राज्यों का गठन या देश का विघटन
17-Aug-2013 06:04 AM 1234812

कांग्रेस ने राजनीतिक लाभ के लिए आम चुनाव से लगभग 10 माह पहले तेलंगाना की घोषणा कर अपनी समाप्त होती लोकप्रियता को संवारने की अंतिम कोशिश की है। कांगे्रस जानती है कि इसमें जोखिम है, लेकिन फिर भी वह यह जोखिम उठाना चाहती है। जोखिम इसलिए है कि तेलंगाना बनने के साथ ही बाकी बचे आंध्रप्रदेश से कांग्रेस का पत्ता लगभग साफ हो जाएगा। जिस तरह प्रदर्शनकारियों ने आंध्र में दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की प्रतिमाओं को तहस-नहस कर डाला है उससे यह आभास हो गया है कि पश्चिम गोदावरी से लेकर तटीय आंध्रा के 9 जिलों और रॉयलसीमा के 4 जिलों में कांग्रेस के वजूद को खतरा है। लेकिन फिर भी यह खतरा उठाया जा रहा है क्योंकि वाइएसआर कांग्रेस की बढ़ती ताकत और तेलगूदेशम जैसी पार्टियों के प्रति अल्पसंख्यकों का झुकाव कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब है। पर इस परेशानी ने देश के समक्ष एक नया संकट पैदा कर दिया है। हर प्रदेश से अब मांग उठने लगी है कि उसका विभाजन किया जाए।
मायावती तेलंगाना का समर्थन करते हुए उत्तरप्रदेश को चार हिस्सों में बांटने की वकालत पहले ही कर चुकी हैं। गोरखालैंड की मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन चल रहे हैं। विदर्भ की मांग वर्षों पुरानी है। मध्यप्रदेश में महाकौशल और बुंदेलखंड को अलग करने के साथ-साथ अब मालवांचल के नाम से भी पृथक राज्य की मांग उठने लगी है। राजस्थान में मरु प्रदेश नाम से नए राज्य के गठन के लिए राजनीतिक दबाव बनाया जा रहा है। मायावती ने तो वर्ष 2011 में राज्य विधानसभा मेंं एक प्रस्ताव पारित कर यूपी को चार भागों में विभाजित करने की घोषणा भी कर दी थी, लेकिन मायावती की इस मांग को केंद्र ने ठुकरा दिया पर अब मायावती की मांग के समर्थन में बहुत से दल लामबंद होने लगे हैं। भाजपा ने मांग की है कि राज्य पुनर्गठन आयोग का फिर से गठन किया जाना चाहिए और नए राज्यों की मांगों पर विचार किया जाना चाहिए। भाजपा शुरू से ही छोटे राज्यों की पक्षधर है। मायावती की तरह उमा भारती भी पृथक बुंदेलखंड के लिए जीतोड़ कोशिश कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में गोरखा जनुमक्ति मोर्चा पिछले कई वर्षों से अलग गोरखालैंड की मांग कर रहा है। जैसे ही तेलंगाना की घोषणा हुई। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने 72 घंटे का आव्हान किया। एक समर्थक ने आत्मदाह का प्रयास भी किया। महाराष्ट्र में विदर्भ की मांग को लेकर आरपीआई ने 5 अगस्त से आंदोलन शुरू कर दिया।
सवाल यह है कि छोटे राज्य किस दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं। छोटे राज्यों के समर्थकों का कहना है कि इससे विकास तेज होता है और क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। लेकिन सच में देखा जाए तो छोटे राज्य राजनीतिक रूप से अस्थिर होते जा रहे हैं। झारखंड का उदाहरण सामने है। कुछ समय पहले गोवा में भी ऐसे ही हालात बने थे। छत्तीसगढ़ में तो अजीत जोगी कथित रूप से विधायकों को खरीदना ही चाह रहे थे। छोटे राज्यों में विधानसभा सीटें कम होने के कारण कई बार विधायकों के दल बदलने की आशंका भी बनी रहती है। