31-Aug-2013 09:44 AM
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राज्य सरकारें अपनी पीठ थपथपा रही हैं कि उन्होंने बाढ़ की विभीषिका से निपटने में अपने कौशल का प्रदर्शन किया है और लोगों को समय रहते बाढ़ से बचा लिया। लेकिन सिर्फ जानें ही बचाई गई हैं। माल

और असबाब तो फिर भी नहीं बचा। बहरहाल बाढ़ से पिछले वर्ष की अपेक्षा कम जनहानि हुई यह एक राहत भरा समाचार है लेकिन इसमें भी दु:खद पहलू यह है कि बहुत से शहरों में पानी इसलिए भराया क्योंकि वहां से कुछ किलोमीटर पहले बांधों से पानी छोड़ा गया। पानी बांध से छूटेगा तो बाढ़ निश्चित आएगी यह प्रशासन को पता है लेकिन बाढ़ का पानी भरने वाले क्षेत्रों को खाली नहीं कराया जा रहा है। वहां के लोगों को दूसरी जगह जमीनें देकर शिफ्ट करने की जहमत न सरकार उठाती है न स्थानीय प्रशासन। आलम यह है कि हर साल किसी न किसी शहर में बांध से छूटा हुआ पानी भर जाता है और सेना बुलाकर राहत कार्य चलाने पड़ते हैं जबकि प्रशासन को मालूम है कि कितने क्यूसेक पानी छोडऩे से किन इलाकों में पानी भराएगा।
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर का ही उदाहरण लें तो समझ में आता है कि इस शहर में ग्वालटोली और उसके आसपास के इलाकों में वर्ष 2006 से लेकर इस वर्ष तक तकरीबन प्रतिवर्ष पानी भरा रहा है। खास कर तवा और बरगी डेम से जब पानी छोड़ा जाता है तो यह इलाके डूब जाते हैं। लेकिन फिर भी इन डूब सम्भावित क्षेत्रों में जमीनों का डायवर्जन किया जा रहा है, रजिस्ट्रियां हो रही हैं। कालोनियां काटी जा रही हैं। यह कैसी प्लानिंग है। जो शहर नदियों के किनारे बसे हुए हैं वहां मास्टर प्लान बनाते वक्त इतनी सावधानी तो बरती ही जानी चाहिए कि जो डूब क्षेत्र हों वहां बसावट की अनुमति बिल्कुल न दी जाए। न ही जमीन खरीदने बेचने की अनुमति हो। इन क्षेत्रों में सूखे दिनों में खेती अवश्य की जा सकती है। इसके अलावा किसी और गतिविधि की अनुमति नहीं होनी चाहिए। पर ऐसा होता आ रहा है। होशंगाबाद में पानी इस वर्ष पेपर मील की तरफ भी कुछ अधिक ही बढ़ गया क्योंकि जिन क्षेत्रों में पानी भराने की जगह थी या गुंजाइश थी वहां कालोनियां और बेतरतीब इमारतें बनी हुई हैं इन इमारतों को डुबोने के बाद भी पानी का घनत्व इतना था कि वह शहर के उन क्षेत्रों में भी फैल गया जो अपेक्षाकृत सुरक्षित समझे जाते थे। अब माहौल यह है कि सरकार बाढ़ राहत पहुंचा रही है, बाढ़ पीडि़तों को मुआवजा दिया जा रहा है जबकि इस राशि का उपयोग लोगों को सुरक्षित स्थानों पर वैकल्पिक जमीनें देकर बसाने के लिए होना चाहिए। सरकार बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले किसानों, निवासियों को मुआवजा देती है लेकिन बांध से पानी छोडऩे के बाद जो इलाके वर्ष दर वर्ष बारिश के समय जलमग्र हो रहे हैं वहां मकान बनाने वालों को पट्टे या उतनी ही जमीन देकर सुरक्षित स्थानों पर बसाया जाना चाहिए। बारिश कम होगी या अधिक इस बात का अनुमान लगाना कठिन है। लेकिन देश के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां बारिश आवश्यकता से अधिक होती है और बाढ़ भी आती है। इसके बाद भी बाढ़ से बचाव का कोई ठोस उपाय सरकार आज तक नहीं कर पाई है। बाढ़ को रोकने के लिए बांध या नदी के किनारे तटबंध बनाने की स्कीम कामयाब नहीं हो पाई है क्योंकि कई बार तेज पानी बरसने से तटबंधों के एक तरफ तो नदी का प्रकोप बना रहता है और दूसरे तरफ पानी को निकासी नहीं मिलने के कारण वही पानी काल बन जाता है और तटबंध मौत का कारण बन जाते हैं। बिहार में कुछ वर्ष पहले स्थानीय निवासियों ने तटबंध तोड़ कर अपनी जान बचाई थी लेकिन बाद में नदी का पानी भी इसी रास्ते घुस गया और तबाही मचा दी। सिचांई तथा बिजली की आवश्यकता के लिए कई जगह बड़े बांध बनाए गए हैं। कई जगह बनाए जा रहे हैं लेकिन नदी का सिद्धांत यह है कि उसे बिना अवरोध के बहने दिया जाना चाहिए। बहरहाल जो बांध बन गए हैं और जिनमें वर्षों से गाद जमा होने के कारण थोड़ी बारिश के बाद ही जो ओवरफ्लो हो जाते हैं उन बांधों के छोड़े गए पानी में डूबने वाली बस्तियों को शिफ्ट करना ही पड़ेगा अन्यथा यह बांध घाटे का सौदा साबित होंगे।
इस एक पहलू यह भी है कि बारिश के पानी को जो वनस्पति रोकती थी वह या तो नष्ट हो चुकी है या उसका अधिकांश भाग पानी में डूब गया है। जंगलों के डूबने से बाढ़ की भयावहता बढ़ गई है। बांधों को तोड़ा नहीं जा सकता। इनके तमाम नुकसान हैं लेकिन इसके बावजूद एक तथ्य यह भी है कि सिंचाई का रकबा बढ़ा है और बिजली भी मिल रही है। इसलिए रास्ता यही बचता है कि जिन क्षेत्रों में इन बांधों का पानी बरसात में भरा सकता है वहां बसावट न की जाए। या तो सरकार इन क्षेत्रों को खाली कराकर यहां वृक्षारोपण करे और लोगों को उचित मुआवजा देकर अन्यत्र बसाए या फिर सूखे दिनों में यहां खेती की इजाजत दी जाए लेकिन किसी भी स्थाई निर्माण की अनुमति न दी जाए और ऐसा करने वालों को दंडित भी किया जाए। साथ ही उस मिलीभगत को खत्म करने की जरूरत है जिसके चलते बिल्डर, ठेकेदार और अधिकारी मिलकर डूब क्षेत्रों में निर्माण कर डालते हैं। दूसरी बड़ी नाकामी केंद्र से लेकर राज्य तक बनाए गए आपदा प्रबंधन सेल की निष्क्रियता के चलते भी हैं जिसका अस्तित्व अभी तक सिर्फ कागजों पर है और बजट जिम्मेदार अधिकारियों की जेब में।