31-Aug-2013 08:41 AM
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संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तों मुनिब्र्रहा्र न चिरेणाधिगच्छति।।

भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
संन्यासी दो प्रकार के होते हैं। मायावादी सन्यासी सांख्यदर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं तथा वैष्णव संन्यासी वेदान्त सूत्रों के यथार्थ भाष्य भगवत-दर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं। मायावादी संन्यासी भी वेदान्त सूत्रों का अध्ययन करते हैं किन्तु वे शंकराचार्य द्वारा प्रणीत शारीरिक भाष्य का उपयोग करते हैं। भागवत सम्प्रदाय के छात्र पांचरात्रिकी विधि से भगवान् की भक्ति करने में लगे रहते हैं। अत: वैष्णव संन्यासियों को भगवान की दिव्यसेवा के लिए अनेक प्रकार के कार्य करने होते हैं। उन्हें भौतिक कार्यों से कोई सरोकार नहीं रहता, किन्तु तो भी वे भगवान् की भक्ति में नाना प्रकार के कार्य करते हैं। किन्तु मायावादी संन्यासी, जो सांख्य तथा वेदान्त के अध्ययन एवं चिन्तन में लगे रहते हैं, वे भगवान् की दिव्य भक्ति का आनन्द नहीं उठा पाते। चूँकि उनका अध्ययन अत्यन्त जटिल हो जाता है, अत: वे कभी-कभी ब्रहाचिन्तन से ऊब कर समुचित बोध के बिना ही भगवान की शरण ग्रहण करते हैं। फलस्वरूप श्रीमद्भगवत का भी अध्ययन उनके लिए कष्टकर होता है। मायावादी संन्यासियों का शुष्क चिन्तन तथा कृत्रिम साधनों से निर्विशेष विवेचना उनके लिए व्यर्थ होती है। भक्ति में लगेे हुए वैष्णव संन्यासी अपने दिव्य कर्मों को करते हुए प्रसन्न रहते हैं और यह भी निश्चित रहता है कि वे भगवद्धाम को प्राप्त होंगे। मायावादी संन्यासी कभी-कभी आत्म-साक्षात्कार के पथ से नीचे गिर जाते हैं और फिर से समाजसेवा, परोपकार जैसे भौतिक कर्म में प्रवृत्त होते हैं। अत: निष्कर्ष यह निकला कि कृष्णभागवामृत के कार्यों में लगे रहने वाले लोग ब्रहा्र-अब्रहा्र विषयक साधारण चिन्तन में लगे सन्यासियों से श्रेष्ठ हैं, यद्यपि वे भी अनेक जन्मों के बाद कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वाभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।
जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता। जो कृष्णभावनामृत के कारण मुक्तिपथ पर है वह प्रत्येक जीव को प्रिय होता है और प्रत्येक जीव उसके लिए प्यारा है। यह कृष्णभावनामृत के कारण होता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी जीव को कृष्ण से पृथक नहीं सोच पाता, जिस प्रकार वृक्ष की पत्तियाँ तथा टहनियाँ वृक्ष से भिन्न नहीं होतीं। वह भलीभाँति जानता है कि वृक्ष की जड़ में डाला गया जल समस्त पत्तियों तथा टहनियों में फैल जाता है अथवा आमाशय को भोजन देने से शक्ति स्वत: पूरे शरीर में फैल जाती है। चूँकि कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाला सवों का दास होता है, अत: उसकी चेतना शुद्ध रहती है। चूँकि उसकी चेतना शुद्ध रहती है, अत: उसका मन पूर्णतया नियंत्रण में रहता है। मन के नियंत्रित होने से उसकी इन्द्रियाँ संयमित रहती हैं। चूँकि उसका मन सदैव कृष्ण में स्थिर रहता है, अत: उसके विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। न ही उसे कृष्ण से सम्बद्ध कथाओं के अतिरिक्त अन्य कार्यों में अपनी इन्द्रियों को लगाने का अवसर मिलता है। वह कृष्णकथा के अतिरिक्त और कुछ सुनना नहीं चाहता, वह कृष्ण को अर्पित किए हुए भोजन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं खाना चाहता और न ऐसे किसी स्थान में जाने की इच्छा रखता है जहाँ कृष्ण सम्बन्धी कार्य न होता हो। अत: उसकी इन्द्रियाँ वश में रहती हैं। ऐसा व्यक्ति जिसकी इन्द्रियां संयमित हों, वह किसी के प्रति अपराध नहीं कर सकता। इस पर कोई यह प्रश्र कर सकता है, तो फिर अर्जुन अन्यों के प्रति युद्ध में आक्रामक क्यों था? क्या वह कृष्णभावनाभावित नहीं था? वस्तुत: अर्जुन ऊपर से ही आक्रामक था, क्योंकि जैसा कि द्वितीय अध्याय में बताया जा चुका है, आत्मा के अवध्य होने के कारण युद्धभूमि में एकत्र हुए सारे व्यक्ति अपने-अपने स्वरूप में जीवित बने रहेंगे। अत: आध्यत्मिक दृष्टि से कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि में कोई मारा नहीं गया। वहाँ पर स्थित कृष्ण की आज्ञा से केवल उनके वस्त्र बदल दिये गये। अत: अर्जुन कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध करता हुआ भी वस्तुत: युद्ध नहीं कर रहा था। वह तो पूर्ण कृष्णभावनामृत में कृष्ण के आदेश का पालन मात्र कर रहा था। ऐसा व्यक्ति कभी कर्मबन्धन से नहीं बँधता।