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर के समय कुछ दल-बदल की आशंका भी उत्पन्न हुई थी क्योंकि मुख्यमंत्री पद को लेकर कांग्रेस के भीतर काफी तनाव था। बाद में स्थिति संभाली गई। बड़े राज्यों में आमतौर पर ऐसा नहीं होता। यदि उत्तरप्रदेश का विभाजन 4 अन्य राज्यों में किया जाएगा तो फिर राजनीतिक अस्थिरता की आशंका हमेशा बनी रहेगी। ऐसे राज्य क्षेत्रीय राजनीति को भी बढ़ावा दे रहे हैं। तेलंगाना में देर-सवेर टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति) अपना अस्तित्व बनाने में कामयाब हो ही जाएगी और कांग्रेस जो चुनावी लाभ की उम्मीद कर रही है वह वहां से भी समाप्त हो सकती है। यही खतरा विदर्भ, गोरखालैंड, मरुप्रदेश, महाकौशल जैसे राज्यों के गठन से हो सकता है। इन क्षेत्रों में अभी भी ज्यादातर जगह बड़ी राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व है। एक बार इनका गठन होने से क्षेत्रीय राजनीति शुरू हो सकती है। जिसके कई दुष्परिणाम हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियां इन सब परिणामों से अवगत होते हुए भी राज्यों के पुनर्गठन की मांग करती रही हैं। इसका कारण यह है कि हर राजनीतिक पार्टी में मुख्यमंत्री और मंत्री बनने वाले प्रत्याशियों की तादाद अच्छी खासी है। राज्यपाल बनाकर भी कुछ बड़े नेताओं को उनके बुढ़ापे में सम्मान दिया जाता है। राज्य का अपना हेलीकाप्टर होता है, राजधानी होती है, विधानसभा होता है, प्लेन होता है, सचिवालय होता है और राज करने के लिए तमाम ताकत होती है। आमतौर पर इसी ताकत की प्राप्ति के लिए राज्यों को बांट दिया जाता है। मध्यप्रदेश को जब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में पुनर्गठित किया गया उस वक्त यह एक जरूरत बन चुकी थी क्योंकि मध्यप्रदेश का आकार बहुत बड़ा था। राजस्थान भी एक बड़ा राज्य है। यही हाल महाराष्ट्र का है। लेकिन बाकी राज्य अपेक्षाकृत छोटे ही हैं। इसी कारण वहां नए राज्यों को बनाने की कोई प्रशासनिक जरूरत समझ में नहीं आती। पुनर्गठन के नाम पर राज्यों में नए सरदार पैदा किए जा रहे हैं। जो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाएंगे। कुल मिलाकर छोटे राज्य बनने से खर्च बढ़ेगा और राजनीति का स्वरूप भी बदलेगा।
वर्ष 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत राज्यों के पुनर्गठन की जो प्रक्रिया अपनाई गई थी उसका उद्देश्य यह था कि राज्यों की सीमाएं भाषाई, भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, आबादी, सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर तय की जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। इसीलिए बाद में मुंबई से काटकर गुजरात को अलग कर दिया गया और पंजाब को 3 हिस्सों में बांटना पड़ा। बाद में कई राज्य बने। भले ही इन राज्यों की विकास दर अन्य राज्यों से बेहतर है, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। कई बार उल्टा भी हो सकता है। जैसे गोरखालैंड की मांग का विरोध करने वालों का कहना है कि यदि इसका गठन हो भी गया तो संसाधन कहां से आएंगे। सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी और राजनीतिक अस्थिरता तो झारखंड जैसे राज्यों में बनी ही रहती है। क्षेत्रीय राजनीति को पोषित करने के लिए समय-समय पर कांग्रेस जैसे पार्टियों ने छोटे राज्य बनाए। लेकिन अब वे ही कांग्रेस के लिए सरदर्द बन चुके हैं। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का कहना है कि अलग-अलग राज्यों की मांग जो उठ रही है वह प्रदर्शनों के आधार पर राज्य नहीं बनाए जा सकते। एतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना होता है।
