सोनिया दोहराएंगी करिश्मा
19-Aug-2019 06:54 AM 1234820
सोनिया गांधी को कांग्रेस ने अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया है। ये कांग्रेस का अधिकार है। वह किसी को भी अपना अध्यक्ष चुन सकती है। लेकिन कुछ सवाल पूछने का हक देश की जनता को भी है। ऐसा ही एक सवाल है कि जब सोनिया गांधी को ही ये जिम्मेदारी स्वीकारनी थी, तो देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को इतने समय तक नेतृत्वविहीन क्यों रखा गया? नेतृत्वहीनता के इस दौर में कांग्रेस को क्यों 370 और तीन तलाक जैसे संवेदनशील मुद्दों पर फजीहत झेलनी पड़ी? क्यों इन दो बड़े मसलों पर विपक्ष संसद में सार्थक बहस करता हुआ और एकजुट नहीं दिखा? एक और सवाल ये भी कि अगर नेहरू-गांधी परिवार पार्टी का नेतृत्व छोडऩा भी चाहे, तो क्या कांग्रेसी उसे ऐसा करने देंगे? लोकतंत्र में अगर सत्ता पक्ष पर सुशासन देने की जिम्मेदारी होती है, तो विपक्ष से भी देश और समाज हित से जुड़े मुद्दों पर सतर्क रहने की उम्मीद की जाती है। क्या कांग्रेस पिछले दिनों दो बड़े मुद्दों पर ऐसा कर पाई? अगर नहीं, तो क्या इसके लिए राहुल गांधी के इस्तीफे से पैदा हुई स्थितियां जिम्मेदार नहीं हैं? आज की राजनीति में अगर विचारधारा की बात कोई करता है, तो अच्छी बात है। उस पर टिके रहने की गारंटी लेता है, तो और बड़ी बात है। कांग्रेस की बैठक में कुमारी शैलजा यह कहकर कायल कर गईं कि अगर पार्टी में मैं अकेली भी रह गई, तो भी अपनी विचारधारा को बचाए और बनाए रखने के लिए यहीं रहना पसंद करूंगी। शैलजा 3 लाख 42 हजार 345 वोटों से अंबाला से लोकसभा चुनाव हार गई थीं। संभवत: उनकी विचारधारा लोगों को पसंद नहीं आई। कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि चुनाव हारने पर विचारधारा बदल लेनी चाहिए। लेकिन अगर आपकी पार्टी के बड़े-बड़े चेहरे ही विचारधारा बदल रहे हों, तो सोचना आपको ही है कि उसमें खोट कहां है? बदलाव की जरूरत कहां है? राहुल गांधी भी कहते हैं कि पार्टी के कुछ लोग किनारा कर सकते हैं। लेकिन पार्टी अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ सकती। राहुल गांधी का ये बयान ऑफ द रिकॉर्ड है, लेकिन अपुष्ट नहीं है। कहते हैं कि कांग्रेस की बैठक में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की इस बात पर कई और सदस्यों ने उनके समर्थन में कोरस पढ़े। राहुल का ऐसा कहना और सोचना भी उनका अधिकार है। सवाल है कि ये विचारधारा है क्या? जिस फैसले को देश की संसद दो तिहाई या साधारण बहुमत से भी पास कर रहा हो, उसके विरोध की वैसे तो लोकतंत्र में कोई मनाही नहीं है, लेकिन फिर सोचना विरोध करने वालों को है। सोचना कांग्रेस को है कि जम्मू-कश्मीर से अन्याय, संघीय ढांचे पर हमला, अंधेरे में रखने जैसे आरोपों का क्या कोई खरीदार है? इस सवाल का जवाब कांग्रेस नहीं ढूंढ पाएगी। क्योंकि इस काम में बहुत मेहनत है। कांग्रेस इन दिनों मेहनत और होमवर्क नहीं करती। फिर जब माक्र्स आते हैं, तो कहती है कि टीचर ने कॉपी ठीक से नहीं जांची। कांग्रेस सोच सकती है कि बीजेपी की नीतियों की कॉपी कर वह क्या हासिल कर लेगी? सही भी है। तो यहीं पर कांग्रेस पर उन विकल्पों को तलाशने की जिम्मेदारी है, जिनके बूते पार्टी फिर से खड़ी हो सकती है। निश्चय ही ये जनता से जुड़े मुद्दे ही हो सकते हैं। जनता में सिर्फ आशा ही नहीं, भरोसा भरने वाले विकल्प हो सकते हैं। वैसे आप स्मार्ट हों, तो सामने वाले की नीतियों और मुद्दों को भी अपना बना सकते हैं। देश में आर्थिक बदलाव (जिसे उदारीकरण कहा गया) विशुद्ध रूप से कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार की सोच रही, लेकिन बीजेपी ने इसे न सिर्फ आगे बढ़ाया, बल्कि अब सीना तानकर ये कहने की स्थिति में आ गई कि उसने देश को आर्थिक महाशक्ति में तब्दील कर दिया और 5 ट्रिलियन की इकॉनमी का सपना सिर्फ वही पूरे कर सकती है। गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद पर 19 साल तक रहीं सोनिया गांधी की उन फैसलों को लेकर सराहना की जाती है, जिसने पार्टी को लगातार दो आम चुनावों में और कई राज्य विधानसभा चुनावों में जीत दिलाई। वह 1998 से 2017 तक पार्टी की अध्यक्ष रही थीं। वर्ष 2004 में उन्होंने पार्टी के चुनाव प्रचार का नेतृत्व किया और उसे जीत दिलाई। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार करते हुए इस पद पर मनमोहन सिंह को नामित करने का फैसला किया। उनके इस कदम को कई लोग एक राजनीतिक मास्टरस्ट्रोकÓ के तौर पर देखा गया। सूत्रों ने बताया कि 134 साल पुरानी पार्टी का नेतृत्व संभालने के सीडब्ल्यूसी के सर्वसम्मति वाले अनुरोध को स्वीकार करने का फैसला कर सोनिया ने साहस का परिचय दिया है क्योंकि वह लगातार अपने खराब स्वास्थ्य का सामना कर रही हैं। सोनिया गांधी ने अपनी राजनीतिक पारी में संप्रग के रूप में गठबंधन का सफल प्रयोग किया। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिये चुनाव पूर्व गठबंधन बनाना उनकी सबसे बड़ी सफलताओं में से एक थी। वहीं, जब 2009 में केंद्र में अपने दूसरे कार्यकाल की शुरूआत में संप्रग लडख़ड़ा रहा था, तब सोनिया गांधी ने गठबंधन की नाव पार लगाई। हालांकि, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समानांतर कैबिनेट चलाने को लेकर उनकी अक्सर ही आलोचना की जाती है। अब, एक बार फिर से पार्टी के खेवनहार के तौर पर ऐसे समय में उनकी वापसी हुई है, जब इस साल के आखिर में हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होना है। पार्टी नेताओं को उम्मीद है कि उनका नेतृत्व पार्टी कार्यकर्ताओं में नयी जान फूंकेगा। यह भी महसूस किया जा रहा कि सोनिया की वापसी बंटे हुए विपक्ष को भाजपा का मुकाबला करने के लिए एकजुट होने की एक वजह देगी। यह ठीक उसी तरह से है जब 1998 की शुरूआत में सोनिया के पार्टी की बागडोर संभालने के बाद से चीजें बदलनी शुरू हुई थीं। वह 1997 में पार्टी की प्राथमिक सदस्य बनी थी और 1998 में इसकी अध्यक्ष बनीं। वह 1999 से लगातार लोकसभा सदस्य हैं। - दिल्ली से रेणु आगाल
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