भक्ति युक्त कर्म श्रेष्ठ है
14-Aug-2013 08:05 AM 1235497

भक्ति युक्त कर्म श्रेष्ठ हैश्रीमद्भगवद्गीता में कर्म की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि कर्म में यदि भक्ति भाव है तो कर्म करने वाले को उसके परिणाम की फिक्र करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि भक्ति भाव से किया गया कर्म कभी गलत हो ही नहीं सकता। इसीलिए वह सुफल ही देगा। उसके परिणाम के प्रति हमें आश्वस्त रहेगा चाहिए।
ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि
न काङ्क्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।
जो पुरूष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।
पूर्णतया कृष्णभावनाभावित पुरूष नित्य संन्यासी है क्योंकि वह अपने कर्मफल से न तो घृणा करता है, न ही उसकी आकांक्षा करता है। ऐसा संन्यासी, भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के परायण होकर पूर्णज्ञानी होता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानता है। वह भलीभॉंति जानता रहता है कि कृष्ण पूर्ण (अंशी) हैं और वह स्वयं अंशमात्र है। ऐसा ज्ञान पूर्ण होता है क्योंकि यह गुणात्मक तथा सकारात्मक रूप से सही है। कृष्ण-तादात्म्य की भावना भ्रान्त है क्योंकि अंश अंशी के तुल्य नहीं हो सकता। यह ज्ञान कि एकता गुणों की है न कि गुणों की मात्रा की, सही दिव्यज्ञान है, जिससे मुनष्य अपने आप में पूर्ण बनता है, जिसे न तो किसी वस्तु की आकांक्षा रहती है न किसी का शोक। उसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं रहता क्योंकि वह जो कुछ  भी करता है कृष्ण के लिए करता है। इस प्रकार छल-कपट से रहित होकर वह इस भौतिक जगत् से भी मुक्त हो जाता है।
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं। जो वस्तुत: ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभॉंति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है।
भौतिक जगत् के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है। भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं। भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है। एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है। सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूँढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है। अत: मूलत: इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है। जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान् है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है।
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति                  स पश्यति।।
जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।
दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरमलक्ष्य की खोज है। चूँकि जीवन का चरमलक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अत: इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है। सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि जीव भौतिक जगत् का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है। फलत: जीवात्मा का भौतिक जगत् से कोई सरोकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्वर से सम्बद्ध होने चाहिए। जब वह कृष्णभावनामृतवश कार्य करता है तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है। सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे कृष्णभावनाभावित कर्म में आसक्त होना होता है। वस्तुत: दोनों ही विधियाँ एक हैं, यद्यपि ऊपर से एक विधि से विरक्ति दीखती है और दूसरे से आसक्ति। जो पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।

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