बहरहाल तेलंगाना को लेकर आंध्रप्रदेश में भारी विरोध किया जा रहा है। कई मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। कई विधायकों ने भी मंत्रियों का अनुसरण किया। सांसद पहले ही इस्तीफा दे चुके हैं। भयानक रूप से असंतोष बढ़ रहा है। राज्य में यह संदेश दिया जा रहा है कि कांग्रेस गरीब और अमीर इलाकों को अलग करना चाहती है। ऐसे हालात में राज्यों के पुनर्गठन को लेकर कांग्रेेस की नीति पर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं। टीआरएस ने आंध्रप्रदेश के बाकी लोगों को तेलंगाना से बाहर जाने की बात कहकर आग में घी डालने का काम किया है। रॉयलसीमा और तटीय आंध्र इलाकों में बंद तथा प्रदर्शन देखे जा रहे हैं। संयुक्त आंध्रप्रदेश के समर्थकों ने लगातार सरकार का विरोध करके यह जता दिया है कि आंध्रप्रदेश का गठन उतना आसान नहीं होगा। उधर हैदराबाद को लेकर भी कश्मकश जारी है। टीआरएस ने सरकार से हैदराबाद के विषय में रुख स्पष्ट करने की बात कही है। कांग्रेस की मंशा हैदराबाद को चंडीगढ़ की तरह एक संयुक्त राजधानी के रूप में प्रस्तुत करने की है। लेकिन दक्षिण में यह प्रयोग कितना सफल हो पाएगा कहा नहीं जा सकता। वैसे तेलंगाना में कई नगरों में राजधानी बनने की क्षमता है। देखना है कि 10 वर्ष के लिए जो व्यवस्था की जा रही है उस पर सहमति बनती है या नहीं। उधर लेखिका शोभा डे ने मुंबई को पृथक राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कर आग में घी डाल दिया है। उनकी ट्वीटर पर की गई टिप्पणी पर कई राजनीतिक दलों ने आपत्ति जताई है।
जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस वक्त 66 वर्ष पूर्व सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारत की 573 रियासतों का भारत में विलय किया था। इनको भाषायी और सांस्कृतिक आधार पर बाद में नए राज्यों में विभक्त किया गया। अब 29 राज्यों का अखंड भारत सबके सामने है, लेकिन इसके और भी खंड किए जाने को राजनीति आमादा है। तेलंगाना के बाद कुछ और राज्य बनाने ही पड़ेंगे क्योंकि उनकी मांग अब जोर पकड़ेगी। खासकर गोरखालैंड और पूर्वोत्तर में बोडो लैंड के लिए संघर्ष खूनी भी हो सकता है। विदर्भ को लेकर महाराष्ट्र में पहले ही काफी टकराव है।  नागपुर, अमरावती, अकोला, वरधा चंद्रपुर, गढ़चिरोली, गोंडिया, भंडारा, बुल्डाना और यावतमल में लगातार मांग उठती रही है। मायावती ने अवध प्रदेश, पूर्वाचल, हरितप्रदेश, बुंदेलखंड का जो राग अलापा था उसके पीछे भी कारण यह था कि एक  न एक राज्य में सत्ता बनी रहे। हालांकि मुलायम सिंह इस मांग के समर्थन में नहीं है। लेकिन देर सवेर कोई इंतजाम करना ही होगा। विकास के नाम पर और कितना टूटेगा यह देश। फिर इस देश अखंडता की बात करना शायद उतना मौजूं न हो। क्योंकि क्षेत्रीयता और जातिवाद हमारी विशेषता बन चुका होगा। भारत को खंडित करने के लिए की जा रही राजनीति के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। फिलहाल तो तेलंगाना को लेकर राजनीति का बाजार गर्म है।

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