जल-कूटनीति
18-Jul-2019 08:38 AM 1234851
नरेंद्र मोदी का भारतीय राजनीति में एक प्रभावी ताकत के रूप में उदय, उनके समक्ष मौजूद विदेश नीति संबंधी चुनौतियों को कम नहीं कर सकता। इनमें अंतर्राष्ट्रीय जल विवाद भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए, कम्युनिस्ट शासित नेपाल का चीन की तरफ रुझान न सिर्फ वहां कई स्कूलों में मंदारीन भाषा की पढ़ाई अनिवार्य किए जाने से, बल्कि ढाई अरब डॉलर लागत वाली 1200 मेगावाट की बूढ़ी-गंडक बांध परियोजना को दोबारा पटरी पर लाए जाने से भी जाहिर होता है। भारत की परिधि पर ताबड़तोड़ बांध तैयार करने में चीन की सक्रियता म्यांमार से लेकर तिब्बत और उससे आगे पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर तक में दिख रही है, जहां वह 720 मेगावाट की कारोट और 1,124 मेगावाट की कोहाला परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है। कोहाला तथाकथित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा योजना के तहत सबसे बड़ा चीनी निवेश है। दक्षिण एशिया में दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी बसती है, पर उन्हें दुनिया के जल संसाधनों के महज 8.3 फीसदी से काम चलाना पड़ता है। जल इस क्षेत्र के लिए तेल जैसा महत्वपूर्ण संसाधन हो गया है, जहां अन्य ऊर्जा स्रोतों के सहारे तेल पर निर्भरता कम की जा सकती है। जल का कोई और विकल्प नहीं है। भारत को जल कूटनीति को क्षेत्रीय विदेश नीति के महत्वपूर्ण औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। ताकि नियम आधारित सहयोग और संघर्ष निवारण की व्यवस्था संभव हो सके। नदी बेसिनों को लेकर भारत की एक विशिष्ट स्थिति है। ये क्षेत्र का इकलौता ऐसा देश है। जो ऊपरी, मध्यवर्ती और निचली, तीनों ही श्रेणी की नदी बेसिनों में आता है। व्यापक भौगोलिक विस्तार होने के कारण क्षेत्र की सभी महत्वपूर्ण नदी बेसिनों में भारत की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी है। भारत ऊपरी धारा वाले देशों खास कर चीन और पाकिस्तान के नदी जल संबंधी क्रिया-कलापों से प्रभावित हो सकता है, पर खुद भारत के पास इस तरह की गतिविधियों की बहुत कम गुंजाइश है। क्योंकि वह निचली धारा के देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ क्रमश: सिंधु और गंगा की संधियों में बंधा है। वास्तव में चीन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बहाव वाली अपनी नदियों को पुनर्नियोजित करने के प्रयासों का प्रभाव भारत से अधिक एशिया के किसी देश पर नहीं पड़ेगा। क्योंकि चीनी नियंत्रण वाले इलाकों से निकलने वाली नदियों के जल का करीब आधा-सीधे या नेपाल से होकर-अकेले भारत को प्राप्त होता है। फिर भी जल-कूटनीति को शायद ही भारतीय विदेश नीति के प्रमुख औजारों में शामिल किया जाता हो। भारत ने यदि जल को सामरिक संसाधन माना होता और द्विपक्षीय रिश्तों को साधने में जल-कूटनीति पर जोर दिया होता, तो उसने एकतरफा सिंधु जल संधि (आईडब्लूटी) पर हस्ताक्षर नहीं किए होते, जो अब भी नदी जल में हिस्सेदारी संबंधी दुनिया की सबसे उदार संधि है। भारत के मुख्य वार्ताकार निरंज गुलाटी ने अपनी किताब में स्वीकार किया है कि आईडब्लूटी संधि किए जाने से पहले भारत में जल की उपलब्धता पर इसके संभावित दीर्घकालीन असर के बारे में कोई अध्ययन नहीं कराया गया था। आज भारत की निचली सिंधु बेसिन में बढ़ते जल संकट के कारण भूजल स्तर के घटने की रफ्तार के मामले में पंजाब-हरियाणा-राजस्थान भूपट्टी अरब प्रायद्वीप के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर है। इस बीच, चीन और पाकिस्तान नदी जल को भारत के खिलाफ औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। पाकिस्तान की जल युद्ध रणनीति, आईडब्लूटी के संघर्ष-समाधान के प्रावधानों के सहारे किसी तरह की असहमति को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना देने पर केंद्रित है। चीन की 2017 में भारत को नदी जल संबंधी आंकड़े देना बंद करने की कार्रवाई- जो न सिर्फ द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन थी। वरन उसके कारण असम में बाढ़ संबंधी गैरजरूरी मौतें भी हुईं। साफ है कि कैसे दबाव बनाने की कूटनीतिक में चीन को अपरंपरागत तरीकों के इस्तेमाल से भी गुरेज नहीं है। सिर्फ सिंधु नदी मामले में अपनी मजबूत स्थिति का इस्तेमाल कर ही भारत पाकिस्तान के अपरंपरागत युद्ध को समाप्त करने की आशा कर सकता है। - अक्स ब्यूरो
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