17-Aug-2013 05:55 AM
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कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए...
देश की स्वतंत्रता की 66वीं वर्षगांठ पर दुष्यंत कुमार की एक गजल का यह शेर बरबस याद आ रहा है। देश के हालातों को देखते हुए और भारत की गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत का ध्यान करते हुए यह

प्रश्न दिमाग में कौंधता है कि क्या हमने सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। महंगाई, भुखमरी, बेरोजगारी, गरीबी जैसी समस्याएं तो शायद समय के साथ धीरे-धीरे सुलझती जाएंगी लेकिन भ्रष्टाचार, बेईमानी, देशद्रोह, भेदभाव, लापरवाही और भारत के भीतर ही पनपते अंग्रेजी साम्राज्य जैसी समस्याओं से शायद ही निजात मिले।
लॉर्ड मैकाले ने जब भारत का कोना-कोना छानने के बाद 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में भारत की सांस्कृतिक परंपरा का महिमा मंडन करते हुए इस बात की जरूरत बताई थी कि भारत को मानसिक रूप से गुलाम बनाना है तो उसे सांस्कृतिक रूप से नष्ट करना होगा।
मैकाले की यह योजना देश में आज पूर्णत: सफल हो चुकी है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमने किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति को नष्ट कर डाला। मैकाले ने जो विषैला सुझाव दिया था वह कामयाब रहा। स्वतंत्रता भले ही मिल गई हो पर हम उसी जकडऩ में हंै। फर्क इतना है कि आज खुल कर नेताओं को गाली दे देते हैं लेकिन बार-बार उसी सड़ी-गली व्यवस्था को ढोने के लिए विवश हैं। वैसी ही बासी राजनीति, वे ही भ्रष्ट, घिसे-पिटे चेहरे, सिद्धांतहीन नेता और चरित्रहीन लोकसेवक। जो घुन लगी व्यवस्था अंग्रेजों ने हमें सौंपी उस व्यवस्था को बदलने की हमने कोशिश नहीं की। इतने 13 राष्ट्रपति और 14 प्रधानमंत्री आए। जिनमें से कई लोकप्रिय और काबिल भी थे लेकिन इस देश की तकदीर नहीं बदल पाए। आतंकवाद के नाम पर इस देश की स्वतंत्रता में बार-बार सेंध लगती रही है और हम अपने सैनिकों का मनोबल तोड़ते रहे। उन्हें संयम की सीख देते रहे और आतताइयों को हमले करने की छूट देते रहे। जिस आजादी को इतने बलिदानों के बाद हमने पाया आज वही आजादी हमारे लिए चुनौती बन कर खड़ी है। आर्थिक रूप से हम एक जर-जर देश है। अंग्रेजो ने साम्राज्यवादी विस्तार किया और भारत को अपनी कालोनी बना लिया आज बाजार वादी विस्तार के दौर में भारत अनगिनत मुल्कों की कालोनी बन चुका है। देश का मुनाफा चीन जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देशों में ही नहीं बल्कि फिनलैण्ड जैसे देश भी हमारी शस्य श्यामला भारत भूमि का धन बटोर कर समृद्ध हो रहे हैं, वहां के निवासी फल-फूल रहे हैं और हमारे देश के आर्थिक रणनीतिकार गरीबों की कनपटी पर मानो बंदूक तानकर कह रहे हैं कि 27 रूपए दिन में गुजारा कर लो नहीं तो हम तुम्हें गरीब ही नहीं मानेंगे और सारे लाभों से वंचित कर देंगे। दुनिया में भले ही समृद्धि के मापदंड बदल जाएं। चीन अपने गरीबों को यूरोप के मध्यमवर्गीयों के बराबर समृद्ध करने का लक्ष्य रखे लेकिन हमारे यहां तो हर व्यक्ति का आर्थिक स्तर पाताल में पहुंचाने की साजिश रची जा रही है। देश भगवान भरोसे है। केदारनाथ में जाने वाले तीर्थ यात्रियों में से दस प्रतिशत को ही हम आपदा आने पर बचा पाते हैं वो भी सेना के भरोसे। सेना न हो तो देश बाहरी आक्रमणों से नहीं बच सकता और न ही अन्दर की आपदाओं से। इस देश को सेना ही संभाल रही है इसीलिए दुश्मनों की निगाहें सेना पर हैं। कश्मीर में सेना पर हमले होते हैं। हमारे सैनिकों के सर कलम कर लिए जाते हैं। उन्हें सीमा में घुस कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। कबाइलियों के भेष में आए पाकिस्तानियों से कश्मीर को बचाने, वहां की माँ बेटियों की इज्जत बचाने, दौलत बचाने