वो लौटकर नहीं आए
18-Sep-2019 08:37 AM 1234954
देश के कई दूसरे हिस्सों की तरह बुंदेलखंड के गांवों में भी आमतौर पर दरवाजों पर ताले लगाने का रिवाज नहीं है। कुंडी लगाने भर से काम चल जाता है। कुंडी भी इसलिए कि जानवर घर में घुसकर नुकसान न करने पाएं। दरवाजे पर ताले का एक ही मतलब होता है- लंबी यात्रा। लेकिन बुंदेलखंड के गांवों में अब ताले वाले घर आम हो गए हैं। आलम यह है कि बुंदेलखंड के 15 जिलों के हर गांव में ऐसे मकान मिल जाएंगे, जिनमें ताले लटके हुए हैं। कई घरों में तो ताले वर्षों से लटके हुए हैं, क्योंकि जो काम की तलाश में गांव से निकले वो अभी तक लौटकर नहीं आए। बुंदेलखंड के जिलों से 20 फीसदी आबादी के पलायन के आंकड़े से भी हालात की भयावहता समझी जा सकती है। नियोजन विभाग का यह आंकड़ा 2001 का है। पिछले दो दशकों की स्थिति समझने के लिए 2011 की जनगणना का संदर्भ ले सकते हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक 26.9 लाख लोगों का पलायन दर्ज किया गया। बुंदेलखंड का इसमें बड़ा योगदान है। दूसरे स्रोतों के हवाले से भी बेहतर अंदाजा लगाया जा सकता है। पल्स पोलियो अभियान में लगी स्वास्थ्य विभाग की टीम ने इसी साल मार्च में अपनी जो रिपोर्ट दी है उसके मुताबिक बांदा में 21,819 घरों पर ताले पड़े मिले। इसी तरह चित्रकूट में 8944, महोबा में 5690 और हमीरपुर में 3912 घर लगातार बंद पाए गए। इलाके के किसानों-मजदूरों की बेहतरी के लिए काम करने वाली विद्याधाम समिति के कार्यकर्ताओं ने बांदा के नरैनी ब्लॉक की नौ ग्राम पंचायतों के सर्वेक्षण में पाया कि 23,167 लोगों की आबादी में 5600 लोग अभी घर नहीं लौटे हैं। झंडू का पुरवा इसी ब्लॉक में पड़ता है। 535 लोगों वाले इस मजरे से 195 लोगों के पलायन की तस्दीक हुई। इनमें से बहुत से लोग किसी न किसी जमादार की टोली का हिस्सा बनकर हरियाणा, पंजाब या राजस्थान में पथेरे का काम करने जाते हैं। पथेरे यानी भट्टों पर ईंट पाथने वाले मजदूर। बारिश का मौसम शुरू होने का मतलब है, ईंट भ_ों पर काम बंद। यह उनके घर लौट आने का समय है। पिछले साल दीवाली के आसपास जमादार के भेजे ट्रक में अपनी गृहस्थी और कुनबे के साथ अनजान से सफर पर निकले लोगों में से कई लौट भी आए हैं। ओमप्रकाश इन्हीं में हैं। पिछले करीब 17 वर्षों से वे इसी तरह गांव लौटते रहे हैं। मेहनत उनकी कुल पूंजी है, कहां और क्या काम मिलेगा यह जमादार जाने। इस बार हरियाणा के भिवाणी से लौटे हैं और इतने पस्त हैं कि गांव में रोपाई की मजदूरी करने की भी ताब नहीं। विद्याधाम समिति के संचालक राजा भैया कहते हैं, इनसे बंधुआ मजदूर की तरह काम लिया जाता है। जब तक शरीर में ताकत रहती है और ये लोग खटने लायक रहते हैं, काम मिलता रहता है। ताकत खत्म हुई नहीं कि वे उन्हें भगा देते हैं।Ó बीमार और काफी हद तक अशक्त ओमप्रकाश और उनकी पत्नी मीरा की वापसी को वह इसी श्रेणी में रखते हैं। अपने अनुभव के आधार पर वे यह भी बताते हैं कि अस्थायी पलायन के अलावा ऐसे मामले भी पता चलते हैं, जिनमें मजदूरी के निकले लोग फिर कभी नहीं लौटे। राजा भैया बताते हैं, किसी को, यहां तक कि उनके रिश्तेदारों को भी पता नहीं होता कि वे कहां हैं, और हैं भी या नहीं?Ó वे आगे जोड़ते हैं, यहां काम मिलता नहीं है तो लोग मकान या गहने रेहन पर रखकर बड़े काश्तकारों या साहूकारों से कर्ज लेते हैं। ब्याज इतना होता है कि दो हजार रुपये का कर्ज साल भर में पांच हजार रुपये हो जाता है। अगर यह नहीं चुका सके तो फिर पांच हजार पर ब्याज। कई बार यह रकम बढ़कर इतनी हो जाती है कि या तो उसका मकान बिकेगा, नहीं तो उनके पास दो ही विकल्प रह जाते हैं - पलायन या फिर खुदकुशी। और पलायन से इतना पूरा नहीं पड़ता कि वे कर्ज के जाल से बाहर निकल आएं। हां, कुछ बरस और जी लेते हैं।Ó कुछ अध्ययनकर्ता मानते हैं कि जिनके पास थोड़ी-बहुत खेती है, उनके पलायन की संभावना ज्यादा होती है। उनके मुताबिक ऐसे लोग इतने साधन संपन्न होते हैं कि घर पर रहकर खेती संभाल सकें ताकि दूसरे बाहर जाकर कमा सकें। यानी लघु और सीमांत किसान परिवारों के मुकाबले भूमिहीनों के पलायन की संभावना अपेक्षाकृत कम है। -सिद्धार्थ पाण्डे
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