नया भारत कितना नया?
12-Feb-2019 08:02 AM 1235029
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं।- ये महज लाइनें नहीं हैं, यह हमारा देश है। जिसकर परिकल्पना आज से 70 साल पहले की गई थी। लेकिन आज देश में जो हालात हैं उसे देखते हुए हम गणतंत्र का गुणगान जरूर कर सकते हैं, लेकिन 2 साल 11 महीने और 18 दिन में 166 बैठकों के बाद बनी संविधान नाम की किताब की मूल भावना के साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसे देश कैसे स्वीकार कर सकता है? दरअसल, आजादी के बाद से ही देश में बढ़ती जनसंख्या, आर्थिक असमानता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे हैं। देश में जो भी सरकार आती है इनके निदान की बात करती है। सरकारें आ-जा रही हैं, लेकिन देश वहीं का वहीं है। देश का कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जो गणतंत्र की मूल भावना समाहित समता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुता पर खरा दिख रहा हो। नई बोतल में पुरानी शराब आजादी के बाद से अब तब देश में जितनी भी सरकारें आई हैं उन्होंने बड़ी ऊर्जा के साथ आर्थिक असमानता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार का समाधान करने का संकल्प लिया। वर्तमान सरकार ने भी अच्छे दिन का सपना दिखाया। सत्तर साल पहले सभी भारतीयों की ऐसी ही ऊर्जा, प्रयास और संकल्प ने देश को अंग्रेजी हुकूमत से स्वतंत्र किया था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के 5 साल के भीतर देश स्वतंत्र हो गया। आज की तरह तब भी आधारशिला रखी गई थी लेकिन इसके लिए प्रतिबद्ध प्रयासों की जरूरत थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से संकल्प से सिद्धि 2022-23 तक नए भारत के निर्माण का आवाहन है। ये बातें नीति आयोग के उस दस्तावेज में हैं जो न्यू इंडिया 75 नाम से जारी किया गया है। इसकी प्रस्तावना में उन रणनीतियों का उल्लेख है जो नए भारत के निर्माण में सहायक हैं। ऐसा लग रहा है कि नया भारत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हमें उपहार में मिल रहा है। नए भारत के आवाहन के बीच जब रणनीतिक दस्तावेज को गौर से देखा जाए तो यह आवाहन औंधे मुंह गिरता है। बदलाव के मुख्य घटकों में रोजगार, आर्थिक विकास, किसानों की दोगुनी आय और सबके लिए आवास के अलावा सेवा क्षेत्र का विस्तार शामिल है। ध्यान से इन पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि जिस नए भारत की बात हो रही है उसमें कुछ भी नया नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये सभी घटक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे हैं। इनके लिए बन रही रणनीतियां नई नहीं हैं। कहा जा रहा है कि देश में कृषि विकास दर बढ़ाने की जरूरत है, रोजगार के अवसर पैदा होने चाहिए और कृषि बाजार में सुधार की आवश्यकता है। 1950 के दशक में भी यही बातें होती थीं। तब नया-नया आजाद हुआ भारत विकास की रणनीतियों का खाका बना रहा था। तब भी नीति निर्माताओं और राजनीतिक नेतृत्व ने विकास के घटक चिन्हित कर लिए थे। अब भी वही स्थिति है। भारत अब तक इन घटकों को विकास के पथ पर अग्रसर नहीं कर पाया है। ऐसे में पुराना आवाहन दोहराना नए दृष्टिकोण के बजाय असफलताओं को स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं है। समस्याओं से जूझ रहा हमारा गणतंत्र जब हमारे स्वतंत्रता सेनानी ब्रिटिश हुकूमत से लड़ रहे थे तब वे अभावग्रस्त और कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद अपने पारंपरिक ज्ञान और चेतना से इतने बौद्धिक थे कि किसान-मजदूर से लेकर हर उस वर्ग को परस्पर जोड़ रहे थे, जिनका एक-दूसरे के बिना काम चलना मुश्किल था। इस दृष्टि से महात्मा गांधी ने चंपारण के भूमिहीन किसानों, कानपुर, अहमदाबाद, ढाका के बुनकरों और मुंबई के वस्त्र उद्यमियों के बीच सेतु बनाया। नतीजतन इनकी इच्छाएं आम उद्देश्य से जुड़ गईं और यही एकता कालांतर में ब्रिटिश राज से मुक्ति का आधार बनी। इसीलिए देश के स्वतंत्रता संग्राम को भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। इन्हीं भावनाओं के अनुरूप डॉ. आंबेडकर ने संविधान को आकार दिया। इसीलिए जब हम सत्तर साल पीछे मुड़कर संवैधानिक उपलब्धियों पर नजर डालते हैं तो संतोष होता है। लेकिन जब आर्थिक असमानता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के आंकड़े सामने आते हैं तो सवाल उठता है कि क्या इसीलिए भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराया गया था। आंकड़े खोल रहे पोल भारत आज प्रगति के नए सोपान पर है। विश्व समुदाय में भारत ने अपनी ताकत और प्रगति का लोहा मनवा लिया है। लेकिन कुपोषण, भुखमरी, बेरोजगारी के आंकड़े हमारी प्रगति की पोल खोल रहे हैं। भारत में कुपोषित लोगों की संख्या 19.07 करोड़ है। यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। देश में 15 से 49 वर्ष की 51.4 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। पांच वर्ष से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चे