सिंहासन या चरण पादुका?
18-Jul-2019 08:53 AM 1234828
राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपने इस्तीफे को ट्वीट किया और ट्विटर पर अपने परिचय को भी बदल दिया। इस तरह, यदि आधुनिक संचार के नियमों को मानें तो, फैसला आधिकारिक है। अब सबके मन में एक ही सवाल है। अगला कांग्रेस अध्यक्ष कौन होगा? उससे भी अहम सवाल ये है कि स्वेच्छा से लिए वनवास से राहुल गांधी के लौटने तक उनके उत्तराधिकारी को क्या मिलेगा। सिंहासन या महज चरण पादुका। ये पहला मौका नहीं है। जब कांग्रेस पार्टी आगे कौनÓ की दुविधा का सामना कर रही है। पार्टी को पहली बार 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के देहांत के बाद इस स्थिति से गुजरना पड़ा था। लेकिन 2019 की स्थिति कुछ अलग है। कोई दल या व्यक्ति शाश्वत नहीं होता। एक समय आएगा जब कांग्रेस पार्टी इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगी। ये वही पार्टी है। जिस पर विभाजन और भारत की आजादी के तत्काल बाद के दिनों में लोगों ने सर्वाधिक भरोसा जताया था। पर ये समझना एक भूल होगी कि एक सदी से भी अधिक पुरानी कांग्रेस केवल नेतृत्व के बदलने से ही युवा बन जाएगी। लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस की पूर्ण पराजय भाजपा की शानदार जीत के मुकाबले कहीं अधिक निर्णायक थी। वास्तव में, नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी तो पहले से ही तय मानी जा रही थी। 2018 के विधानसभा चुनावों से लेकर 2019 के लोकसभा चुनावों के परिणाम आने तक कांग्रेस की सियासी तकदीर पूरी तरह बदल गई। 2018 में राहुल गांधी के नेतृत्व में एक उत्साहित कांग्रेस पार्टी ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा को पराजित किया था और कर्नाटक में भाजपा को उसके ही खेल में मात देते हुए गठबंधन सरकार बनाई थी। उससे पहले दिसंबर 2017 में, गुजरात में कांग्रेस के चुनावी अभियान ने भाजपा को इस कदर चिंतित कर दिया था कि आसन्न हार को जीत में बदलने के लिए पार्टी के दिग्गज नेताओं को भाग कर गुजरात पहुंचना पड़ा था। कांग्रेस जब 2019 के चुनावों में वापसी की उम्मीद कर रही थी, राहुल गांधी को एक-एक कर कई झटके लगे। क्षेत्रीय दलों का साथ आने से इनकार करना, रणनीतिक गठबंधनों का टूटना, देश के मिजाज पढऩे में उनकी नाकामी आदि। कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली और सार्वजनिक छवि से लेकर अपनी मूल विचारधारा तक, हर स्तर पर खुद को नए सिरे से गढऩे और कायाकल्प करने की जरूरत है। हम आज तकनीकी क्रांति के दौर में है। जब जिंदगी के हर पहलू पर प्रौद्योगिकी हावी है। हमारी राजनीतिक पसंद-नापसंद पर भी। मतदाताओं की राय का निर्माण और सुदृढ़ीकरण अब अधिकाधिक डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर पार्टी विशेष के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ और उसके भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संबद्ध संगठनों ने एक समय टेक्नोलॉजी के खिलाफ एक तीखा अभियान चलाया था। पर भाजपा आज सोशल मीडिया के खेल में सबसे आगे है। उसने नई तकनीकों को अपनाया है और डिजिटल दुनिया में एक सफल राजनीतिक अभियान चलाने के लिए खुद को जरूरी विशेषज्ञता से लैस किया है। देश में तकनीकी क्रांति लाने का दावा करने वाली कांग्रेस, लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाने के लिए इन नई तकनीकों के इस्तेमाल में बुरी तरह पिछड़ गई है। भाजपा के पास भारत के विकास के लिए एक निश्चित रोडमैप था और उसने प्रभावी तरीके से उसे जनता के बीच रखा और यहीं पर कांग्रेस नाकाम साबित हुई। अपेक्षाकृत युवा नेता के हाथ में बागडोर होने के बावजूद कांग्रेस मतदाताओं, खास कर युवा और पहली बार वोट डालने वाले वोटरों से तादाम्यÓ स्थापित नहीं कर पाई। क्या नेतृत्व में परिवर्तन से पार्टी की समस्याएं दूर हो सकती है? कांग्रेस को निश्चय ही एक नया नेता चाहिए। विरासत में राजनीतिक नेतृत्व मिलने के दिन बीत चुके हैं। पर नए कांग्रेस नेतृत्व को एक साथ कई काम करने होंगे। सर्वप्रथम, संसद