31-Aug-2013 09:51 AM
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स समय नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की चुनाव समिति की बैठक में भाजपा को अपने दम पर बहुमत लाने की प्रेरणा दी और इसके लिए कुछ सूत्र बताए, उससे तीन-चार दिन पहले ही

एक सर्वेक्षण के नतीजे जारी हुए थे, जिनमें कहा गया था कि यूपीए और एनडीए दोनों सरकार नहीं बना पाएंगे। लेकिन मोदी इस आंकलन से विचलित नहीं थे, भले ही सर्वेक्षण भाजपा को अकेले दम पर 140 से अधिक सीटें जीतने के काबिल नहीं बता रहे हों, लेकिन मोदी को विश्वास है कि भारतीय जनता पार्टी 272 सीटें जीत सकती है और अगले 200 दिनों में इस लक्ष्य को हासिल भी किया जा सकता है।
दरअसल मोदी ने यह दावा इसलिए किया है कि भारतीय जनता पार्टी देश की 323 सीटों पर कभी न कभी जीत हासिल कर चुकी है। मोदी का यह सांख्यिकी आंकड़ा गलत तो नहीं है। क्योंकि भाजपा अकेले देश में 500 सीटों पर चुनाव लडऩे का लक्ष्य बना रही है। इससे यह सिद्ध होता है कि भाजपा अब अकेले ही चलेगी। वैसे भी शिवसेना और अकाली दल को छोड़ दिया जाए तो भाजपा के साथ कोई और है भी नहीं। जनता दल यूनाइटेड का सहारा था तो वह भी भाजपा को बेसहारा कर गया। अब मोदी का ही सहारा है। मोदी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं। उनका यह आत्मविश्वास अतिआत्मविश्वास भी हो सकता है। जो कि है ही। लेकिन मोदी अपनी टीम को उच्च उत्साह के स्तर पर तो रखना ही चाहते हैं। इससे फायदा यह होगा कि भाजपा चुनाव से पहले सहयोगियों को तलाशने की बजाए चुनाव के बाद सहयोगियों को तलाशेगी क्योंकि सबसे बड़े राजनैतिक दल के नाते राष्ट्रपति भाजपा को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे जैसा की शंकरदयाल शर्मा ने किया भी था। भले ही उस वक्त भाजपा की सरकार 13 दिन चल पाई, लेकिन उस परंपरा को कायम रखा जाए तो इस बार वैसे हालात बन सकते हैं कि भाजपा माहौल को देखते हुए किसी ऐसे चेहरे को सामने कर दे जो सर्वस्वीकार्य हो। इस फार्मूले का एक पहलू यह है कि यदि 272 सीटों का लक्ष्य बनाकर पार्टी 180 के करीब सीटें पा लेती है तो मोदी को भी स्वीकार किया जा सकता है। जयललिता, चंद्रबाबू नायडू सहित कुछ उत्तर भारत के प्रभावशाली नेता भी उस स्थिति में मोदी का समर्थन कर सकते हैं और यदि सीटों की संख्या कम रहती है, किंतु भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है तो भाजपा से ही किसी ऐसे चेहरे को प्रस्तुत किया जा सकता है जो धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़कर बैठा हो और जिसे व्यापक स्वीकार्यता मिल सकती हो। ऐसे हालात में एनडीए से दूर चले गए राजनैतिक दल एक साथ इकट्ठा हो सकते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ने 29 दलों का गठबंधन चलाया था और देश में अच्छा शासन भी दिया था। उस अनुभव को यहां दोहराया जा सकता है, लेकिन उसके लिए किसी ऐसे चेहरे को प्रस्तुत करना होगा जो सर्वस्वीकार्य हो और ऐसा होने पर जनतादल यूनाइटेड सहित तमाम दल फिर से एनडीए के बैनर तले यूनाइटेड हो सकते हैं।
बहरहाल यह एक अलग समीकरण है। मोदी अलग सियासी चाल चल रहे हैं। उनका मकसद यह है कि वे किसी भी तरह भाजपा से मुस्लिम समाज को जोड़ लें और यदि पूरे मुस्लिम समाज को न जोड़ें तो कम से कम अति गरीब तथा दलित, पिछड़े और अति पिछड़े कहे जाने वाले 8 करोड़ पसमान्दा मुस्लिम समाज को अपने खेमें में लाएंं। इससे भाजपा को राहत मिल सकती है। लेकिन इसके लिए भाजपा को लंबी छलांग लगानी होगी। जब अटल जी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी थी उस वक्त सारे देश में भाजपा को 25 प्रतिशत से ऊपर वोट मिले थे जो अब घटकर 16 प्रतिशत रह गए हैं। इसका अर्थ यह है कि 9 प्रतिशत वोट बैंक बढ़ाना होगा और उसके साथ-साथ बहुमत पर पहुंचने के लिए 5-6 प्रतिशत और बढ़ाना होगा। कुल मिलाकर वोट बैंक दोगुना करना होगा। क्या यह दिवास्वप्न है। मौजूदा हालात में जब कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा है इसे एक सपना ही कहा जाएगा, लेकिन भाजपा के पास इसका विकल्प भी नहीं है। जिस तरह राजनीतिक धु्रवीकरण हो रहा है। भाजपा के अलग-थलग पडऩे की आशंका पैदा हो गई है। स्वयं भाजपा के भीतर भी ध्रुवीकरण कम नहीं है। एक छोर पर मोदी हैं तो दूसरे छोर पर आडवाणी जैसे नेता हैं।
टोपी प्रकरण के बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी भाजपा के भीतर जारी ध्रुवीकरण के एक छोर पर विराज गए हैं। ऐसे हालात में मोदी की सफलता न केवल विपक्षियों को धराशायी करेगी बल्कि पार्टी के भीतर भी धर्मनिरपेक्षता का ध्वज थामे सफलता की आशा कर रहे तमाम नेताओं को धराशायी कर सकती है। पर असल सवाल वही है कि मोदी को सफल बनाने के लिए जो बहुमत चाहिए वह बहुमत आएगा कैसे। मोदी ने 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के समकक्ष जो भाषण दिया था और उसमें जो मुद्दे उठाए थे उन मुद्दों पर भाजपा देश व्यापी माहौल बनाना चाह रही है। कांगे्रेस की कुंडली तैयार की जा रही है ताकि उस पर तथ्यों के साथ और पूरे तर्क के साथ धावा बोला जा सके। चूंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पूछ परख बढ़ी है इसलिए मोदी एक बड़े बजट के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छा जाना चाहते हैं, लेकिन मोदी की पकड़ मुख्यत: गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में है। वैसे मोदी के समर्थकों का कहना है कि वे देश के 12 राज्यों में अपनी ताकत दिखा सकते हैं, जहां से 194 सीटें आती हैं पर सवाल यह है कि यह पूरी सीटें भाजपा जीत नहीं सकती। ज्यादा से ज्यादा 60 प्रतिशत का आंकड़ा पाया जा सकता है। वह भी उस सूरत में जब मोदी की लहर चले। इन राज्यों में से मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और गोवा ऐसे हैं जहां पहले ही भाजपा की सरकारें हैं और कई बार लोकसभा चुनाव के समय प्रदेश सरकार के कामकाज की समीक्षा भी होती है तथा सत्ता विरोधी रुझान भी नुकसानदायी हो सकता है। मध्यप्रदेश में पिछली बार यह अनुभव हो चुका है जब सत्ताविरोधी रुझान लोकसभा चुनाव में प्रभावी हो गया था और तकनीकी रूप से देखा जाए तो भाजपा तथा कांगे्रेस दोनों बराबरी पर ही थीं।