आर्थिक आपातकाल की ओर बढ़ता देश
31-Aug-2013 09:14 AM 1234799

भारत की तेल कंपनियां दिवालिया होने की कगार पर है। उनका यह दिवालियापन भारतीय उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने के कारण नहीं बल्कि तेजी से नीचे जाती रुपए की कीमतों के कारण है। 1947 से लेकर आज तक देश ने इतनी आर्थिक परेशानियां कभी नहीं झेली। आपातकाल के समय भी नहीं और 1991 में भी नहीं जब अर्थ व्यवस्था को वैश्विक बाजार के लिए खोल दिया गया था। यह सच है कि उस वक्त देश का सोना गिरवी रखा गया और मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा, लेकिन तब भी स्थिति उतनी दयनीय नहीं थी। कम से कम 24 रुपए 58 पैसे में एक डॉलर मिल ही जाया करता था। लेकिन आज महज तीन वर्ष में रुपया दयनीय स्थिति में पहुंच चुका है। डॉलर ने रुपए का खून निचोड़ लिया है। लगभग 40 प्रतिशत की गिरावट पिछले 4 वर्षों में दर्ज की गई है। जिम्बाब्वे को छोड़कर दुनिया के किसी भी देश में मुद्रा की कीमत इतनी नहीं गिरी। आलम यह है कि यूरोप में अखबारों में भारतीय अर्थव्यवस्था को बोगस इकोनॉमी कहा जाने लगा है और उधर अमेरिका अभूतपूर्व आर्थिक संकट के द्वार पर खड़ा होने के बावजूद डॉलर की मजबूती पर न केवल गौरवांवित हो रहा है बल्कि भारत से कारोबार समेटने वाली कंपनियां अब अमेरिकी डेस्टिनेशन की तलाश में हैं। यानी छह सौ अरब डॉलर की बेलआउट स्कीम को अमेरिका ने अपनी कुशलता से सफल बना लिया है पर इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 4-4 कुशल अर्थशास्त्रियों की मौजूदगी के बावजूद भारत का रुपया जर्जर और जीर्णशीर्ण स्थिति में पहुंच गया। वर्ष 2008 में जब रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले 49.82 के स्तर पर पहुंच गई थी उस वक्त हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने कुछ ठोस कदम उठाए थे जिसके चलते अगले दो वर्ष में डॉलर के मुकाबले रुपए को मजबूती मिली और रुपए की कीमत 45.09 प्रति डॉलर तक पहुंची। वे ही नीतिकार और वही सरकार आज सत्तासीन है, लेकिन मुद्रा का अवमूल्यन लगातार रिकार्ड बनाता जा रहा है। एक सप्ताह के भीतर ही तीन रुपए की गिरावट!!! लगता है हम भारत में नहीं जिम्बाब्वे में हैं जहां मुद्रा वाल पेपर की तरह उपयोग की जा रही है। आने वाले दिनों में हालात काबू में नहीं किए गए तो रुपए उन सारे बैरियर्स को ध्वस्त कर देगा जो हमारे कुशल वित्तमंत्री पी. चिदंबरम लगाने की बात कर रहे हैं। चिदंबरम निश्चित रूप से गहरी नींद नहीं सो पाते होंगे। हर अगले दिन रुपए का दाम क्या होगा इस आशंका में नींद हराम होना तय बात है। कितनी दयनीय स्थिति है। विश्व की विशाल अर्थव्यवस्था का वित्तमंत्री रुपए की गिरती कीमतों के सामने असहाय है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि जब मौसम साफ होता है छतरी आपके पास रहती है इसलिए कुशल रणनीतिकार हमेशा मौसम साफ रखते हैं। 