18-Jul-2019 09:14 AM
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देश में दो विरोधी विचारधाराओं वाले संगठन कम्युनिष्ट पार्टी और आरएसएस का गठन लगभग एक साथ हुआ। कम्युनिस्टों का लक्ष्य था कि रूस की बोल्शेविक क्रांति का अगला पड़ाव भारत हो। वहीं, आरएसएस ने हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य रखा और इसके लिए सौ वर्ष का समय निर्धारित किया। दोनों जल्दी ही अलग-अलग कारणों से अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हो गए। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए कम्युनिस्ट राजनीति में उतरे और तेजी से आगे बढ़े। जबकि आरएसएस ने भाजपा को आगे कर धीरे-धीरे बढऩा शुरू किया। लोकसभा चुनाव 2019 में कुल पांच कम्युनिस्ट सांसद जीते हैं। इनमें केरल से एक और तमिलनाडु से चार सांसद हैं। पार्टी के हिसाब से देखें तो सीपीएम के चार और सीपीआई के चार सांसद मौजूदा लोकसभा में हैं। कभी वाम मोर्चे में रही आरएसपी ने केरल से एक सीट जीती है, लेकिन सीपीएम को हराकर। अपने गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में सीपीएम केवल हारी ही नहीं है, उसका भविष्य भी खत्म हो गया प्रतीत होता है।
2014 के चुनाव में उसे वहां सीटें तो केवल 2 मिली थी, लेकिन उनका वोट 34 प्रतिशत था। इस दफा उन्हें पश्चिम बंगाल में कोई सीट तो नहीं मिली, वोट प्रतिशत गिर कर 7.46 प्रतिशत भर रह गया। त्रिपुरा भी सीपीएम के हाथ से निकल चुका है। पूरे उत्तर, मध्य और पूर्वी भारत से कम्युनिस्टों का लोकसभा नतीजों के लिहाज से सफाया हो गया है। सीपीआई, सीपीएम और आरएसपी का संसदीय रूप फिलहाल जीवित है। यह संभवत: इनके सृष्टिबीज हों, जो द्रविड़ इलाकों में शेष हैं। बाकी हिंदुस्तान से इनकी विदाई हो चुकी है। दूसरी तरफ आरएसएस है, जिसकी छाया-पार्टी भाजपा के लोकसभा में 303 सांसद हैं। यानी वह अपने दम पर सामान्य बहुमत 272 से बहुत आगे है। पिछली दफा से भी उसने 21 सीटें अधिक हासिल की हैं। वैचारिक रूप से उसने वाम तो वाम, सेक्युलर वैचारिक राजनीति को भी ध्वस्त कर दिया है। आज आरएसएस ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है।
गौरतलब है कि आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने संसदीय राजनीति में भाग लेने का फैसला किया था। वहीं, आरएसएस से जुड़े लोगों ने एक नए राजनीतिक दल भारतीय जनसंघÓ का गठन 1951 में कर लिया था। 1952 के लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने हिस्सा लिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने 3.29 फीसदी वोट लेकर 16 सीटें जीत लीं। वहीं जनसंघ तीन फीसदी वोट लेकर केवल तीन सीटें जीत सका। अलबत्ता, एक फीसदी से भी कम वोट पाकर अखिल भारतीय हिन्दू महासभा ने चार सीटें जीत ली थीं। जनसंघ और हिन्दू महासभा अधिकतर मुद्दों पर समान विचार रखते थे। पहले लोकसभा चुनाव में सीपीआई प्रमुख विपक्षी दल बन कर उभरी। बाद के दिनों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय राजनीति में लगातार बढ़त पर रही। दूसरी लोकसभा (1957) में इसके सदस्य 27 हो गए। संख्या बढ़ती रही। तीसरी लोकसभा (1962) में सीआईआई के 29 सदस्य थे। इसी वर्ष भारत-चीन सीमा विवाद हुआ और इसकी व्याख्या कम्युनिस्टों के कई गुटों ने भिन्न -भिन्न तरीके से की। इस प्रश्न पर पार्टी में विवाद हो गया। इसके बाद 1964 आया, जब पार्टी दो भागों में बंट गयी। दूसरे हिस्से को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) और संक्षेप में माकपा या सीपीएम कहा गया।
1967 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई को 23 और सीपीएम को 19 सीटें मिली। दोनों को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 42 हो जाती है। संसद में कम्युनिस्ट पार्टी की बढ़त जारी रही। 1969 में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में, नक्सलवाड़ी किसान आंदोलन को लेकर एक और टूट हुई। इस तरह तीसरी कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) कहा गया। बोल-चाल में इसे नक्सलवादी या माले भी कहा जाता था। इसके अब कई धड़े हो चुके हैं। 1971 में सीपीआई ने इंदिरा कांग्रेस के नेतृत्व वाली कांग्रेस से मिल कर चुनाव लड़ा, लेकिन नतीजे पिछली दफा जैसे ही आये। उसे फिर 23 सीटें मिली। अलबत्ता सीपीएम बढ़ कर 25 पर पहुंच गयी। इमरजेंसी का समर्थन करने के कारण सीपीआई का जनसमर्थन घट गया। सीपीएम को इससे फायदा मिला। धीरे-धीरे वह मजबूत होने लगी। 1977 में सीपीआई को केवल 7 सीटें मिली। सीपीएम 22 पर थी।
1980 में सीपीआई 11 और सीपीएम 37 पर आ गई। 1984 में सीपीआई 6 और सीपीएम 22 पर थे। वहीं 1989 में सीपीआई को 12 और सीपीएम को 33 सीटें मिलीं। फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी जैसे कुछेक अन्य वाम दल मिल कर लोकसभा में वाम धड़े के 53 सांसद थे। 1991 लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की संख्या बढ़ कर 56 हो गयी। लेकिन 1996 में वे घट कर 50 रह गए। 1998 में वे कुछ और घटे। वे अब 46 रह गए। संख्या गिरने का क्रम जारी रहा। 1999 के चुनाव में 42 वामपंथी सांसद ही आ सके। हिंदी क्षेत्र में वह केवल बिहार में एक सीट ला सकी। पंजाब और तमिलनाडु से भी उसके एक-एक सदस्य जीत कर आये थे। 2004 चुनाव में उनकी संख्या एक बढ़ी और वे 43 हो गए।
2009 के लोकसभा चुनाव में वाम पक्ष अचानक धड़ाम हो गया। इस बार कांग्रेस 145 से बढ़कर 206 पर पहुंच गई, लेकिन वाम पक्ष 16 सीटें ही ला पाया। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने उनकी स्थिति अत्यंत कमजोर कर दी। वहां सीपीएम अब सिंगल डिजिट में थी। उनके मात्र 9 सदस्य चुन कर आ सके और फिर आया 2014 का मोदी युग। इस बार वाम पक्ष से पूरे देश में केवल 10 सदस्य चुन कर आ सके। पूरे उत्तर भारत से वाम पक्ष का खात्मा हो गया। एक समय था जब रामजन्म भूमि आंदोलन के विषम काल में रामचंद्र की जन्मभूमिÓ और कर्मभूमि,Ó यानी फैजाबाद और बक्सर दोनों से कम्युनिस्ट जीते थे। फैजाबाद से मित्रसेन यादव और बक्सर से तेजनारायण यादव सीपीआई के उम्मीदवार थे और दोनों ने भाजपा को सीधी टक्कर में शिकस्त दी थी। अब इन इलाकों में कम्युनिस्टों का नामलेवा भी नहीं रह गया है।
-ऋतेन्द्र माथुर