और 1947 से लेकर आज तक कश्मीर को सुरक्षित रखने का सिला यह मिलता है कि वहां देश का झण्डा जलाया जाता है। देश विरोधी नारे लगते हैं। सैनिकों की वर्दी का अपमान किया जाता है और दिल्ली की सल्तनत खामोश देखती रहती है। जिस सेना ने आतंक और दुश्मनों से कुछ हद तक इस देश को सुरक्षित रखा हुआ है उसको इस देश की राजनीती तबाह करने पर तुली हुई है। तुष्टिकरण के नाम पर जो खिलवाड़ आंतरिक सुरक्षा से किया जा रहा है उसने सेना को मनोबल को तोड़ दिया है। हर राजनीतिक दल अंग्रेजों की तरह फूट डालो राज करोÓ की नीति पर चल कर हिन्दुओं और मुसलमान को बांट रहे हैं क्योंकि मुसलमानों की आबादी अब बड़ा वोट बैंक बन चुका है। बड़ा हास्यादपद लगता है जब वर्ष भर तिरंगे का अपमान करने वाले नेता 15 अगस्त के दिन झण्डे को सलामी देते हैं। अंग्रेजों ने तो इस देश के चार टुकड़े किए (भारत, पाकिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश) लेकिन हम तो देश को खण्ड-खण्ड करने में जुटे हैं। क्षेत्रीयता के नाम पर एक ही भाषा बोलने वाले प्रांतों को बांटा जा रहा है। जितनी भाषाएं उतने राज्य तो समक्ष में आता है किन्तु जितने संभाग उतने राज्य देश के विभाजन के समय ही है। आजादी के बाद हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली गरीबी, बेकारी, भुखमरी से लडऩा था और एक शक्तिशाली देश के रूप में दुनिया में स्थापित होना था किन्तु सैन्य शक्ति तो हमने हासिल कर ली लेकिन इन समस्याओं से लडऩे की ताकत हासिल नहीं कर सके।
1948 में कबाइलियों का हमला हुआ, 1962 में चीन ने हम पर युद्ध थोपा, 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ, 1999 में कारगिल का हमला हुआ, 2008 में मुंबई पर पाकिस्तान की आईएसआई ने हमला करवाया और इस दौरान अनगिनत आतंकवादी घटनाएं हुईं। सीमा पर युद्ध एक अलग बात है लेकिन जिस तरह आतंकवाद और नक्सलवाद ने भारत की छाती को छलनी किया है वह हमारी स्वतंत्रता के लिए चुनौती बन चुका है। आतंकवादी आते हैं कहीं भी विस्फोट करके चले जाते हैं। वे 1993 में मुंबई को तहस-नहस करने के बाद से आज तक रूके नहीं हैं। मुंबई हमेशा उनके निशाने पर रहती है। हैदराबाद, दिल्ली से लेकर देश के किसी भी कोने में वे जब चाहें तब देश पर हमला बोल देते हैं। खास बात यह है कि यह हमले विदेशी हैं। अमेरिका ने 9-11 के हमलों के बाद सुरक्षा व्यवस्था इतनी मजबूत बनाई कि वहां कोई दूसरा हमला नहीं हुआ, बल्कि आतंकवादियों की हिम्मत अमेरिका की तरफ देखने की नहीं हुई। भारत में तो सुरक्षा के इंतजाम तक में राजनीति की जाती है। यदि सुरक्षा एजेंसियां किसी की तलाशी लेना चाहें या किसी को गिरफ्तार करना चाहें तो राजनीति शुरू हो जाती है। वोट बैंक के लिए किसी भी सीमा तक जाने को राजनैतिक दल तैयार बैठे हैं। चाहे बाटला हाउस एनकाउंटर हो या फिर इशरत जहां एनकाउंटर हर जगह राजनीति होती है। इस राजनीति ने सुरक्षा एजेंसियों के हाथ बांध दिये हैं। उत्तरप्रदेश में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त युवकों को छुड़ाने के लिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई। केवल वोट बैंक के लिए। यदि वे निर्दोषों को ही छुड़ाना चाहते थे तो फिर उन्होंने समुदाय विशेष के लिए ही पैरवी क्यों की? ये सवाल हमारे देश की आजादी से जुड़ते जा रहे हैं। इसी कारण हमारे शत्रु देश हमारी सेना को नष्ट करना चाहते हैं।
