कितना महत्वपूर्ण है हमारे शरीर में मौजूद प्राण
17-Jul-2013 08:19 AM 1234896

प्राण-ऊर्जा पाँच प्रकार की होती है: अपान, व्यान, उदान, समान और प्राण। मनुष्य के पूरे शरीर का संचालन इसी प्राण-उर्जा से हो रहा है। इस प्राण-ऊर्जा के सम्बन्ध में एक पुरातन वैदिक कथा कई उपनिषदों में आयी है। मन, श्वास, प्राण, वाणी, श्रोत्रा और नेत्र ये पाँच इन्द्रियाँ और प्राण एक बार आपस में बहस करने लगे कि उनमें से कौन सर्वश्रेष्ठ और सब से महत्त्वपूर्ण है। इस झगड़े से निवृत्त होने के लिये उन्होंने निर्णय लिया कि एक-एक करके हर शक्ति शरीर को छोड़े और यह देखा जाये कि किसकी अनुपस्थिति सब से ज़्यादा महसूस होती है। सब से पहले वाणी ने शरीर का साथ छोड़ा, परन्तु मौन हो जाने पर भी शरीर तो चलता ही रहा।
फिर इसके बाद दृष्टि यानी देखने की शक्ति ने शरीर का साथ छोड़ दिया। लेकिन अन्धा होने के बावजूद भी शरीर का कार्य बंद नहीं हुआ। इसके पश्चात् श्रवण शक्ति के साथ छोडऩे पर शरीर बहरा तो हो गया, परन्तु उसका कार्य तो फिर भी चलता रहा। मन के साथ छोडऩे पर शरीर तो अचेत हुआ, परन्तु वह अभी भी बना रहा।
आखिऱ में जैसे ही प्राण-ऊर्जा ने साथ छोडऩा शुरू किया, तब शरीर मरने लगा और उसकी अन्य सभी इन्द्रियाँ भी अपनी शक्ति खोने लगी। तब वह सभी शक्तियाँ प्राण-ऊर्जा के पास दौड़ीं और उसे शरीर में रहने के लिये उन्होंने मना लिया और उसके सर्वश्रेष्ठ होने की घोषणा की।
प्राण ही देह और इन्द्रियों की सभी क्षमताओं को शक्ति देता है। इसके बिना वे क्षमताएँ कार्यान्वित नहीं हो सकतीं। प्राण-उर्जा के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। इस कहानी का तात्पर्य यह है कि अपनी अन्य क्षमताओं पर नियंत्रण पाने के लिये हमारा प्राणÓ पर प्रभुत्व पाना अत्यंत आवश्यक है।
प्राण कई स्तरों पर कार्य करता है और श्वास से लेकर स्वयं चैतन्य-शक्ति तक सभी आयामों में यह संलग्न रहता है। प्राण केवल आधरभूत जीवन-शक्ति ही नहीं है, बल्कि मन और शरीर के तल पर कार्य करने वाली उर्जा का भी यह मौलिक स्वरूप है। असल में मौलिक सर्जन-शक्ति से निर्मित यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि चेतना को परिवर्तित करने वाली कुण्डलिनी या आत्मिक शक्ति भी इसी जागृत प्राण से विकसित होती है। वैश्विक तल पर प्राण के दो मौलिक स्वरूप हैं। पहला प्राण का  वह अप्रकट़ रूप है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से बढ़कर शुद्घ चैतन्य की शक्ति है, जो सर्व उत्पन्न जगत् से परे है।
प्राण का दूसरा या प्रकट रूप स्वयं सृजनात्मकता का स्रोत है। प्रकृति की क्रियात्मक प्रवृत्ति से माने रजोगुण से प्राण उत्पन्न होता है। प्रकृति तीन गुणों से मिल कर बनी है। एक है सत्त्वगुणÓ या समन्वय की वृत्ति, जिससे हमारा मन बना। दूसरा है रजोगुणÓ या क्रियाशीलता, जिससे प्राण उत्पन्न हुआ। और तीसरा है तमोगुणÓ या जड़ता, निष्क्रियता, जिससे यह स्थूल शरीर बना है।
निश्चय ही यह तर्क दिया जा सकता है कि मुख्यत: प्रकृति प्राणमय या रजोगुणात्मक होती है। प्रकृति शक्ति है, उर्जा है। जब यह ऊर्जा उच्च आत्मिक या शुद्घ चैतन्य की ओर, माने परम पुरुष की ओर आकर्षित होती है, तब यही ऊर्जा सात्त्विक हो जाती है। अज्ञान की जड़ता के कारण यही ऊर्जा तामसिक हो जाती है।
हमारे स्थूल अस्तित्व से संबंधित जो प्राण या मौलिक उर्जा है, यह वायु तत्त्व का ही परिवर्तित रूप है, मुख्यत: श्वसन द्वारा जिसे हम भीतर लेते हैं, वह ऑक्सीजन ही हमें जीवित रखता है। जैसे वायु आकाश या अवकाश में उत्पन्न् होती है, प्राण भी अवकाश में ही उदित होता है और उससे बहुत नजदीकी से जुड़ा रहता है। जहाँ भी हम अवकाश उत्पन्न करते हैं, वहीं पर यह प्राण या उर्जा स्वयं ही पैदा हो जाती है।

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