ध्वस्त कर दी गई। अब उत्तरप्रदेश सरकार ने मेरठ के आईजी ब्रजभूषण, सहारनपुर के डीआईजी और कमिश्नर को हटा दिया है। सहारनपुर का नया डीआईजी अशोक जैन, और एडीजी भावेश कुमार सिंह को बनाया गया है। दंगे की आग मेरठ, बागपत तक फैल गई थी। हालांकि फिलहाल शांति है। मुजफ्फरनगर जिले की कैराना विधान सभा सीट से भाजपा विधायक हुकुम तथा भारतीय किसान संघ के नेता नरेश टिकैत पर केस दर्ज किया गया है। मुजफ्फरनगर में मीडिया को घुसने नहीं दिया जा रहा था। लेकिन जो अपुष्ट खबरंे मिल रही थी उनसे पता चला है कि जिले में दंगाईयों को देखते ही गोली मारने के आदेश थे। सेना ने कुछ इलाकों में स्थिति लगभग काबू में कर ली है बाकी जगह भी फिलहाल शांति है। राजनीति शुरू हो चुकी है राज्य सरकार हमेशा की तरह दंगों के लिए विपक्ष खासकर भाजपा पर निशाना साध रही है और उधर भाजपा ने राज्य सरकार पर निशाना साधा है। अयोध्या में 84 कोस की यात्रा के समय अखिलेश सरकार ने जो सख्ती दिखाई थी उसे देखकर लगा था कि सरकार इस हिंसा को रोक सकेगी लेकिन यह कदम उठाया नहीं जा सका। राज्य सरकार ने आनन-फानन में सेना बुलाकर हालात को नियंत्रित करने की कोशिश की लेकिन यह काफी नहीं है क्योंकि दोनों सम्प्रदायों में कुछ ऐसे तत्व सक्रिय हैं जो घृणा और वैमनस्य फैलाने का काम कर रहे हैं। राज्य सरकार ने भी वोट बैंक के चलते पिछले दिनों कुछ इस तरह से एक समुदाय विशेष की पैरवी की जिससे बाकी समुदाय में गलत संदेश गया और हिंसा फैलाने वाले तत्वों को मौका मिल गया। राज्य में मुख्यमंत्री की करीबी आजम खान इस हिंसा को जिला स्तर की सामान्य घटना मान रहे हैं। हालात ऊपर से भले ही शांत दिख रहे हों लेकिन भीतर ही भीतर ज्वालामुखी धधक रहा है और इसे जानबूझकर और अधिक हवा दी जा रही है। इस दंगे के बाद भविष्य में शांति रहेगी, इस बात की उम्मीद बहुत कम है। सरकार चापलूसों और अकर्मण्य लोगों से घिरी हुई है जो मुख्यमंत्री को सही स्थिति बताने में कामयाब नहीं हैं। अखिलेश यादव के पद सम्भालने के बाद उम्मीद लगी थी कि वे मुलायम सिंह यादव से अलग हटकर ज्यादा कुशलता से सत्ता का संचालन करेंगे लेकिन अखिलेश यादव अधिकारियों के भुलावे में आकर सही निर्णय लेने में नाकामयाब रहे। सबसे पहले तो उन्होंने दुर्गाशक्ति को हटाने का गलत कदम उठाया इससे यह संदेश गया कि अखिलेश  कुशल अधिकारियों को ठिकाने लगा रहे हैं। आजम खान भी स्थिति को समझने में नाकाम रहे हैं। वे आरोप लगाते हैं कि 84 कोस की परिक्रमा के मामले से सरकार निकली नहीं थी कि मुजफ्फरनगर में दंगा हो गया उन्होंने कहा कि कुछ पार्टियों और लोगों का काम दंगा भड़काना रह गया है।
1 साल, 104 दंगे
बरेली के दंगे, मथुरा के दंगे, प्रतापगढ़, गाजियाबाद आदि। बहुत लंबी लिस्ट है। पिछले एक साल में यह राज्य दंगों का राज्य बन गया है। किसी भी दंगे से सरकार ने सबक नहीं लिया क्यों? उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बनवारी लाल जोशी ने गृहमंत्रालय को भेजी अपनी रिपोर्ट में अखिलेश सरकार पर आरोप लगाएं है कि ये सरकार दंगों के भड़कने का इंतजार कर रही थी। दंगों की आशंका के बाद भी राज्य सरकार ने समय रहते जरूरी कदम नहीं उठाए। अखिलेश यादव सरकार दंगों को रोकने और उनसे निपटने में नाकाम रही है। पहले 12 महीने कानून व्यवस्था के लिहाज से बदतर साबित हुए हैं और इसने बहुमत की सरकार की हैसियत को ही सवालों के घेरे में कर दिया है। दिग्विजय सिंह ने कहा कि इससे तो अच्छी बसपा सरकार थी। ताजा घटनाक्रम के तहत दंगों वाले इलाके से सपा समर्थक पुलिस अधिकारियों को हटाकर वहां मायावती के काल के पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति की गई है। याने सरकार को कुछ नया और कारगर उपाय नहीं सूझा तो वही पुराना तरीका अपनाया लेकिन सवाल यह है कि क्या ये उपाय दंगा रोकने के लिए काफी हैं?
राज्यपाल ने सवाल उठाए कि महापंचायत पर रोक क्यों नहीं लगाई गई? अखिलेश के विरोधी कहते हैं कि विहिप की यात्रा पर तो रोक लगाने में कोई देरी नहीं की तब यहां क्या हुआ कि महापंचायत के लिए अनुमति दे दी गई। अखिलेश यादव दंगों का सारा दोष उन कथित संप्रदायिक ताकतों के सिर मढ़ते आएं हैं जो उनकी सरकार को कमजोर करना चाहती हैं, लेकिन ऐसे कितने ही मामले हैं जिसमें सपा के नेता लिप्त रहे हैं। राज्यपाल द्वारा गृहमंत्रालय को भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 2012 में सांप्रदायिक हिंसा के 104 मामले दर्ज किए गए थे। गृह मंत्रालय की इस रिपोर्ट में लिखा है कि 100 से ज्यादा दंगों में 34 लोगों की मौत हुई और 456 जख्मी हो गए। जबकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने माना था कि 2012 में उत्तर प्रदेश में 27 दंगे हुए।  पिछले साल यानी 2012 में 1 जून को मथुरा में, 23 जून को प्रतापगढ़, 23 जुलाई और 11 अगस्त को दो बार बरेली में दंगे हुए। यही नहीं, 17 अगस्त को लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद में सड़कों पर उपद्रव हुआ तो 17 सितंबर को गाजियाबाद के मसूरी इलाके में बवाल। 24 अक्टूबर को फैजाबाद में दंगे हुए। इस साल 5 मार्च 2013 को अंबेडकरनगर के टांडा में हत्या के बाद बवाल हुआ। 
धारा 144 का प्रभाव नहीं
उत्तरप्रदेश पुलिस ने इस दंगे को रोकने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया मुजफ्फरनगर में शहीद चौक व मंदौड़ में सभा हो गई वह भी धारा 144 के बावजूद। इन सभाओं में राजनीतियों ने जम कर जहर उगला। बाद में गांवों में भी जब माहौल बिगडऩे लगा तो पुलिस ने व्यवस्था ठीक से नहीं संभाली। तलवारें, पिस्तोलें, हथगोले बरामद हो रहे थे। सीडी बांटी जा रही थी लेकिन पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियां करके इतिश्री कर दी।

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