03-Aug-2013 05:45 AM
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भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने हिन्दी की पैरवी करके एक नई बहस को जन्म दिया है। चुनावी माहौल शुरू हो चुका है और ऐसे में राजनाथ की हिन्दी की पैरवी को अलग नजरिए से देखा जा रहा है उन्होंने अंग्रेजियत को देश के लिए नुकसान देह बताया हालांकि उन्होंने अमेरिका के न्यूजर्सी में अपना भाषण अंग्रेजी में ही दिया।
सवाल यह है कि विकास और मोदी की राजनीति करने वाली भाजपा हिन्दी के मुद्दे पर अचानक क्यों आ गई है। इसका सीधा सा जवाब यह है कि दक्षिण में भाजपा अपनी ताकत लगभग खो चुकी है। एक मात्र कर्नाटक में उसे सत्ता मिली थी लेकिन वह भी लालकृष्ण अडवाणी और उनके चहेते अंनन्त कुमार की मेहरबानी से हाथ से निकल गई अब पूरे दक्षिण से भाजपा को बमुश्किल दस सीटें भी मिल जाएं तो बड़ी बात होगी। इसीलिए एक बार फिर भाषाई राजनीति को हवा दी जा रही है इसके पीछे कहीं न कहीं हिन्दी, हिन्दू, हिन्दूस्तान वाली मानसिकता काम कर रही है। कमाल की बात यह है कि कांग्रेस ने भी इस भाषाई राजनीति की आग में घी डालना शुरू कर दिया है। शशि थरूर ने जहां राजनाथ के बयान को संकीर्ण कहा तो मनीष तिवारी ने कह दिया कि राजनाथ अमेरिका में हिन्दी या अवधी में बात करेंगे क्या? कांग्रेस को हिन्दी की राजनीति को संकीर्ण तथा बंद विचारधारा घोषित करने में लगी हुई है। उधर भाजपा और संघ हिन्दी की बात करके करोड़ों हिन्दीभाषियों और हिन्दी समर्थकों को वोट बैंक में तबदील करना चाहते हैं। मोहन भागवत ने इसका समर्थन किया और कहा कि लोगों में भ्रम है अंग्रेजी ही उन्नति का माध्यम है जबकि यह सत्य नहीं है, अंग्रेजी भाषा ने भारतीय संस्कृति पर बुरा असर डाला है। इससे सिद्ध होता है कि अंग्रेजियत की बहस अब आगे पहुंच चुकी है और यह केवल भाजपा कांग्रेस के बीच नहीं है बल्कि अब बाकी दक्षिण भारतीय दल भी इसमें शामिल हो सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो इस बार चुनावी मुकाबला कुछ अलग मुद्दों पर होगा जिससे लड़ाई अलग डारेक्शन में जाएगी।
सवाल यह है कि क्या राममनोहर लोहिया से लेकर मुलायम सिंह यादव और दीनदयाल उपाध्याय से लेकर राजनाथ सिंह तक हिन्दी की बात अब किस रूप से सुनाई पड़ेगी। हिन्दी के समर्थकों का कहना है कि अंग्रेजी के वर्चस्व ने करोड़ों देशी प्रतिभाओं का गला घोटा है अंग्रेजी ऐसी विभाजन रेखा है जो अंग्रेजी जानने वालों को और हिन्दी भाषियों को अलग-अलग बांटती है इससे सांस्कृतिक खाई पैदा हो रही है और भाषा के आधार पर भेदभाव हो रहा है। देश के वित्तमंत्री पी चिदमबरम जैसे नेता भाषा की राजनीति करके ही आगे बढ़े हैं। इसीकारण भारत में हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत नहीं हो सकी। हिन्दी समर्थकों का आरोप है कि मनमोहन सिंह के 10 साल के राज में हिन्दी और भारतीय भाषाओं का राजनीति में आग्रह कमजोर ही नहीं खत्म हो गया है मनमोहन सरकार ने अंग्रेजी को बढ़ावा दिया और उसे थोपना चाह हंै इस सिलसिले में हिन्दी की पैरवी करने वाले को गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल में डाल दिया गया है। पाठक 260 दिनों तक दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय से लेकर सोनिया गांधी के आवास तक धरना दे रहे थे वे वहां अकेले बैठे रहते थे और सोनिया या राहुल गांधी कभी गुजरते थे तो पाठक खड़े होकर हिन्दी के लिए नारे लगाते थे उन्हें पकड़कर पुलिस तुगलक रोड थाने में दिनभर बिठाए रखती थी। बाद में पाठक ने अनशन शुरू कर दिया तो उन्हें जेल में डाल दिया। हिन्दी समर्थकों का कहना है कि मनमोहन सिंह और उनके कैबिनेट ने यूपीएससी की परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य बनवाने का आदेश निकाला था बात में करूणानिधि और शिवराज सिंह ने विरोध पत्र लिखकर इस अन्याय को रूकवाया।
जिन श्यामरूद्र पाठक को तिहाड़ जेल में डाला गया है उन्होंने आम आदमी के लिए अदालत में हिंदी और भारतीय भाषाओं की पैरवी के लिए भी धरना दिया था। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन की मांग करते हुए कहा था कि सभी न्यायालयों में स्थानीय भाषा को जगह मिलनी चाहिए। कांग्र्रेस नेता ऑस्कर फर्नांडीज ने तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद को ये ज्ञापन भेजा भी था लेकिन बाद में खुर्शीद की जगह कपिल सिब्बल आ गए और पाठक गिरफ्तार हो गए। बहरहाल एक बार फिर हिन्दी की लड़ाई छिड़ गई है देखना यह है कि इस बहस अब क्या नतीजा निकलता है। भाजपा नेता बाबा रामदेव सहित कई बुद्धिजीवी भी हिन्दी के समर्थन में माहौल बनाने में लगे हुए हैं। इससे यह तो लग रहा है कि कांग्रेस को अंग्रेजी समर्थक पार्टी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है ताकि हिन्दी समर्थक वोटों का ध्रुवीकरण हो सके। इससे भाजपा साम्प्रदायिक होने के जोखिम से भी बची रह सकती है क्योंकि हिन्दी की बात करना फिलहाल भारत में साम्प्रदायिक नहीं माना जाता।
बिंदु माथुर