भ्रष्टाचार ने भी देश को खोखला कर दिया है। कोयले से लेकर खेलों तक हर जगह लाखों करोड़ों रूपए का घोटाला देखा जा सकता है। जीप घोटाले से लेकर कोलगेट कांड तक देश की जनता के हजारों करोड़ रुपए डकार लिए गए और दिखावे की कार्रवाई करते हुए हमारी स्वतंत्रता का गला घोंटा गया। न्यायपालिका ने शिकंजा कसा तो उसके निर्णय को भी चुनौती देने का दुस्साहस इस देश की संसद ने कर दिखाया। अपराधियों और सजायाफ्ता को चुनाव न लडऩे देने की सुप्रीम कोर्ट की घोषणा के खिलाफ राजनीतिक दलों की लामबंदी हो या आरटीआई के विरोध में केंद्रीय मंत्रिमंडल का फैसला। इन सबने यह स्थापित किया है कि राजनीति मनमानी का दूसरा नाम है। चोर-चोर मौसेरे भाई हैं और आपस में ही एक-दूसरे का हित साधते रहते हैं। दिखाने के लिए चुनाव के वक्त थोड़ा बहुत अलग-अलग दिशा में जाने का प्रयास किया जाता है, लेकिन भीतर से सबका चरित्र एक ही है। कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो भारतीय गणतंत्र की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता बनाए रखने के लिए कोशिश करता हो। दुनिया के कई देशों में बहुधर्मी लोग रहते हैं, लेकिन भारत की विशेषता यह है कि यहां धर्मों के बीच सहिष्णुता को राजनीति स्थापित ही नहीं होने देती। सरदार पटेल ने पहली बार अखंड भारत के लिए सीमाओं से पार जाकर, आलोचनाओं की परवाह किए बगैर भारत की एकता के लिए भरसक प्रयास किए। हैदराबाद, जूनागढ़, त्रावणकोर सहित तमाम रियासतों को डरा-धमकाकर उस समय देश की अखंडता को कायम रखा जा सकता था तो क्या आज ऐसा नहीं किया जा सकता। आखिर क्यों क्षेत्रीय आकांक्षाओं के समक्ष भारत की संप्रभुता से समझौता किया जाता है। वोट की राजनीति के लिए गलत फैसले क्यों लिए जाते हैं। आर्थिक निर्णय लेने में सरकार को पसीने क्यों छूटते हैं। कांग्रेस की गलती के कारण ही इस देश में क्षेत्रीय राजनीति पनपी जो आज घातक होने के साथ-साथ घृणित भी हो चुकी है। इन्हीं कारणों से यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि क्या आजादी हमारे लिए केवल एक प्रशासनिक व्यवस्था भर है या फिर सेना के भरोसे हासिल संप्रभुता जिस पर प्रत्यक्ष कोई हमला भले ही न हो, लेकिन परोक्ष हमले होते रहें और अव्यवस्थाओं का घुन भीतर ही भीतर खोखला करते रहे। ऐसे हालातों में लगता है कि क्या हमें आजादी अपने संपूर्ण संदर्भों में प्राप्त हो चुकी है या ये केवल राजनीतिक आजादी है। बाकी पूर्ण आजादी के लिए संघर्ष किया जा रहा है। संविधान द्वारा प्रदान किए गए मूलभूत अधिकार आज भी देश के अधिकांश लोगों को सही और सच्चे अर्थों में हासिल नहीं हैं। मुझे 1757 की पलासी की लड़ाई में 18 हजार सेना वाले सिराजुद्दौला की पराजय याद आ रही है, जिसे छोटी सी अंग्रेजी सेना ने पराजित कर दिया था। आज देश में वही हालात हैं। छोटी सी अंग्रेजी सेना देश को चला रही है और उन्हें देश की समस्या का ज्ञान भी नहीं है। तब एक मीरजाफर पराजय का कारण बना था आज बहुत से मीरजाफर हैं। इसीलिए आजादी का जश्न मनाने से पहले विचार करने की आवश्यकता भी है कि जो आजादी हमें मिली है क्या वह संपूर्ण है।
हर सच्चा भारतीय इसे पढ़े और मंथन करे...
“I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and
English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.”
मैने भारत के कोने-कोने में यात्रा की है और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो चोर या भिखारी हो। यह देश उच्च नैतिक मूल्यों, क्षमता वान लोगों से धनी है। मुझे नहीं लगता कि हम इस देश को कभी जीत पाएगे जब तक की हम इस देश की रीढ़ की हड्डी बन चुकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को तहस नहस ना कर डाले। इसीलिए मेरा प्रस्ताव है कि हम भारत की समृद्ध और प्राचीन शिक्षा प्रणाली, उसकी संस्कृति बदल डालें ताकि भारतीय यह सोचने पर विवश हो जाएं कि अंग्रेजी भाषा और जो कुछ भी विदेशी है उनकी (भारतीय) संस्कृति और शिक्षा से बेहतर है... जब एक बार वे अपना आत्म सम्मान, आत्म संस्कृति खो देंगे तो उन्हें वैसा बनने में देर नहीं लगेगी जैसा हम बनाना चाहते हैं... एक सम्पूर्ण गुलाम मानसिकता वाला राष्ट्र... (लॉर्ड मैकाले का ब्रिटिश संसद में 2 फरवरी, 1835 को दिए गए भाषण का अंश।)