गुड गवर्नेंस गायब!
19-Jun-2019 08:52 AM 1234819
मप्र में गुड गवर्नेंस की बात तो खूब होती है, लेकिन गुड गवर्नेंस दिखाई नहीं पड़ता है। वर्तमान कांग्रेस सरकार के मुखिया कमलनाथ प्रदेश में गुड गवर्नेंस को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे हैं, लेकिन उनकी राह में उनके मंत्री और अफसर सबसे बड़ा रोड़ा हैं। दरअसल प्रदेश में हमेशा ऐसा ही देखने को मिला है। 2004 में उमा भारती सरकार में भी गुड गवर्नेंस की बड़ी-बड़ी बातें की गई। लेकिन उस समय भी वर्तमान की तरह अफरा-तफरी देखने को मिली। दरअसल उमा भारती ने भी सलाहकारों की एक फौज बनाई थी, जो किसी काम की नहीं रहे। वहीं उनके भाई-भतीजे सब पर हावी होते दिखे। स्थिति यह रही कि खुद उमा भारती भी कई बार बेपटरी होती दिखी। आर परशुराम जैसे संवेदनशील अफसर के साथ वे अभद्रता कर बैठी। ऐसा ही हाल बाबूलाल गौर के समय भी रहा। वे प्रदेश के नहीं बल्कि भोपाल के मुख्यमंत्री बनकर रह गए। उनके शासनकाल में विजय सिंह और ओपी रावत जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसरों की कद्र नहीं की गई। उसके बाद शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने गुड गवर्नेंस का सबसे अधिक ढोल बजाना शुरू किया। लेकिन उन्होंने मुख्य सचिव विजय सिंह को जिस तरह हटाया उससे उनका गुड गवर्नेंस सवालों के घेरे में आ गया। उसके बाद गुड गवर्नेंस का हल्ला मचाने वाले शिवराज सिंह चौहान स्वयं डम्पर कांड में फंस गए। उसके बाद उनके परिजनों और रिश्तेदारों पर लगातार आरोप लगते रहे। ऐसे में उनके शासनकाल में गुड गवर्नेंस की कल्पना बेमानी थी। दरअसल उपरोक्त तीनों मुख्यमंत्री कुशल प्रशासक नहीं थे। लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री कमलनाथ अनुभवी राजनेता हैं और वर्षों तक केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर मंत्री रहे हैं। इसलिए इनकी सरकार में गुड गवर्नेंस की कल्पना हर कोई कर रहा है। अंग्रेजी में एक कहावत है-वेल बिगन इज हाफ डन यानी अगर शुरूआत अच्छी है तो आधा काम तो हुआ ही समझा जाए। लेकिन मप्र में इसके विपरीत हालात हैं। दरअसल, मुख्यमंत्री कमलनाथ की अगुआई में कांग्रेस की सरकार ने जिस तरह शुरूआत की उससे लगा प्रदेश में गुड गवर्नेंस का आधार मजबूत होगा, लेकिन कुछ ही समय बाद गुड गवर्नेंस की हवा ऐसी निकली की उसका अब कहीं भी अता पता नहीं है। जबकि कमलनाथ ने अपने ब्लॉग में राज्य की आर्थिक बदहाली, कुपोषण, अपराध, घटते रोजगार के अवसर और कम होते औद्योगिक निवेश के खिलाफ लड़ाई लडऩे का आह्वान करते हुए यह साफ किया था कि अगर हम बीते 15 वर्ष के इतिहास की गल्तियों से सबक नहीं लेंगे, तो भविष्य भी हमें माफ नहीं करेगा। हुआ भी यहीं। सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार की गल्तियों से सबक नहीं लिया और जनता ने लोकसभा चुनाव में उसे सबक सीखा दिया। अगर शिवराज सिंह चौहान की सरकार और कमलनाथ सरकार का आकलन करें तो गुड गवर्नेंस के मामले में वर्तमान सरकार ने अभी तक कुछ भी ऐसा नहीं किया है जिससे यह कहा जाए कि मप्र में गुड गवर्नेंस की दिशा में काम हो रहा है। सरकार