2009 तक भारतीय अर्थव्यवस्था में मौसम साफ भी था और खुशगवार भी, लेकिन भविष्य की आशंकाएं थीं क्योंकि पूर्वी यूरोप में भयानक मंदी थी और वहां के सब्सिडी स्ट्रक्चर को सारी दुनिया कोस रही थी, लेकिन इस चेतावनी को भ्रष्टाचार में डूबी यूपीए सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। लोक लुभावन घोषणाएं करने और भ्रष्टाचार के नए-नए अवसर तलाशने में सरकार की एनर्जी लगती रही। वर्ष 2005 में मनरेगा और उसके भरोसे चुनाव की वैतरणी वर्ष 2011 में खाद्य सुरक्षा विधेयक और उसके भरोसे अगले आम चुनाव की वैतरणी। निवेशकों का विश्वास भंग हो चुका है। कई ब्लूचिप कंपनियां पलायन कर रही हैं। उड़ीसा में 40 हजार करोड़ रुपए का इस्पात संयंत्र का प्रोजेक्ट समेटा जा चुका है। इस ध्वस्त अर्थव्यवस्था के सहारे सरकार खाद्य सब्सिडी जैसी महंगी योजनाएं ला रही है। आखिर हम बढ़ किस तरफ रहे हैं। क्या अगले 15 दिनों में देश का सोना गिरवी रखाने वाला है। क्या छह माह की विदेशी मुद्रा आपात स्थिति से निपटने में सक्षम है। क्या विदेश में बांड जारी करके हम अपनी अर्थव्यवस्था की साख रसातल में नहीं ले जा रहे हैं। कई सारे सवाल हैं और इनका जवाब सरकार के पास नहीं है।
रुपए का अवमूल्यन अब आम आदमी का सरोकार बन चुका है। प्रश्न यह नहीं है कि जेब में पैसे हैं या नहीं प्रश्न यह है कि जो समुचित आमदनी है उसको लेकर विश्व बाजार में भारतीय उपभोक्ता की हैसियत क्या है। डीजल के दाम अवश्य बढ़ाए जाएंगे दाम बढ़ेंगे तो किराया बढ़ेगा और इसका असर जरूरी चीजों पर पडऩा तय है। सब्जी, राशन, तेल से लेकर सभी तरह की खाद्य सामग्री और उधर दैनिक उपयोग की लगभग हर वस्तु तथा इलेक्ट्रानिक आयटम्स महंगे हो चुके हैं। सरकार कहती है कि सब्सिडी का बोझ बढ़ा है और इस प्रकार का झांसा देकर डीजल के दाम बढ़ा दिए जाते हैं, लेकिन डीजल की कीमतें रुपए की कीमतों में अस्थिरता के कारण बढ़ी हैं और अस्थिरता का यह माहौल हमारी गलत, लगभग कबाड़ हो चुकी आर्थिक नीतियों का परिणाम है। भारत में आर्थिक नियोजन करते समय लगभग सारे आर्थिक रणनीतिकार यूरोप के पिछलग्गू बन जाते हैं। हमारे यहां आदर्श अर्थव्यवस्था स्वीडन और फ्रांस को माना जाता है किंतु इन रणनीतिकारों को यह क्यों नहीं मालूम की ये व्हाइट इकोनॉमी वाले देश है। भारत में तो 70 लाख हजार करोड़ रुपए स्विस बैंकों में जमा हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में जो प्लेयर हैं वे बाजार के नियम नहीं जानते। इसी कारण आज बांड जारी करने की परिस्थिति पैदा हुई है। सरकार को बीमा सेक्टर की तरफ देखना पड़ रहा है। निवेशकों को तलाशना पड़ रहा है। विदेशी निवेशक हाथ खींच रहे हैं। पिछले एक वर्ष में 100 अरब डॉलर से ज्यादा पैसा देश के बाहर जा चुका है, लगातार जा रहा है। देश में जिस आर्थिक क्रांति का सूत्रपात डंकल के भक्त मनमोहन ने किया था आज वे ही मनमोहन कमोबेश देश के आर्थिक आपातकाल के साक्षी बने हैं। पैसा लोगों की जेबों में नहीं है और न सरकारों के पास है। ऐसे में आर्थिक विकास का लक्ष्य कैसे हासिल किया जाएगा। दो माह पहले ही योजना आयोग के स्वनामधन्य उपाध्यक्ष ने स्वयं-भू घोषणा की थी कि शहर में 32 रुपए और गांव में 27 रुपए खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है, लेकिन