सूख रहा मालवा
19-Aug-2019 06:59 AM 1234862
मालवा क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में वन होने, मिट्टी में जैविक पदार्थों की पर्याप्त मात्रा के होने से इस क्षेत्र की भूमि में आद्र्रता का स्तर अच्छा था और असिंचित क्षेत्र में भी अच्छी खेती होती थी। असिंचित क्षेत्र में पैदा होने वाले कठिया गेहूं की मांग अच्छी थी। अच्छी वर्षा, नदियों-नालों में वर्ष भर पानी बहने, अच्छे स्तर के कृषि उत्पादन को देखते हुए किसी जनकवि ने मालवा की विशेषताओं को इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया है-मालवा धरती धीर-गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर मालवा की उपजाऊ धरती और प्रचुर जल संसाधनों की स्थिति पर ग्रहण उस समय लगा जब आजादी के बाद बने बांधों की लंबी श्रृंखला में गांधीसागर बांध शामिल हुआ। यह चंबल घाटी विकास योजना के अंतर्गत बनने वाले तीन बांधों में प्रथम और प्रमुख था। संपूर्ण परियोजना द्वारा दोहन किए जल में गांधीसागर का योगदान 83 प्रतिशत था और 17 प्रतिशत पानी राजस्थान के राणास्थान के राणाप्रताप सागर का था। पानी में प्रमुख योगदान मध्यप्रदेश का ही था जो मालवा की जीवन रेखा कही जाने वाली चंबल नदी से आता है। बांधों में पानी की मात्रा कम न हो, इस हेतु जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के संग्रहण हेतु किसी नई संरचना के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इस तरह एक ओर तो मालवा क्षेत्र में वर्षा के जल संग्रहण हेतु किसी नई संरचना पर तो प्रतिबंध लगा ही, साथ ही पूर्व में बनाए गए करीब 3800 तालाबों में से अधिकांश कृषि भूमि की बढ़ती मांग के शिकार हो गए। मालवा के ग्रामीण क्षेत्र के आसपास की कृषि भूमि का अवलोकन करें तो कई स्थानों की कृषि भूमि के कभी तालाब की भूमि होने के अनेक प्रमाण मिल जाएंगे। तालाबों के नष्ट होने से इस क्षेत्र में भूजल पुनर्भरण की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। चंबल के जल ग्रहण क्षेत्र के वनों को किस तरह नष्ट किया गया, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जल ग्रहण के लिए शाजापुर और उज्जैन जिलों में इस समय एक प्रतिशत से भी कम भूमि पर वन है। वनों के विनाश का सीधा परिणाम यह हुआ कि वर्षा का पानी सीधे नदियों और नालों में आने लगा। गांधीसागर में चम्बल में आने वाले पानी का अधिकांश भाग बाढ़ों के माध्यम से आने लगा। 1961 से 1980 की बीस वर्षीय अवधि में चंबल में आने वाली बाढ़ों की संख्या का औसत 3.05 प्रति वर्ष था जो 1981 से 2000 की अवधि में बढ़कर 4.35 प्रति वर्ष हो गया है। बाढ़ों की बढ़ती संख्या बांध की सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रही है। भूजल विभाग के एक अनुमान के अनुसार, मालवा के भूजल भंडारों का स्तर पिछले 50 वर्षों में लगभग 4 मीटर नीचे चला गया। मध्य प्रदेश के जल संसाधन विभाग की भूजल शाखा की 2009 की रिपोर्ट के अनुसार, 2008 में भूजल के दोहन का स्तर देवास में 80.1 प्रतिशत, धार में 82.80 प्रतिशत, इंदौर में 125.43 प्रतिशत, मंदसौर में 97.35 प्रतिशत, नीमच में 80.93 प्रतिशत, रतलाम में 125.67 प्रतिशत शाजापुर में 96.40 प्रतिशत व उज्जैन में 98.61 प्रतिशत था। अब चंबल के जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा के जल दोहन पर लगे प्रतिबंध से सिंचित क्षेत्र में सतही स्रोत का योगदान पूर्व में कुल के 7.1 के प्रतिशत से गिरकर 5.3 प्रतिशत ही रह गया है। अब किसानों के समक्ष यह प्रश्न है कि वे अपनी सिंचाई की बढ़ती मांग को कैसे पूरा करें? किसानों ने सिंचाई सुविधाओं की तलाश में जहां पास में कोई नदी या नाला था, वहां पानी को सीधे पानी पंप लगाकर अपने खेतों की सिंचाई करना शुरू कर दिया। भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण नदियों और भूजल भंडारों के मध्य प्रकृति ने जो संबंध निर्धारित किया था, वह भी भंग हो गया। पूर्व में जब नदियों में बाढ़ आती थी और उनका जलस्तर काफी ऊंचा हो जाता था, उस समय वे आसपास के भूजल भंडारों को समृद्ध करती थीं और बाद में ग्रीष्मकाल में जब उनका जलस्तर काफी नीचे चला जाता था तो भूजल भंडारों के अपेक्षाकृत ऊंचे जल स्तर से उनमें पानी आता रहता और ग्रीष्मकाल में भी वे बहती रहती थीं। अब भूजल भंडारों का स्तर नीचे चले जाने से यह प्रक्रिया बाधित हो गई। अब पग-पग रोटी, डग-डग नीर वाले मालवा में फरवरी-मार्च के पहले ही छोटी-छोटी नदियां ही नहीं, चंबल जैसी बड़ी नदी में पानी का बहाव समाप्त हो जाता है और उनमें यत्र-तत्र डबरे ही भरे रह जाते हैं। - बृजेश साहू
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