बनते ही मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया था कि मंत्री और अधिकारी जनता के बीच अधिक से अधिक समय गुजारें। लेकिन कोई भी गांव का रुख नहीं कर रहा है। जबकि शिवराज सरकार के शासनकाल में मंत्री के अलावा मंत्रालय से प्रमुख सचिव और कलेक्टर, एसपी गांवों में जाकर जनता से रूबरू होते थे। खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान महीने में कम से कम चार गांवों का दौरा जरूर करते थे। जबकि वर्तमान मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अभी तक तो जिला मुख्यालयों का दौरा नहीं किया है। प्रदेश के मंत्रियों का हाल यह है कि वे केवल अपनों को उपकृत करने में लगे हुए हैं। विधायक भी उन्हीं की राह पर हैं। इनके तांडव से कलेक्टरों का जीना मुश्किल हो गया। पहले भी ऐसा होता था, लेकिन अब हस्तक्षेप ज्यादा बढ़ा है। अब कलेक्टर ही सरकार का विरोध करने लगे हैं। सरकार में कामकाज किस तरह चल रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि किसी के प्रचार-प्रसार के लिए 32 करोड़ रुपए दिए गए थे उसमें से विभाग ने 20 प्रतिशत अपने पास रख लिए जबकि मंत्री ने 15 प्रतिशत ले लिए। ऐसे में सरकार को जमीनी हकीकत का पता नहीं चल पा रहा है। यही नहीं 15 साल बाद मंत्री बनने के बाद नेताओं पर सत्ता का रसूख इस कदर छाया है कि वे उससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। अपने आस-पास समर्थकों की भीड़ लेकर चलने की परंपरा बढ़ रही है। इसका असर यह हो रहा है कि मंत्रालय में भी मजमा लगने लगा है। आखिर किसी मंत्री के समर्थक मंत्रालय पहुंच रहे हैं तो इन्हें इतनी संख्या में पास कौन दे रहा है और कौन दिला रहा है। लोकसभा चुनाव की ऐतिहासिक हार के बाद अब मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार दो मोर्चों पर जूझती दिखाई दे रही है। एक है अपनी सरकार को टिकाए रखना और दूसरा राज्य में गुड़ गवर्नेंस को साबित करना। फिलहाल सरकार की उपलब्धि यह है कि सिर्फ 5 महीनों में सत्ता से बेदखल भाजपा ने अपना 17 फीसदी वोट बढ़ा लिया है। जिसकी एक बड़ी वजह गवर्नेंस के नाम पर सरकार की नाकामयाबी भी है। सरकार ने साढ़े चार सौ से ज्यादा आईएएस और आईपीएस अफसरों के ट्रांसफर किए हैं। निचले स्तर पर जाएं तो यह आंकड़ा 15 हजार से ज्यादा है। सबसे खराब हालत बिजली सप्लाई सिस्टम के लुढ़कने का है। बिजली कटौती से प्रदेश में फिर अंधेरा छाने लगा है। जिस प्रशासनिक कसावट और चुस्ती के लिए कमलनाथ जाने जाते हैं वह फिलहाल मध्यप्रदेश में दिखाई नहीं दे रहे है। चुनाव से पहले और चुनाव के बाद धड़ल्ले से हो रहे ट्रांसफर पोस्टिंग ने सरकार की कार्य प्रणाली को ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। ऐसे कई अफसर हैं जिनके तीन-तीन बार ट्रांसफर हुए हैं। जिससे टॉप लेवल ब्यूरोक्रेसी में हडकंप बना हुआ है। पूर्व सीएस केएस शर्मा कहते हैं कि -बिना किसी विशेष कारण और सिद्धांत के तबादले हो रहे हैं। यह प्रशासनिक सुधार नहीं बल्कि दिशाहीन और उद्देश्यहीन व्यवस्था हैं। - कुमार राजेंद्र
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