आज उस सवाल का जवाब मिल चुका है। आधा डॉलर नहीं बल्कि लगभग चौथाई डॉलर प्रतिदिन तक नीचे जा पहुंची आमदनी से खुशहाली की कल्पना करना बेमानी है। यदि गरीबी का स्तर बढ़ाना है तो रुपए का स्तर भी बना रहना चाहिए। लेकिन लगता है सरकार गरीबी के मानको में कटौती करके डॉलर की कीमतों को हवा दे रही है। वैसे भी रुपए के ऊपर लिखा रहता है मैं धारक को इतने रुपए अदा करने का वचन देता हूं। लेकिन डॉलर ऐसा कोई वचन नहीं निभाती। हाल ही में द इकोनामिस्ट पत्रिका ने उस षड्यंत्र का खुलासा किया था जिसके चलते डॉलर की बाजार कीमत को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता था। यह तीन गुना ज्यादा था उस हिसाब से हमारा रुपया प्रति डॉलर के मुकाबले 20 के लगभग रहना चाहिए, लेकिन यह 40 और 50 का अंतर क्यों आ रहा है। क्यों अमेरिकी वाल स्ट्रीट से बड़े आत्मविश्वास के साथ यह घोषणा की जाती है कि रुपए 70 की रेंज में जा सकता है। आर्थिक विशेषज्ञ रुपए की इस दुर्गति का कारण हमारे औद्योगिक ढांचे से भी जोड़ रहे हैं। भारत में तमाम प्रगति के बावजूद आयात आधारित अर्थव्यवस्था है। इसका अर्थ यह है कि आयात निर्यात का संतुलन इस देश में 66 वर्ष की स्वतंत्रता के बाद भी स्थापित नहीं हो पाया है। अकेले यूपीए सरकार ने पिछले 9 साल में 587 अरब डॉलर के पूंजीगत माल के आयात को स्वीकृति प्रदान की। यह राशि अमेरिकी बेल आउट पैकेज से थोड़ी ही कम है। इससे भारत के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में छह प्रतिशत की भारी गिरावट हुई। यानी राष्ट्रीय उत्पादन में 56 प्रतिशत की गिरावट। जब उत्पादन ही इस तेज गति से गिरेगा तो मुद्रा को संभाला कैसे जाएगा। मुद्रा की विश्वसनीयता तभी बनी रह सकती है जब देश के आर्थिक संसाधन सुचारू रूप से काम करें। यदि आयात बढ़ता रहे और निर्यात बिल्कुल न हो तो अर्थव्यवस्था का ध्वस्त होना तय है। इसका असर अब देखने को मिल रहा है। 16 हजार करोड़ रुपए का खर्च तेल कंपनियों पर सब्सिडी के कारण नहीं मुद्रा के अवमूल्यन के कारण बढ़ गया है। जाहिर है यह खर्च देर-सवेर उपभोक्ताओं पर ही डाला जाएगा, लेकिन आने वाले समय में रुपए की कीमत स्थिर होते दिखाई नहीं दे रही। यही हालात रहे तो देश में महंगाई इस कदर बढ़ेगी कि सरकारों के लिए भी उसे नियंत्रित करना संभव नहीं होगा।
भारत के विदेशी आयात में 33 प्रतिशत हिस्सा तो केवल तेल का ही है। तेल की कीमतें डॉलर में चुकानी पड़ती हैं। जितना महंगा डॉलर मिलेगा दाम उतने ही बढ़कर मिलेंगे और जब देशी मुद्रा कमजोर चल रही हो तो देश में सस्ता तेल बेंचना संभव ही नहीं है। पिछले दिनों तेल के जो दाम बढ़े उसका कारण प्रति बैरल तेल के दामों में वृद्धि न होकर प्रतिदिन घटते रुपए के दाम थे। भारत 80 प्रतिशत तेल आयात करता है। इसलिए भारत की मुद्रा का स्थिर रहना बहुत जरूरी है, लेकिन आजादी के बाद से आज तक हमारे देश की मुद्रा अस्थिर रहती आयी है। यही कारण है कि हमने सारी दुनिया में सबसे ज्यादा विकास की कीमत चुकायी और हमारी मुद्रा हमेशा कमजोर बनी रही। आज