में पार्टी की ताकत चाहे जो हो, पार्टी को राजनीतिक तौर पर निरर्थक साबित नहीं होना चाहिए। सत्तारूढ़ पार्टी के हर काम का विरोध करने की बजाय, कांग्रेस रचनात्मक विरोध और मुद्दा-आधारित सहयोग का रवैया अपना सकती है। साथ ही, पार्टी को लोगों को बेचैन करने वाले मुद्दों को उठाने और उनके वास्तविक समाधान पेश करने की भी जरूरत है। भाजपा को कांग्रेस से अलग करने वाली एक प्रमुख बात है इसके नेतृत्व की विश्वसनीयता। नरेंद्र मोदी की वैचारिक अवधारणाओं से कोई कितना भी असहमत हो, वह एक समर्पित, ईमानदार और कड़ी मेहनत के लिए तैयार व्यक्ति के रूप में उभरकर सामने आते हैं। सबसे बढ़कर, उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की बनती है जो कि अपनी पार्टी के लिए, अपनी सरकार के लिए और राष्ट्रीय हित में अपने व्यक्तिगत जीवन, अपनी पसंद-नापसंद और अपनी सुख-सुविधाओं की कुर्बानी देने के लिए सदैव तैयार रहता है। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण है कांग्रेस को यह देखना कि जनता उसे क्यों नकार रही है? इसका सही और सटीक उत्तर ही कांग्रेस को संजीवनी प्रदान करेगा। आजादी की लड़ाई से लेकर नेहरू-इंदिरा युग हो चाहे राजीव गांधी-डॉ. मनमोहन युग, कांग्रेस हमेशा से देश के दलित, मुस्लिम, आदिवासी, किसानों, मजदूरों या कहें कि देश के सभी गरीब, जरूरतमंदों की प्रतिनिधि समझी जाती रही है। परन्तु आज ये कहना मुश्किल होगा कि देश का कोई वर्ग विशेष, धर्म विशेष या व्यवसाय विशेष कांग्रेस से कुछ उम्मीद रखता है। क्यों ऐसा हुआ, इसका चिंतन कांग्रेस को करना होगा। ये भी सच है कि आज अगर भारतीय राजनीति में बीजेपी और हिंदुत्व हावी है, तो इसका कुछ श्रेय या दोष कांग्रेस को भी जाता है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना हो चाहे शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में उलटना। कांग्रेस भी धर्म की राजनीति से अछूती नहीं रही है। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप से कांग्रेस बच नहीं सकती है। हालांकि, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि इससे खासकर मुसलमानों का तो कोई भी भला नहीं हुआ। कुछ नेताओं ने कांग्रेस हाई कमान को समझाया कि भाजपा का हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का मुद्दा, कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद पर भारी रहता है। इसकी काट के लिए राहुल गांधी इस बार मंदिर-मंदिर घूमते रहे। प्रियंका गांधी ने भी यही किया। लेकिन नरम हिंदुत्व की नीति कांग्रेस के काम नहीं आयी। कांग्रेस को एक छोटी सी बात समझ क्यों नहीं आयी कि अगर लोगों को हिंदूवादी नेता ही चाहिए तो फिर नरम हिन्दू क्यों, कट्टर हिन्दू क्यों नहीं? कांग्रेस का हिन्दू क्यों, भाजपा का हिन्दू क्यों नहीं? आखिर भाजपा तो अपने गठन से लेकर आज तक हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर जीती-मरती आयी है। हिंदुत्व का मुद्दा बीजेपी की पिच है। इस पर उतरना कांग्रेस की भूल थी। कांग्रेस को क्षेत्रीय नेताओं को वह सम्मान और तवज्जो देनी होगी, जिसके वे हकदार हैं। अगर पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भाजपा को धूल चटाई है, तो इसका मुख्य कारण कप्तान अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत/सचिन पायलट, कमलनाथ और भूपेश बघेल को काफी हद तक अपने तरीके से काम करने की मिली छूट भी है। इसी तरह कांग्रेस को अन्य राज्यों में भी मजबूत कर्मठ नेताओं को अपने तरीके से काम करने की आजादी देनी होगी। राहुल गांधी बेशक कांग्रेस के अध्यक्ष न रहें। लेकिन ये समझना होगा कि कांग्रेस की राजनीति में वे महत्वपूर्ण बने रहेंगे और बीजेपी के हमलों का केंद्र भी वही रहेंगे। उनको ये समझना होगा कि उनके बाद जो भी उनके पद पर आएगा। उस पर विपक्ष आरोप लगाएगा कि वो तो कठपुतली हैं तथा रिमोट कण्ट्रोल उनके पास (राहुल गांधी) है। कांग्रेस को इससे बेपरवाह होकर अपना काम करना चाहिए। - दिल्ली से रेणु आगाल
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