19-Aug-2019 06:15 AM
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मप्र के 364 शहरों में से 303 में झुग्गी बस्तियों का जाल बिछा हुआ है। इन शहरों की कुल आबादी का 28 फीसदी यानी करीब 93 लाख से अधिक लोग झुग्गी बस्तियों में नारकीय जीवन जी रहे हैं। गौरतलब है कि रोजगार की तलाश में शहरों का रुख करने वाली ग्रामीण क्षेत्रों की बड़ी आबादी झुग्गी बस्तियों में अपना ठिकाना बनाती है और अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर है। भारत के 2,613 नगरों में झुग्गी बस्तियां हैं। इनमें से 57 प्रतिशत बस्तियां तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में हैं। केंद्र सरकार ने साल 2015-16 में स्मार्ट सिटी योजना शुरू की थी लेकिन योजना के चार साल बाद भी आवंटित फंड का केवल 21 प्रतिशत ही खर्च किया गया है। अनुमान के मुताबिक, साल 2050 तक शहरी आबादी में 41.6 करोड़ लोग बढ़ जाएंगे।
2003 में भाजपा सत्ता में आई तो अगले साल यानी 2004 में प्रदेश को झुग्गी मुक्त बनाने का ऐलान किया गया। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार की कई योजनाओं का सहारा लिया गया। लेकिन आज स्थिति यह है कि प्रदेश के 303 शहरों की 28 फीसदी आबादी झुग्गी बस्तियों में रहने को मजबूर है। इस स्थिति में शहरों के सामने प्रदूषण, मूलभूत संसाधनों तक पहुंच की समस्या पैदा हो रही है और शहरों में रहना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। दरअसल, गांव से शहरों में आने वालों का बोझ मुख्य रूप से झुग्गी बस्तियों पर ही पड़ता है। स्थिति यह है कि 10 में से छह झुग्गीवासी नालों के पास रहते हैं और 10 में से चार को उपचारित जल नहीं मिलता। मध्य प्रदेश में 79.2 प्रतिशत झुग्गी बस्तियों में गंदे पानी की निकासी की व्यवस्था नहीं है। इससे जहां गंदगी का आलम रहता है, वहीं बीमारियों का खतरा भी बना रहता है। मध्य प्रदेश में 50 प्रतिशत से अधिक परिवारों को उपचारित जल नसीब नहीं होता। आबादी की इतनी बड़ी रिहायश की तरफ नीति निर्माताओं का ध्यान नहीं है।
देश के जिन 10 शहरों में वहां की आबादी के हिसाब से औसतन अधिक लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं उनमें जबलपुर सबसे ऊपर है। 2011 की जनसंख्या के अनुसार, यहां की कुल आबादी के 44.71 प्रतिशत लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। दूसरे स्थान पर विशाखापतनम, तीसरे स्थान पर ग्रेटर मुंबई, चौथे स्थान पर मेरठ, पांचवें स्थान पर रायपुर, छठे स्थान पर विजयवाड़ा, सातवें स्थान पर नागपुर, आठवें स्थान पर आगरा, नवें स्थान पर ग्रेटर हैदराबाद और दसवें स्थान पर कोटा है।
जमीनी हकीकत तो यह है कि फिलहाल इन बस्तियों में जनसुविधाएं, साफ पेयजल आदि की स्थिति लचर है। शहरों की चकाचौंध भरी दुनिया का हिस्सा होने के बावजूद यह आज भी अंधेरे में क्यों हैं, इनके उत्तर अभी ढूंढना बाकी है। जो साफ दर्शाता है कि इन गन्दी बस्तियां में रहने वाले लोग किस तरह इस विकसित समाज, राजनीतिक गलियारों और प्रशासन की बेरुखी का शिकार हैं। आजादी के 72 सालों के बाद भी स्लम में रहने वाले 35 प्रतिशत घरों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। देश की स्लम बस्तियों में रहने वाले 137,49,424 में से 11,92,428 परिवार आज भी पीने के साफ पानी से वंचित हैं। जिसमें से करीब 60 प्रतिशत घर सिर्फ पांच राज्यों- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में हैं। भारत के 100 स्मार्ट शहरों में से 27 शहरों ने अपने 41 स्लम बस्तियों की पुनर्विकास परियोजनाओं के लिए लगभग 3,797 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रस्ताव रखा है।
पूरे प्रदेश में झुग्गी बस्तियों का विस्तार करने वाले माफिया को नेताओं का संरक्षण मिल रहा है। भोपाल में ऐसा कोई इलाका नहीं है, जहां वैध बस्तियों की खाली पड़ी बेशकीमती जमीनों पर अवैध झुग्गी-बस्तियां नहीं पनप रही हों। यही नहीं पूरे प्रदेश में तालाबों और पोखरों के कैचमेंट एरिया में कब्जे हो गए हैं। इसमें भोपाल के बड़े तालाब के कैचमेंट एरिया में तो बस्तियां बस गई हैं। मैरिज गार्डन भी हैं, जिला प्रशासन ने इन्हें हटाने का प्रयास किया, लेकिन पूरी तरह से सफलता नहीं मिली।
- विकास दुबे