एशिया के सबसे कमजोर मुद्राओं में रुपया शुमार है तो इसका कारण सरकार की गलत मौद्रिक नीतियां हैं। लोगों का विश्वास भी रुपए पर अब उतना नहीं रह गया है। इसी कारण निवेशक भी डरने लगे हैं। विदेशी निवेशकों का भरोसा भारत की अर्थ व्यवस्था में कम हो गया। जिस एफडीआई के मार्फत भारत में विदेशी निवेश आ रहा था वह अब सरकारी नीतियों की भेंट चढ़ गया। लेकिन इससे भी ज्यादा दु:खद पहलू यह है कि विदेशी कंपनियां भारत से नफा कमाकर रुखसत हो चुकी हैं। आज से 8-10 वर्ष पहले ये हालात नहीं थे। एनडीए सरकार के समय भारत के पास चालू खाते में पहली बार 22 अरब डॉलर अतिरिक्त थे। लेकिन उसके बाद हालात दयनीय हो गए।
इस आर्थिक दुरावस्था ने देश के मनोबल को तोड़ा है। भारत के लघु उद्योग अब मुनाफा कमाने की स्थिति में नहीं हैं। कृषि और अन्य सेवाओं पर इसका विपरीत असर पड़ा है। विदेश से आयातित स्वास्थ्य उपकरण महंगे हो चुके हैं। इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकी अब और महंगी हो गई है। इसके चलते जो भुगतान असंतुलन उपस्थित हुआ है, उसने भारतीय उपभोक्ताओं की कमर तोड़ दी है।

अब बढ़ेंगे डीजल-पेट्रोल के दाम
पेट्रोलियम मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक वित्त मंत्रालय  चाहता है कि डीजल की कीमत में बड़ी वृद्धि हो ताकि सरकार के खजाने पर कम से कम बोझ पड़े। फैसला संसद के मौजूदा मानसून सत्र के बाद होने की संभावना है। फिलहाल तेल कंपनियों और पेट्रोलियम मंत्रालय के बीच इस पर विचार-विमर्श हो रहा है। बहुत संभंव है कि मोइली इस बारे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से विचार-विमर्श के बाद अंतिम फैसला करें। यह एकमुश्त वृद्धि हर महीने होने वाली 50 पैसे की वृद्धि से अलग होगी। नंवबर, 2013 में पांच बड़े राज्यों में चुनाव को देखते हुए सरकार की मंशा जल्द से डीजल की कीमत में एकमुश्त वृद्धि करने की है ताकि चुनाव तक इसका असर कम रहे। दरअसल, तेल कंपनियों ने डीजल पर घाटे को देखते हुए सरकार को एक तरह का त्राहिमाम संदेश भेज दिया है। देश की सबसे बड़ी तेल मार्केटिंग कंपनी इंडियन ऑयल के मुताबिक अप्रैल, 2013 से अभी तक डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 12 फीसद घट चुकी है। डीजल पर होने वाला घाटा इस दौरान तीन रुपये से बढ़ कर 10.22 रुपये प्रति लीटर हो चुका है। अगर यही हाल रहा तो वर्ष 2013-14 में तेल कंपनियों की अंडररिकवरी (कम कीमत पर उत्पाद बेचने पर अनुमानित घाटा) 1.40 लाख करोड़ रुपये तक हो सकती है। इसका एक बड़ा हिस्सा सरकार को अपने खजाने से देना पड़ सकता है। केरोसिन पर इस समय 33.54 रुपये और सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर पर 412 रुपये प्रति सिलेंडर का घाटा हो रहा है। सूत्रों के मुताबिक केरोसिन की कीमत में तो वृद्धि की संभावना नहीं है। मगर सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर को लेकर कुछ फैसला हो सकता है। पेट्रोल पर तेल कंपनियों को अभी कोई घाटा नहीं हो रहा है।

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^