खुद पर एकाग्रता से सत्य मिलता है
02-Aug-2013 09:04 AM 1234820

महर्षि रमण के पास कई जिज्ञासु आते और महर्षि उन्हें सही राह दिखलाते थे। कभी कोई उनके पास से असंतुष्ट होकर नहीं जाता था। एक दिन महर्षि रमण के आश्रम में एक व्यक्ति आया। वह काफी देर तक उनके पास बैठा रहा और दोनों के मध्य ज्ञानपरक चर्चा हुई। फिर वह बोला, महात्मन्Ó।
मैं इन दिनों एक विषयपर बहुत असमंजस में हूं। मैंं तय नही कर पा रहा हूं कि क्या सही है और क्या गलत। महर्षि ने उसे अपनी समस्या स्पष्ट करने को कहा तो वह कहने लगा, हमारे देश में प्रचाीनकाल से आज तक अनेक संत-महात्मा हुए। आत्मा-परमात्मा और जगत को लेकर उनके विचार भिन्न-भिन्न हैं। कोई कहता है कि आत्मा-परमात्मा में कोई भेद नहीं है और वे एक हैं। किसी का मत है कि वे एक-दूसरे से पृथक हैं । कोई इस विचार का समर्थक है कि परमात्मा से अलग कोई सत्ता नहीं है। कोई यह मानता है कि मैं ही ब्रहम हूं। ये सब पढ़-सुनकर मैं भ्रमित हो जाता हूं कि इनमें से कौन सा विचार सही है, जिसका अनुसरण करना सर्वाधिक योग्य होगा? मैं आपसे इस विषय में मार्गदर्शन पाना चाहता हंू। महर्षि रमण ने उसकी बातें सुनकर स्नेहपूर्वक उसे उत्तर दिया, कहीं और जाकर तुम्हे सही मार्ग नहीं मिलेगा। तुम अपने ही भीतर खोजो कि तुम कौन हो? स्वयं पर एकाग्रता से एक दिन तुम्हे सत्य का साक्षात्कार हो जाएगा।Ó महर्षि के उत्तर से उस व्यक्ति के भ्रम का निवारण हुआ और यथार्थ का बोध हो गया। सत्य की अनुभूति सभी की व्यक्तिगत होती है, जो संस्कार, परिस्थिति व वातावरण की भिन्नता के कारण पृथक-पृथक होती है।

शुभ करने के लिए साहस की जरूरत
मित्रता का एक लक्षण है शुभ मित्र होना। आप व्यक्तिगत मित्र होते हैं। व्यवसायिक मित्र होते हैं। पारिवारिक मित्र होते हैं, लेकिन इन सबके ऊपर शुभ मित्र होने का प्रयास करें। शुभ मित्र का अर्थ है दूसरे के कल्याण की सोचना। मित्रता का एक दायित्व है और दायित्व मित्रता का एक दायित्व है और दायित्व बोध में यदि कल्याण का भाव न हो तो यह भी एक धंधा बन जाएगा। बचपन की दोस्ती निश्चल होती है। जब हम बड़े हो जाते हैं तो अपनी मित्रता के पीछ का बचपन टटोलते रहे, क्योंकि एक मंचलता हुआ बच्चा हर उम्र में हमारे भीतर रहता है। वह अपनी जिद भी दिखता है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमारे भीतर का यह बच्चा हमसे वैसे करा लेता है, जैसे किसी बड़े व्यक्ति से उम्मीद नहीं की जाती। जो व्यवहार हमें बचपन में छोड़ देना चाहिए, वह व्यवहार यह भीतरी बच्चा हमसे बड़े होने पर कराता है और हमें शुभ मित्र होने में बाधा लगती है। जब हम शुभ मित्र होकर दुसरों के लिए खतरे तक उठाते को तैयार हो जाते हैं, तब यह भीतरी बच्चा हमें डराने लगता है। जब हम भौतिक संसार की उपलब्धियां हासिल करने के लिए एक-दूसरे की मदद करने के लिए उतरते है तब वह हानि-लाभ के मामले में हमें बेकार की जिद में घसीटता है। यहीं से हम अशुभ मित्र-बनने लगत है। हमें यह डरपोक भी बना देता है। किसी का शुभ करने के लिए बड़े साहस की जरूरत होती है। परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है तो शुभ मित्र बनना ही चाहिए। हमारे पीछे पूरी ऋषि परंपरा है। इसलिए शुभ मित्र बनने में देर न करें।

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