लिटमस टेस्ट
18-Sep-2019 08:47 AM 1234993
झाबुआ के विधायक गुमान सिंह डामोर ने लोकसभा का चुनाव जीत लिया। उनके सांसद बन जाने से ये सीट खाली हो गई। अब यहां उपचुनाव होने हैं। कभी भी चुनावी बिगुल बज सकता है। इसलिए भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने अपना पूरा ध्यान यहां लगा रखा है। दरअसल, झाबुआ को मध्यप्रदेश की राजनीति की तासीर मापने का थर्मामीटर कभी नहीं माना गया। लेकिन, संयोग है कि ये मौका दूसरी बार झाबुआ को ही मिला। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया का निधन हो गया था। इस कारण वहां लोकसभा का उपचुनाव हुआ और प्रचंड मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस ने जीत का झंडा गाड़ा था। इस बार यहां विधानसभा की सीट भाजपा विधायक गुमान सिंह डामोर के इस्तीफे से खाली हुई। अब यहां विधानसभा का उपचुनाव होगा। ये उपचुनाव सामान्य नहीं होगा, बल्कि इससे प्रदेश की राजनीति के मिजाज का अंदाजा होगा। इस उपचुनाव के नतीजे दर्शाएंगे कि मतदाताओं का मूड क्या वास्तव में देश और प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व के लिए अलग-अलग होता है। ऐसे में यदि भाजपा फिर झाबुआ विधानसभा सीट जीतती है, तो इससे कमलनाथ सरकार के अस्थिर होने संकेत माना जाएगा। पर, यदि यहां से कांग्रेस जीती, तो भाजपा प्रदेश सरकार को छेडऩे की गलती शायद न करे। दोनों ही पार्टियों के लिए ये चुनाव जीतना प्रतिष्ठा की बात है। वे नहीं चाहते कि ये मौका उनके हाथ से निकले। देश की राजनीति में झाबुआ हमेशा ही केंद्र बिंदू रहा है। जो भी पार्टी सत्ता में रही, उसने आदिवासी उत्थान के नाम पर झाबुआ को ही प्रयोगशाला बनाया और योजनाएं चलाई। आजादी के बाद से कांग्रेस ने इस आदिवासी इलाके को अपने हिसाब से पाला-पोसा। लेकिन, करीब एक दशक में झाबुआ की राजनीति की धारा में काफी बदलाव आया। भाजपा के लिए आरएसएस ने काफी मेहनत से जमीन तैयार की है। नतीजा ये रहा कि जहां के आदिवासी मतदाता सिर्फ पंजेÓ को ही राजनीति का निशान समझते थे, उन्होंने कमलÓ को भी पहचानना शुरू कर दिया। लेकिन, इसके लिए भाजपा को कांग्रेस में ही सेंध लगाना पड़ी। दिलीप सिंह भूरिया ने ही भाजपा को लोकसभा में पहली जीत दिलाई थी। लेकिन, धीरे-धीरे राजनीतिक हालात बदले और कांग्रेस को भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। 2013 का विधानसभा और 2014 का लोकसभा चुनाव इस नजरिए से महत्वपूर्ण माना जाएगा, जब भाजपा को अच्छी सफलता मिली। लेकिन, इस बार फिर आदिवासी मतदाता का मानस बदला दिखाई दिया। ये उपचुनाव सिर्फ उम्मीदवार और पार्टी की हार-जीत ही तय नहीं करेगा, बल्कि इससे प्रदेश की राजनीति और मतदाताओं का मिजाज भी स्पष्ट होगा। सिर्फ पांच महीने में जिस तरह मध्यप्रदेश में राजनीति की धारा बदली है, वो क्या दिशा थी। इस बात का अंदाजा भी इस उपचुनाव से हो जाएगा। विधानसभा में भाजपा का पिछडऩा और कांग्रेस का जीतना क्या महज संयोग था या आंकड़ों की उलझन से कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका मिल गया? लेकिन, कुछ ही महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने फिर बाजी मार ली। ये वो बदलाव है, जिसने राजनीतिक के जानकारों को भी हतप्रभ कर दिया। वे समझ नहीं सके कि क्या देश का मतदाता प्रदेश और देश की राजनीति को इतनी गंभीरता से समझने लगा है कि एक पार्टी के हाथ में सारे सूत्र देकर उसे बेलगाम होने देना नहीं चाहता। झाबुआ का उपचुनाव ऐसी बहुत सी गफलत का जवाब देगा। - रजनीकांत पारे
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