18-Jan-2019 06:20 AM
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चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल क्या-क्या लॉलीपॉप फेंक सकते हैं, इसका एक और नमूना अगड़ी जातियों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के ऐलान के रूप में सामने आया है। लोकसभा चुनावों से 3 महीने पहले आए सरकार के इस फैसले को सवर्ण वोटों को खुश करने के रूप में देखा जा रहा है। इस घोषणा को चुनावी लॉलीपॉप ही कहा जा सकता है। हालांकि सवर्णों को आरक्षण के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित की गई है। इसमें सालाना 8 लाख रुपए से कम वार्षिक आय, 5 एकड़ से कम जमीन का मापदंड रखा गया है।
सवर्ण आरक्षण के पीछे भाजपा की असली मंशा वोट हथियाना है पर अभी कई सवाल है। सवर्णों को आरक्षण देने से क्या पहले से आरक्षित दलित, पिछड़ी जातियां नाराज होकर भाजपा के खिलाफ नहीं जाएंगी? अगर अगड़ी जातियां इस लॉलीपॉप से भाजपा के पास आ भी गईं तो क्या वह उनके बूते चुनावी वैतरणी पार कर सकेगी? दलित जातियां एट्रोसिटी के चलते भाजपा सरकार से खासी नाराजगी जता चुकी थी और उन्होंने भारत बंद भी किया था। पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने एससी, एसटी एक्ट में बदलाव करते हुए कहा था कि मामलों में तुरंत गिरफ्तारी नहीं की जाएगी। शिकायत मिलने पर तुरंत मुकदमा भी दर्र्ज नहीं होगा। पहले एसपी स्तर का पुलिस अधिकारी मामले की जांच करेगा। विरोध के चलते केंद्र सरकार इसके खिलाफ अगस्त में बिल लेकर आई। इसके जरिए पुराने कानून को बहाल कर दिया गया लेकिन दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की गई तो उधर इस एक्ट से सवर्ण नाराज हो गए।
इस आरक्षण में भी पेंच है। सुप्रीम कोर्ट ने एमआर बालाजी बनाम स्टेट ऑफ मैसूर मामले में सितंबर 1962 में फैसला किया था कि किसी भी स्थिति में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इस फैसले का आधार कोर्ट ने मेरिट को कुंठित न होने देना बताया था। तब से लेकर आज तक लगभग हर फैसले में यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने इंद्रा साहनी मामले में भी इसे बहाल रखा।
असल में आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की गई थी कि भारत में धार्मिक व्यवस्था के चलते गैर बराबरी वाला समाज है, जहां ऊंच-नीच, छुआ-छूत के भेदभाव के चलते शैक्षिण और सामाजिक तौर पर समाज पिछड़ा रह गया। अनुच्छेद 15 और 16 सरकार को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह सामाजिक और शैक्षिक न कि आर्थिक रूप से पिछड़ वर्ग न कि जाति को आगे बढऩे के अवसर प्रदान करे। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के सामने जब यह मामला फिर जाएगा तो वह संविधान के इस तराजू पर इसे तोलेगा। लिहाजा सदियों से निचले दबे-कुचले वर्गों के शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण लागू किया गया था। मोदी सरकार का सवर्णों के लिए यह आरक्षण आर्थिक उत्थान के लिए है। संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात नहीं है इसलिए गैर बराबरी दूर करने की संविधान की असली मंशा के यह विपरीत है।
असली सवाल तो यह है कि नौकरियां हैं कहां? और फिर आरक्षित आबादी इतनी है कि गैर आरक्षितों के लिए वैसे ही स्थान अधिक हैं। संविधान में 50 प्रतिशत से अधिक का प्रावधान नहीं है और आरक्षित वर्ग में आने वाली आबादी लगभग 80 प्रतिशत है यानी बाकी बची सवर्ण जातियों के लिए शेष 50 प्रतिशत यानी आधी जगहें बची रह जाती हैं। आरक्षण का गणित कोई समझना नहीं चाहता। अब हर जाति, वर्ग अपने लिए आरक्षण चाह रहा है। भाजपा ने इस प्रस्ताव से अपने परंपरागत अगड़ी जातियों के वोटरों को खुश करने की कोशिश की है जो एससी, एसटी एक्ट पर अध्यादेश लाने को लेकर पार्टी से नाराज बताए जा रहे थे। इसका असर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ विधानसभा चुनाव के नतीजों में भी देखने को मिला। ऐसे में अब भाजपा आरक्षण के दांव से आम चुनाव में अपने सवर्ण बहुल गढ़ों को बचाना चाहती है।
बाकी जातियों का क्या?
लेकिन सवाल यह भी है कि क्या बाकी जातियों को आर्थिक आधार पर यह छूट मिलेगी? (ग्रामीण आबादी के सवर्णों के लिए आरक्षण की पात्रता 5 एकड़ जमीन होना और शहरी इलाकों में 1000 वर्गफुट का घर होना माना गया है) यह आधार ओबीसी के क्रीमीलेयर को फिर से पारिभाषित करने की जरूरत खड़ी करेगा। कैबिनेट का फैसला ऐसे वक्त आया है जब कोई दल सीधे-सीधे इसकी मुखालफत करने की स्थिति में नहीं है। वैसे आरक्षण का राजनीति का एक दायरा होता है। हार्दिक पटेल से लेकर मायावती तक, आरक्षण की सियासत करने वाले नेता अपनी स्वीकार्यता का दायरा और अपने वोट बैंक को विस्तृत नहीं कर सके।
-संजय शुक्ला