16-Sep-2013 06:36 AM
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देश के सबसे बड़े विपक्ष दल भारतीय जनता पार्टी में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर जो संशय के बादल छाए हुए हैं वे लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी और सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर

जोशी के असहयोग के कारण गहरा गए हैं। पहले लग रहा था कि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो गणेश विसर्जन के बाद भाजपा अपनी उस दुविधा का भी विसर्जन कर देगी जो मोदी को लेकर भाजपा के दिग्गज नेताओं ने पैदा की है। गोवा अधिवेशन के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने जिस तरह खुलकर मोदी की मुखालफत की थी उसे देखते हुए कहा जा रहा था कि शायद नरेंद्र मोदी को लेकर कोई नया फार्मूला भाजपा के भीतर से ही प्रकट होगा, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी के थिंक टेंक और रणनीतिकारों को यह स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा के तुरुप के पत्ते नरेंद्र मोदी को खेलने का यही वक्त है। यदि इसमें देरी की गई तो फिर कभी भी दिल्ली की गद्दी नहीं मिल सकेगी। संघ का यह आंकलन गलत नहीं है। सारे देश में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में सर्वाधिक पसंद किया जा रहा है।
पहले पहल यह आशंका थी कि मोदी की स्वीकार्यता शहरी इंटरनेट प्रेमी टेक्नोसेवी वर्ग के बीच ही है, लेकिन हालिया सर्वेक्षणों ने इस अवधारणा को गलत सिद्ध किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के कस्बाई और ग्रामीण मानस को भी टटोलने की कोशिश की है और उससे यह जाहिर हो रहा है कि मोदी वहां भी आगे हैं। हालांकि वहां वे उतने आगे नहीं हैं, लेकिन औसत दृष्टि से देखा जाए तो इस वक्त देश में प्रधानमंत्री के रूप में सर्वस्वीकार्य व्यक्ति नरेंद्र मोदी ही हैं। यदि नरेंद्र मोदी को इस वक्त प्रोजेक्ट नहीं किया जाता है तो भविष्य में शायद वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में उतनी प्रमुखता से उभरकर सामने न आ पाएं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक संकट में देश की जनता नरेंद्र मोदी को खेवनहार के रूप में देख रही है। यद्यपि देश के कई मुख्यमंत्रियों ने बेहतरीन काम किया है, लेकिन मोदी को जिस तरह मीडिया ने प्रचारित किया और जिस तरह उनका विरोध किया उससे मोदी को एडवांटेज मिला है। उनका नाम देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर है।
यह कमाल की बात है कि जिस व्यक्ति को एक दशक पहले भारतीय राजनीतिक इतिहास का सबसे बड़ा खलनायक प्रोजेक्ट किया गया आज वही विकास का नायक बनकर प्रधानमंत्री पद का आकांक्षी बन चुका है। भाजपा ने जनमानस में आए इस बदलाव को भांप लिया है। भांपना पार्टी की मजबूरी भी है। यदि अभी एक लोकप्रिय निर्णय नहीं लिया तो इतिहास इंतजार नहीं करेगा। यह बात भाजपा और भाजपा के रणनीतिकार अच्छी तरह जानते हैं। शायद इसीलिए एक सोची-समझी रणनीति के तहत मोदी की ब्रांडिंग की जा रही है। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के लालकिले से भाषण के समकक्ष नरेंद्र मोदी का भुज में भाषण और अब छत्तीसगढ़ में अंबिकापुर में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की विकास यात्रा के समापन के मौके पर लालकिलेनुमा स्टेज से मोदी का संबोधन स्पष्ट संकेत है कि भाजपा में अब यह करीब-करीब तय हो गया है कि आगामी प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी का चेहरा नरेंद्र मोदी ही हैं।
हालांकि बीच में एक दौर ऐसा आया था जब लगने लगा था कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ पार्टी में एक धड़ा लामबंद हो रहा है लेकिन अब वह संशय भी मिटा दिया गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी को ही आगे लाना होगा तभी भाजपा एक महत्वपूर्ण आंकड़े तक पहुंच सकती है। जानकार यह भी कह रहे हैं कि संघ के इस फार्मूले को दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने थोड़ी तब्दीली के साथ पेश किया है। यह आडवाणी का कहना है कि यदि मोदी स्वीकार्य न हों तो विकल्प के रूप में एक और चेहरा प्रस्तुत किया जाना चाहिए। जिसकी स्वीकार्यता उन राजनीतिक दलों में हो जो मोदी को धर्मनिरपेक्ष नहीं मानते। इस सिलसिले में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का नाम उभरकर सामने आया था। मीडिया में भी इसकी सुगबुगाहट सुनाई दी, लेकिन मामला कुछ और है। दरअसल आडवाणी इस बहाने एक विकल्प के तौर पर अपनी उम्मीदवारी को भी खुला रखना चाहते हैं और जहां तक शिवराज का प्रश्न है उनका नंबर आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज के बाद ही आने वाला है। शिवराज की भूमिका को लेकर जो बयानबाजी की जा रही थी वह केवल अटकलें ही हैं।
सच तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे किसी भी फार्मूले के पक्ष में नहीं है। उसका लक्ष्य नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में और कालांतर में प्रधानमंत्री के रूप में देखने का है।
