गहरी खाई
18-Sep-2019 08:43 AM 1234973
भारत में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई बीते पांच सालों में और ज्यादा गहरी हो गयी है। आज देश की आधी सम्पत्ति देश के नौ अमीरों की तिजोरियों में बंद है दूसरी ओर गरीब की थाली में मु_ी भर चावल भी बमुश्किल दिखायी देता है। यह गम्भीर चिन्ता का विषय है। केन्द्र सरकार की गलत नीतियों के कारण देश एक बड़े संकट से गुजर रहा है। गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है और अमीर तेजी से अमीर हो रहा है। यह आर्थिक विषमता अब चिन्ताजनक स्थिति तक बढ़ गयी है और गणतंत्र का स्थान अमीरतंत्र ने ले लिया है। अशिक्षा, बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई ने गरीब की कमर तोड़ दी है। देश के हजारों किसानों की जमीनें कर्जे पाटने में बिक चुकी हैं। हजारों किसान, किसानी छोड़कर दूसरे शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन चुके हैं। महानगरों में जाड़ा, गर्मी, बरसात रिक्शा खींच रहे हैं, अमीरों की गाडिय़ां साफ कर रहे हैं या सड़क किनारे बने ढाबों में बरतन मांज रहे हैं, ताकि घर पर कुछ पैसा भेज सकें। दिल्ली में सुबह के वक्त जगह-जगह चौराहों पर जमा गरीबों की भीड़ को देखिए, जो सामने से गुजरने वाली हर मोटर गाड़ी को इस लालसा से ताकते हैं कि अभी यह उनके पास रुकेगी और ढाई सौ रुपये दिहाड़ी पर दिन भर के काम के वास्ते उन्हें ले जाएगी। इस भीड़ को हर दिन काम भी नहीं मिलता, कुछ ही खुश नसीब होते हैं जो दिहाड़ी पर ले जाए जाते हैं, बाकि दिन भर काम की बाट जोहते शाम को खाली हाथ ही लौटते हैं। इन मजदूरों से बात करें तो पता चलता है कि कभी इनके बाप-दादा के पास अच्छी-खासी खेती की जमीनें थीं, दुधारू पशु भी थे, गांव में घर-परिवार खुशहाल था, मगर सरकारी नीतियों, महंगाई और कर्जे ने धीरे-धीरे सब कुछ छीन लिया। भारत एक ओर जहां दुनिया के तीसरे सबसे ज्यादा अरबपति धन कुबेरों का देश बन चुका है, वहीं इसके अंदर दुनिया की गरीब और भूखी आबादी का एक तिहाई हिस्सा निवास करता है। 90 के दशक में जब देश में आर्थिक सुधार शुुरू हुआ तो पूरी आबादी का एक छोटा सा हिस्सा तेजी से समृद्ध होने लगा था। ऐसा नहीं था कि बाकी लोगों को उसका फायदा नहीं मिल रहा था। करोड़ों लोग गरीबी रेखा से ऊपर चले गये, लेकिन अमीर-गरीब का फासला तेजी से बढ़ता ही गया। अब स्थिति यह है कि भारत आर्थिक असमानता के मामले में दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल है। असमानता का इंडेक्स 1990 में जहां 45.18 था, वहीं यह बढ़कर 60 फीसदी होने को है। ऐसा नहीं है कि अन्य के पास धन नहीं आया, लेकिन वह उस अनुपात में नहीं आया, जो ऊपर के वर्ग में था। अमीर और अमीर होते गये जबकि गरीब वहीं खड़े रह गये या उससे भी नीचे चले गये। दुनिया में ऐसी असमानता कहीं और देखने को नहीं मिलती। नयी कापोर्रेट संस्कृति ने आर्थिक विषमता को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश की बड़ी आईटी कम्पनियों के सीईओ का वेतन उसी कंपनियों के एक औसत कर्मी से 400 गुना ज्यादा है। दौलत के थोड़े से लोगों के हाथों में सिमट जाने का असर देश की राजनीति पर भी पड़ा है क्योंकि पैसे के दम पर अरबपतियों ने राजनेताओं को अपना गुलाम बना लिया है और इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से देश की राजनीति और सरकार आज उद्योगपति चला रहे हैं। इन उद्योगपतियों को गरीबों के उद्धार से, उनकी समृद्धि से, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार से कोई मतलब नहीं है। गरीब उनके लिए सस्ते मजदूर भर बने रहें, इसी में इन उद्योगपतियों की समृद्धि निहित है। ऑक्सफैम की सीईओ निशा अग्रवाल का कहना है कि यह अत्यंत चिंता का विषय है कि देश की अर्थव्यवस्था में हुई वृद्धि का फायदा मात्र कुछ लोगों के हाथों में सिमटता जा रहा है। अरबपतियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था की नहीं, बल्कि एक विफल अर्थव्यवस्था की निशानी है। -ऋतेन्द्र माथुर
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