आरटीआई से डरे राजनीतिक दल
17-Aug-2013 06:35 AM 1234849

सारे देश में पारदर्शिता की बात करने वाले राजनीतिक दल सूचना के अधिकार अधिनियम के खिलाफ लामबंध हो गए हैं। राजनीतिक दलों का कहना है कि यदि इस मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग का आदेश लागू होता है तो कोई भी राजनीतिक दल काम नहीं कर सकेगा। राजनीतिक दलों में पारदर्शिता का अभाव है इसी कारण राजनीति व्यवसाय में तब्दील होती जा रही है। लोकसेवा का लक्ष्य अब पीछे छूट गया है और लाभ कमाना सर्वोपरि लक्ष्य बन चुका है। हालांकि अभी भी कुछ राजनीतिज्ञ ऐसे हैं जो बेहद ईमानदार हंै लेकिन उनकी तादाद कम होने के कारण शायद राजनीतिक दलों ने एक स्वर में सूचना के अधिकार अधिनियम को ठुकरा दिया है और केन्द्र मंत्रिमंडल ने भी आनंद फानन में सूचना के अधिकार अधिनियम में तब्दीली को सहमति प्रदान कर दी ताकि राजनीतिक दल इस अधिनियम के दायरे में न आ सकें। आम तौर पर एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलने वाले और एक दूसरे का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों में इस मसले पर अभूतपूर्व एकता देखने को मिली। इस एकता का प्रकटन उस समय भी हुआ था जब एक प्रभावी लोकपाल बनाने के लिए सारा देश समाज सेवी अन्ना हजारे के साथ खड़ा हो गया था और बाद में संसद ने अधूरे मन से बड़े ढुलमूल से लोकपाल को स्वीकार किया था जो शायद संसद में ही किसी जगह अब धूल खा रहा होगा। पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने अपराधिक रिकार्ड वाले और सजायाफता राजनीतिज्ञों के चुनाव लडऩे पर रोक लगाने सम्बंधी एक निर्णय दिया तो सारे राजनीतिक दल और संसद इस निर्णय के खिलाफ लामबंध हो गए। शायद शीघ्र ही संसद एक कानून भी बना देगी। इन सारी कवायदों को देखकर लगता है कि हमारे राजनीतिक दल और उन दलों में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग सुधरना नहीं चाहते। वे  किसी भी लोकप्रिय और उपयोगी बदलाव को तभी तक स्वीकार करते हैं जब तक कि उन पर आंच न आए जैसे ही उन्हें लगता है कि उनका दामन झुलस जाएगा वे उस आग को ही बुझाने की कोशिश करते हैं। अन्ना आंदोलन आग को भी इसी तरह ठंडा किया गया, हालांकि इस आंदोलन में कुछ कमियां भी   थी। बरहाल कपिल सब्बल का कहना है कि इस आदेश के खिलाफ सरकार उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकती थी लेकिन इसमें समय लगता इसलिए आरटीआई अधिनियम में संशोधन के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी प्रदान की।
सीआईसी ने 3 जून को 6 राष्ट्रीय दलों को आरटीआई अधिनियम के दायरे में लाने का आदेश दिया था। सिब्बल का कहना है कि राजनीतिक दलों के काम काज में वैसे ही बहुत पारदर्शिता बरती जाने लगी है 20 हजार रूपए से अधिक का जो भी अनुदान मिलता है उसके बारे में आयकर विभाग के समक्ष घोषणा करनी पड़ती है। यह सार्वजनिक भी किया जा सकता है। उन्होने यह भी कहा कि राजनीतिक पार्टियां निर्वाचन आयोग को  संपत्ति एवं ऋणों तथा अपने खर्च का ब्यौरा भी देती हंै। सिब्बल का तर्क है कि राजनीतिक दलों की नियुक्ति नहीं होती बल्कि वे चुनावी प्रकिया के तहत लोगों के पास जाते हैं। सिब्बल शायद यह बताना चाह रहे थे कि राजनीतिक दलों में कुछ दबा या छिपा नहीं है लेकिन आरटीआई कार्यकर्ता इस दलील से सहमत नहीं है। उनका कहना है कि सरकार अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए सीआईसी के आदेश को  निरस्त कर दिया है। राजनीतिक दलों को कम से कम लोगों के साथ संवाद करना चाहिए क्योंकि यह उनके मौलिक अधिकारों से जुड़ा मामला है।
यदि यह आदेश माना जाता तो सरकारी महकमों के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों को भी जनता द्वारा मांगी गई जानकारी मुहैया करवानी पड़ती । सीआईसी ने सभी दलों को 6 महीने में ऐसे अधिकारी नियुक्त करने का आदेश भी दिया था जो राइट टू इन्फार्मेशन याचिकाओं का जवाब देते। फाइनैंस से लेकर मीटिंग की डीटेल्स तक सभी पार्टियों को देना पड़ सकता था । हालांकि आदेश के मुताबिक पार्टियों को सेक्शन 8(1) और 7(9) में शामिल सूचनाएं बताने की बाध्यता नहीं थी। राजनीतिक पार्टियों के राइट टू इन्फर्मेशन के तहत आने को लेकर सीआईसी ने तीन प्रमुख दलों, कांग्रेस, बीजेपी और सीपीआई से उनकी राय मांगी थी। कांग्रेस और बीजेपी ने जहां इसका खुलकर विरोध किया वहीं सीपीआई ने खुद को टेक्निकली कमजोर बताकर पल्ला झाडऩे की कोशिश की थी । उन्होंने कहा था कि वे जानकारी देने के लिए तैयार हैं लेकिन उनके पास इतने कार्यकर्ता नहीं हैं कि इन याचिकाओं का जवाब दे सकें। इस आदेश के बाद कई विवादित मामलों, जैसे लैंड अलॉटमेंट और पार्टियों की फंड रेजिंग के कई मामलों पर स्थितियां साफ हो सकती थी  और खासतौर से कांग्रेस के गले के आस-पास फंदा कसा जा सकता था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सीआईसी को नकार दिया और बात दिया कि जरूरत पडऩे पर संसद किसी भी संस्था पर भारी पड़  सकती है।
काजल की कोठरी में बेदाग बचे रहना असम्भव है इसीलिए राजनीतिक दलों को आईटीआई से डर लगता है। हमारे देश की राजनीति उतनी ईमानदार और पारदर्शी नहीं है हालांकि  दुनिया के बहुत से देशों में भी यही हालात हैं पर वहां न्यायपालिका की ताकत भी उतनी ही है। ब्रिटेन में तो मंत्री तक को गलत तरीके से कार पार्किग करने पर या गलत ड्राइव करने पर सजा हो जाती है। हमारे यहां छोटे छोटे नेता कानून की धज्जियां उड़ा देते हैं। इसी कारण आरटीआई के खिलाफ जब सारे राजनीतिक दल लामबंद हो गए तो बड़ा आश्चर्य नहीं हुआ।

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