हालांकि अंक गणित की दृष्टि से देखा जाए तो मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी प्रस्तुत करना एक बड़ा जोखिम है। भारतीय जनता पार्टी की हालत का अंदाजा चार राज्यों के चुनावी परिणामों के बाद ही लग सकेगा। जिनमें से दो में भाजपा की सरकार है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि विधानसभा चुनाव के समय मोदी लहर काम करेगी। लेकिन उससे पहले यदि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया गया तो चुनावी परिणाम से उसे जोड़कर देखा जाएगा। जिस तरह कर्नाटक में देखा गया था यह बात अलग है कि स्वयं मोदी और बाद में भाजपा ने उस आंकलन को खारिज कर दिया। इससे यह तो लगता है कि मोदी राज्यों में राज्य सरकारों के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी फैक्टर को ज्यादा नहीं रोक सकते। लेकिन लोकसभा चुनाव के समय उनकी स्वीकार्यता बढ़ सकती है। क्योंकि जनता को वर्तमान यूपीए सरकार से बहुत शिकायतें हैं और जिस तरह आर्थिक हालात देश में चल रहे हैं उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा सरकार के बस में देश की अर्थ नीति को सुधारना नहीं है। इसके लिए दिल्ली में नई सरकार ही काम कर सकती है और वह सरकार स्थिर तथा मजबूत होनी चाहिए। यदि जनता का यह नजरिया बनता है तो फिर नरेंद्र मोदी को भारी लाभ मिलने की संभावना है। जिस तरह के चुनावी सर्वेक्षण आ रहे हैं उनसे भी यही संकेत मिला है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करके भाजपा लाभ उठा सकती है। सर्वेक्षणों में मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करने की स्थिति में भाजपा को 36 प्रतिशत मत मिलने की संभावना जताई जा रही है। इतने मत तो उस वक्त भी नहीं मिले थे, जब भाजपानीत एनडीए गठबंधन सत्ता में था।
भाजपा कभी भी 25 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त नहीं कर पाई है इसलिए यह सर्वेक्षण थोड़ा अतिरंजित प्रतीत होता है और इसमें एक तथ्य यह भी विचार करने योग्य है कि भाजपा को पिछले आम चुनाव में 18 प्रतिशत वोट मिले थे इसलिए यह कहना कि उसके वोट दुगने हो जाएंगे एक तरह से हवा बाजी ही है। पर इतना अवश्य हो सकता है कि भाजपा को 25 से 27 प्रतिशत के करीब वोट मिलें और उसके सहयोगी पांच प्रतिशत के करीब वोट लेने में कामयाब हों। ऐसे हालात में वर्तमान एनडीए, जिसका एक घटक जेडीयू टूटकर अलग हो चुका है-कम से कम अपने बूते 200 से 220 सीटें प्राप्त कर सकता है और ऐसा हुआ तो नरेंद्र मोदी की ताजपोशी में फिर कोई विशेष परेशानी नहीं आएगी। क्योंकि राष्ट्रपति परंपरानुसार सबसे बड़े राजनीतिक दल को सरकार बनाने का आमंत्रण देंगे और तब तक कोई न कोई फार्मूला तैयार हो ही जाएगा। लेकिन हालात पूरी तरह ठीक नहीं हैं। कुछ समय पहले एक खबर आई थी कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने में जल्दबाजी न बरतने का सुझाव दिया है। हालांकि बाद में खुद शिवराज ने इस खबर का जोरदार खंडन किया और कहा कि उन्होंने ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया, लेकिन इस खबर का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि मोदी को प्रोजेक्ट करने से कहीं न कहीं ध्रुवीकरण अवश्य होगा। भले ही वह धु्रवीकरण साफ दिखाई न दे किंतु धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल मोदी के बहाने ध्रुवीकरण करते हुए अपना उल्लू सीधा करना चाहेंगे। हाल ही में उत्तरप्रदेश में घट रही घटनाएं इसका प्रमाण हैं। यदि ऐसा होता है तो मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली जैसे राज्यों में जहां भाजपा अल्पसंख्यक वोटों को भी ललचायी नजरों से देख रही है-भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसीलिए मोदी को घोषित करना एक तरह का जोखिम तो है लेकिन भाजपा के भीतर यह जोखिम उठाने के लिए स्ट्रांग मैसेज दिया जा चुका है। राष्ट्रीय स्वयंसेवी संघ और भाजपा नेताओं के बीच 8 सितंबर को दोपहर तक चली मीटिंग में इसी तथ्य पर मंथन किया गया। भीतरी सूत्र बताते हैं कि आडवाणी को छोड़कर बाकी किसी भी बड़े लीडर ने मोदी की मुखालफत नहीं की।
आडवाणी ने भी खुलकर कुछ नहीं बोला बस कुछ संकेत दिए उनका सार यह था कि फिलहाल विधानसभा चुनाव तक इस फैसले को रोका जाए बाद में चुनावी नतीजे देखकर फैसला किया जाए। लेकिन मोदी के समर्थक अब इंतजार करने के मूड में नहीं हैं। संघ के नेताओं ने साफ कर दिया है कि पितृ पक्ष से पहले इस तरह की घोषणा करना उचित रहेगा। संघ के पदाधिकारी मनमोहन वैद्य पहले ही कह चुके हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मोदी के बारे में अपनी राय स्पष्ट कर दी है। अब भारतीय जनता पार्टी को इस पर निर्णय लेना है। पहले-पहल तो यह कठिन लग रहा था, लेकिन सितंबर के पहले सप्ताह में जिस तरह भाजपा के भीतर और बाहर माहौल बना उससे यह साफ हो गया कि मोदी को लेकर अब भाजपा में दुविधा समाप्त हो चुकी है। प्रश्न यह है कि मोदी के विषय में जानने को उत्सुक देश के मतदाताओं की दुविधा कब समाप्त होगी। क्या आडवाणी को मनाने में भाजपा कामयाब होगी या फिर उन्हें कोपभवन में बिठाकर राजनाथ सिंह अकेले ही गोवा की तर्ज पर मोदी के नाम की घोषणा कर देंगे।