अपनी आयु के मुताबिक कम लंबे है। इक्कीस फीसदी का वजन अत्यधिक कम है। भोजन की कमी से हुई बीमारियों से देश में सालाना तीन हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं। जाहिर है भूख से लडऩे के मामले में भारत की इस शर्मनाक तस्वीर ने दक्षिण एशिया को इस मोर्चे पर पीछे धकेल दिया है। हालांकि पाकिस्तान को छोड़कर दक्षिण एशिया के तमाम देशों का प्रदर्शन इसमें अच्छा दिख रहा है। सबको पोषण उपलब्ध कराने की घोषित प्रतिबद्धता के बावजूद भ्रष्टाचार, लालफीताशाही तथा अन्य वजहों से सब तक खाद्यान्न नहीं पहुंच पा रहा है। हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों का क्षरण देखा जाए तो पिछले 70 साल में शिक्षा समेत अनेक क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों का क्षरण हुआ। दरअसल लोकतंत्र का मतलब उसकी विभिन्न लोकतंत्रात्मक संस्थाएं ही नहीं है। वास्तव में इसकी भावना का समावेश जनजीवन में होना चाहिए। यह जीवन की एक प्रणाली है। लोकतंत्र की चरितार्थता प्रातिनिधिक विधान-सभाओं अथवा निर्वाचित सरकारों में नहीं, वरन लोगों के स्वेच्छा प्रेरित सहयोगात्मक कार्यों में है, जिससे वे मिल-जुल कर अपनी समस्याओं का समाधान करते हैं, अपने हितों का समाधान करते हैं और अपनी व्यवस्था का संचालन करते हैं। लोकतंत्र तभी सफल समझा जा सकता है जब लोग स्वेच्छा से प्रेरित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करें। जिन लोगों ने अध्यवसाय और प्रेरणाशक्ति का परिचय दिया है, उनके देश में लोकतंत्रात्मक व्यवस्था सफल रही है। लोकतंत्र से स्पष्ट अभिप्राय सामाजिक-आर्थिक न्याय, अवसर की समानता, औद्योगिक लोक व्यवस्था के साथ-साथ उन सभी बातों से ही है जिन्हें हम राजनीतिक लोकतंत्र के नाम से जानते-मानते हैं। और यदि इस लक्ष्य तक पहुंचा सकने में समाजवाद या साम्यवाद विफल हुए हैं तो उस दिशा में प्रयास जारी रखना नितांत आवश्यक है। जात-पात और छुआछूत जैसी सामाजिक प्रणालियां एवं मानसिक प्रवृत्तियां भी लोकतंत्र के मार्ग की सबसे बड़ी बाधाएं हैं। जिस समाज में लोग जातिगत आधार पर ऊंच-नीच और अछूत समझे जाते हों, उसमें लोकतंत्र नहीं चल सकता। यह दूसरी बात है कि हर व्यक्ति की योग्यता और क्षमता जन्म से ही भिन्न होती है, किंतु इसकी ऊहापोह प्राणि-शास्त्र का विषय भले हो, जातिवाद से इससे कोई संबंध नहीं हैं। लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले प्रत्येक भारतीय विचारक को यह समझ लेना चाहिए कि इस देश में लोकतंत्र के सबसे प्रबल शत्रु जातिवाद और अस्पृश्यता ही हैं। इसके साथ ही यह भी समझ लेने की बात है कि लोकतंत्र के इन प्रबल शत्रुओं को राजनीति के हथियारों से ही नहीं, वरन शिक्षा और विवेक के शस्त्रों से भूमिसात किया जा सकता है। थोड़ा बहुत इसका संबंध अर्थ-व्यवस्था से भी है। आर्थिक स्थिति सुधरने से दलित और पिछड़े वर्गों की सामाजिक अवस्था भी उन्नत हो सकती है। परंतु इनकी आर्थिक स्थिति सुधर जाने से ही जाति प्रथा समाप्त हो जाएगी, यह मानना भूल होगी, क्योंकि आर्थिक दृष्टि से संपन्न जाति वाले भी परस्पर जाति भेद तो मानते ही हैं। दरअसल भारतीयों में जिस गुण का अभाव पाया जाता है, वह अपने देश के प्रति जिम्मेदारी और समर्पण भावना की कमी है। यह गुण चीन के लोगों में प्रचुर मात्रा में है। इसीलिए चीन में अपनी बहुत अधिक आबादी के बावजूद क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। उन्होंने विकसित देशों को उलझन में डाल दिया है। दुर्भाग्य से हमारे यहां देश में आजादी तो है, लेकिन जिम्मेदारी और व्यवस्था की भावना नहीं है। हम लोग जो मन में आया उसे करने की आजादी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। हमारा यह गैर-जिम्मेदाराना प्रदर्शन हमारे रोजमर्रा के कामों में भी साफ दिखाई देता है। इसी कारण हमारी सड़कों पर अराजकता दिखाई देती है। लोग बाएं-दाएं का ख्याल किए बिना उलटा-सीधा चलने में संकोच नहीं करते हैं। लोग अपने आसपास के परिवेश को गंदा रखते हैं और सोचते हैं कि सफाई का कार्य तो सरकार का है। बिना किसी हिचक के और यह सोचे-विचारे कि उनके ये कार्य राष्ट्रीय कल्याण और स्वास्थ्य के लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग में बाधक बनते हैं। कभी-कभी तो किसी भी बात पर लोग इतना उग्र हो जाते हैं कि अपना विरोध जताने के लिए अपनी ही सार्वजनिक संपत्ति (बस, ट्रेन और इमारतों) को आग लगा देते हैं जो उनके ही दिए गए करों से खरीदी और बनाई गई हैं। इसलिए जब तक हमारे भीतर अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी, राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं पैदा होगा तब तक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। आज एक बार पुन: भारत ऐसी ही पतनावस्था से उबर रहा है। इसलिए भावी भारत के निर्माताओं का यह कर्तव्य है कि वे उन स्रोतों का पता लगाएं, जो शाश्वत भारतीय जन-जीवन को गतिशील बनाए रखने में समर्थ हैं।
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